क्रांतिधर्मी कवि को विनम्र श्रद्धांजलि
उद्भव मिश्र1
ध्रुव देव मिश्र पाषाण देश के जनवादी साहित्य धारा का प्रतिलब्ध हस्ताक्षर है। जो बंगाल के जनपक्षी क्रांतिधर्मी जमीन पर रहते हुए, आजीवन जन्मभूमि देवरिया के प्रगतिशील धारा के साहित्यकारों से जुड़े रहे। कोलकाता जाने से पूर्व का समय भी कम महत्व पूर्ण नहीं रहा । इसी दौर में उनके लेखन प्रवृत्ति का विकास हुआ, ‘मीरा मां‚ और ‘शान्ति का क्रंदन‚ जैसी कविताएं इसी दौर में प्रकाशित हुई। यही समय था जब वे देवरिया एस एफ आई के अध्यक्ष बने । कामरेड शिव वर्मा के सम्पर्क में आने के बाद पार्टी की पत्रिका ‘जनयुग, लखनऊ से जुड़े, परन्तु 1961 में ही देवरिया लौट आए और बिहार के गांव चित्ताखाल में प्रधानाध्यापक की नौकरी कर लिया। लेकिन मन के भीतर चल रही बेचैनी एक बार फिर देवरिया खींच लाई । 1964 में देवरिया टाइम्स का प्रकाशन शुरू किया । डॉक्टर राजकुमार पाण्डेय और कामरेड बैजनाथ सिंह उनके नियमित लेखकों में से थे । जीवन में बहुत जल्द ही एक नया मोड़ आया, 1965 में कोलकाता चले गये,जहाँ साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ने का अवसर मिल गया। बंगाल के जनवादी सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना ने पाषाण को एक नयी दिशा दे दिया। । 2009 में पतझड़ पतझड़ बसंत काव्य संग्रह आने से पहले ‘लौट जाओ चीनियों, ‘एक शीर्षक विहीन कविता‚ और पांच अन्य कविताएं, बंदूक और नारे, मैं भी गुरिल्ला हूं, विसंगतियों के बीच , कविता तोड़ती है, धूप के पंख, खंडहर होते शहर के अंधेरे में और वाल्मीकि की चिंता एवं चौराहे पर कृष्ण जैसी रचनाएं प्रकाशित ब चर्चित हो चुकी थीं । यही नहीं विद्रोह नाटक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इधर 2018 में सरगम के सुर साधे के आने तक उनकी रचनाओं का विपुल भंडार बढ़ता चला गया है। यही नहीं जीवन के अंतिम क्षण तक क्रियाशील होकर सृजन करते रहे। जिसके संकलन की बेहद जरूरत है।जीवन के आखिरी दिन तो उन्होने देवरिया में गुजारा ।
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पाषाण जी से साथ अन्य साहित्यकारों के साथ उद्भव मिश्र |
ध्रुवदेव मिश्र पाषाण
एक कवि होने से पहले विशाल हृदय व्यक्ति थे। गांव और महानगर का अद्भुत संगम उनके
भीतर देखा जा सकता था । उनकी आंखों में भारत के भविष्य के एक ऐसा सपना बसता था कि
हर परिवर्तनकामी व्यक्ति उनका मुरीद हुए बगैर रह नहीं सकता । जब भी वे देवरिया में
रहे, मुझे बाहर से आने वाले साहित्यकारों के साथ उनके यहां जाना पड़ा । प्रायः हर
बार चर्चा का विषय देश का भविष्य ही होता। जिसकी बानकी उनकी कविताओं झलकती है।
किसान के मन में
फसल बादमें लहलहाती है
पहले लहलहाते हैं आदमी के स्वप्न
कवि पाषाण के मन में लहलहा रहा था समता मूलक समाज निर्माण का एक स्वप्न। एक ऐसा स्वप्न जहां समता स्वतंत्रता और बंधुत्व की फसल लहरा रही थी। मनुष्यता को उनके कवि कर्म के केन्द्रीय तत्व के रूप में देखा जा सकता है।जो कुछ नहीं होता आदमी के अनुकूल/कविता उसके प्रतिकूल खड़ी हो जाती है ।अपनी रचना यात्रा में कवि 'पाषाण' उन सबके ख़िलाफ़ खड़े नजर आते हैं जो भी कुछ मनुष्य और मनुष्यता के अनुकूल नहीं है । कवि की सकारात्मक जीवन दृष्टि सम्पूर्ण जगत आई ओ में उपस्थित इटरनल हारमनी के प्रति है । जीवन और जिजीविषा के कवि को जिस लोक से जीवन रस प्राप्त होता है, जिसका अमृत कुंड कभी सूखता नहीं है उस के भीतर अतीत में भविष्य के अंकुर अँखुआते रहते हैं ।
प्रलय कीच में
खिला करेगा
सृष्टि कमल हरदम
नहीं थमेगानव जीवन के बीज रोपता
मानव का श्रम/
कवि पाषाण जी की कविता सर्वदा शोषित पीड़ित और दलित के साथ खड़ा होती रही है। हर पीड़ित की पीड़ा से ऐसा तादात्म्य स्थापित हो जाता कि कवि स्वयं पीड़ा का अनुभव करते हैं।
लाठी खा जूते खा
मर जा या जिंदा रह
पावों के नीचे रह
एक वर्ग विभाजित समाज जहाँ स्वाभाविक है वर्ग संघर्ष । वहीं मुक्ति बोध सवाल करते हैं, पार्टनर तुम्हारा पॉलिटिक्स क्या है ? कवि को तय करना है कि वह शासक वर्ग के साथ है या खेत खलिहानों,कल कारखानों में खून पसीना बहाते मजदूरों के साथ। कवि पाषाण की कविता प्रतिरोध के स्वर में शासक वर्ग के शोषण और दमन को चुनौती देती है ,जेहाद छेड़ती है। मुक्तिबोध की परम्परा को निरन्तरता प्रदान करते हुए उद्घोष करते हैं -
बदलेगी
सत्ता समाज का जीर्ण शीर्ण
व्याकरण
धरती की रक्ताक्त हथेली पर
रचेगी हरियाली की भाषा
ढहायेगी
नयी अभिव्यक्ति की राह रोकते
'मठ' और गढ़
लायेगी 'सहस्रसार रक्त कमल'
कीचड़ कांदों में धँस कर ।
उनकी कविता समाज के
ऊबड़ खाबड़ जमीन को खोद कर बराबर करने के लिए टकराती है। अभिव्यक्ति के हजार खतरे
उठाते हुए कलम को फावड़ा जैसे चलाती है। जहां उनकी कविताओं में कठोर जमीन को
तोड़ने की आवाज आती है वहीं बहुत कुछ फूल जैसा कोमल भी देखा जा सकता है ।
एक प्रेम
हर प्रेम की होती है
एक उम्र
हर फूल का होता है
जैसे एक रंग
हर रंग का होता है
जैसे एक फूल
क्रांतिधर्मा कवि पाषाण के भीतर फूल जैसा कुछ इतना मृदुल भी है कि वज्रादपि कठोराड़ी कुसुमादपि मृदुनि च का आभास होता है।रक्त राग के कवि में शमशेर की रोमानियत एक दूसरे पक्ष को उजागर करती है।मनुष्यता को उन्मुक्त वातावरण प्रदान करती है ,जहाँ सहृदयता समय के साथ अनेक रंगों में खिलते दृष्टिगोचर होती है और भावना कलम का साथ पाकर कुछ और ही प्राणवान हो उठती है
झुर्रीदार शिथिल तन बदन
खोये खोये से
सुरति विरति के खंड विखंड
पृथक पृथक चित्र स्वप्न
पचहत्तर पार
गिनते गाँठ गाँठ
रीते बसंत और
पतझरों के पात पात
हवा हवा घात प्रतिघात
बाहों में साथ साथ
बिछावन पर
साँस साँस अलसाये
उनींदे से।
त्वचा त्वचा देह राग से परे
अनहद सरगम साध रहा होता है।
पाषाण जी आक्रोश, असहमति, संघर्ष और प्रतिरोध के कवि हैं।उनकी लगभग सभी कविताओं में विद्रोह और प्रतिरोध का स्वर प्रति ध्वनित होताहै। वे कविता को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं। जन आंदोलनों सेजुडे रहने के कारण उन्हें जेल यात्रा भी करनी पड़ी। संघर्ष से ही उनकी कविता ऊर्जस्वित होती रही है। यह संघर्ष से ही उत्पन्न उनके भीतर की ऊर्जा है जो उनकी रचनाओं को अनूठे तरीके से संप्रेषणीय बनाती रही है।
कोलकाता जैसे महानगर में रह कर भी उनके भीतर का गंवईपन जोर मारता रहा है। भाषा के स्तर पर ठेठ भोजपुरी के शब्द जिस सलीके से उनकी रचनाओं में प्रयुक्त हुए हैं,वह उनके काव्य शक्ति का परिचय देते हैं।वे हर वक्त गांव और जमीन से जुड़े नजर आते हैं ।इस लिए कि वे कवि होने से पहले एक एक्टिविस्ट थे और उनकी कविता मात्र एक कोरे कवि की कविता नहीं,है कविता में उनका एक्टिविस्ट उपस्थित रहता है। ऐसे ही वे हमारे बीच सर्वदा उपस्थित रहेंगे।
पाषाण जी का जन्म उत्तर प्रदेश के गाँव इमिलिया, जिला देवरिया में 9 सितंबर, 1939 को पिता संत प्रसाद मिश्र और माता राजपति देवी के घर हुआ। पहली पत्नी विद्यावती देवी के निधन के बाद शांति देवी से उनका दूसरा विवाह हुआ। अर्चना, विश्वदेव, सरोज, नरेंद्र, देवेंद्र, वाचस्पति, घनश्याम और सर्जना उनकी संताने हैं। पाषाण जी अपने पीछे भरा पूरा परिवार और ढेर सारे चाहनेवालों को छोड़ गए हैं।7 जनवरी 2025 को उनके निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर फैल गयी । पाषाण जी देहमुक्ति पर देश के विभिन्न जनपक्षी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं,पत्र-पत्रिकाओं, लेखकों, कवियों ने शोक व्यक्त करते हुए श्रद्धांजलि दिया।
उनकी प्रकाशित रचनाएं हैं – विद्रोह (नाटक,1958), लौट जाओ चीनियों (काव्य पुस्तिका, 1962), एक शीर्षक हैं कविता और पांच अन्य कविताएं (1968), बंदूक और नारे (लंबी कविता, 1968), मैं भी गुरिल्ला हूँ (काव्य पुस्तिका, 1969), कविता तोड़ती है (काव्य पुस्तिका, 1977), विसंगतियों के बीच (1978), धूप के पंख (काव्य संग्रह,1983), खंडहर होते शहर के अंधेरे में (1988), वाल्मीकि की चिंता (लंबी कविता, 1992), चौराहे पर कृष्ण (लंबी कविता, 1993), ध्रुवदेव मिश्र पाषाण की कुछ कविताएं (रमाशंकर प्रजापति के संपादन में, (2000), पतझड़-पतझड़ वसंत (काव्य संग्रह, 2009) आदि हैं ।
उन्होंने देवरिया
टाइम्स (हिंदी साप्ताहिक, 1964),
प्रतिबद्ध (लघु पत्रिका, 1970), प्रतिज्ञ (काव्य संग्रह, 1977) का संपादन और
प्रस्थान (लघु पत्रिका, 1979), खेक-खेल
में (बाल कविताएं, 1985), जनपक्ष
(साप्ताहिक, 1977), सूरदास (एक
सान्दर्भिक पुनरावलोकन, 1978), महाप्राण
निराला (1998) का सह-संपादन किया।
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