वेदों में विवाह-एक अध्ययन

 Issue-31 Vol.1I, Apr.-Jun.2025 pp.08-23 Paper ID-E31/1  

 डा. रति सक्सेना1

1के. पी.9/624,वैजयन्त, चेट्टिकुन्नु,मेडिकल कालेज पो आ ,तिरुवनन्तपुरम, केरल

यह शोध पत्र “मानव अस्तित्व” और समाज को सुदृढ़ बनाने में ‘विवाह’ के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह बताता है कि कैसे मानव ने व्यक्ति से समष्टि की ओर बढ़ते हुए, समाज की परिकल्पना की और उसे मानसिक, भावनात्मक और बौद्धिक सूत्रों से बांधा, जिसमें परिवार और विवाह की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। विवाह को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुष्टि का माध्यम माना गया, जो भोग और संयम का सुंदर मिश्रण है।

(This research paper sheds light on the significance of 'marriage' in strengthening 'human existence' and society. It explains how humanity, progressing from individual to collective, conceptualized society and bound it with mental, emotional, and intellectual threads, in which the roles of family and marriage were extremely crucial. Marriage has been considered a means of physical, mental, and spiritual satisfaction, a beautiful blend of enjoyment and self-control. – Editor)


 मुख्य आलेख

अस्तित्व को बनाए रखने के लिए मानव ने जो - जो कदम उठाए उनमें बाह्य और आन्तरिक दोनों परिवेशों के औचित्य को  ध्यान में रखा गया। व्यष्टि में समष्टि का आग्रह अनेक  जीवों में रहा होगा  किन्तु मानव ने यह प्रयत्न किया कि समष्टि को मानसिक ,भावानात्मक और बौद्धिक सूत्रों से इस तरह बाँध दिया जाए कि अनेकत्व एकत्व में परिवर्तित हो जाए। समाज की परिकल्पना इसी दिशा में महत्त्वपूर्ण  कदम था, जिस की दृढ़ता के लिए परिवार और परिवार की दृढ़ता के लिए जीवन- आचार लक्षित किए गए। आचार-विचारों में सर्वाधिक महत्व मिला "विवाह" को। मानव की शारीरिक , मानसिक  और आध्यात्मिक परितुष्टि के लिए बनाए गए इस आचार में भोग और संयम का इतना सुन्दर सम्मिश्रण हुआ कि " विवाह" आचार अनायास सर्वाधिक उच्च स्थान पा गया।

शास्त्रों की दृष्टि से विवाह जीवनोपयोगी सोलह आचारों में से एक है। लोक ने भी इसे सर्वाधिक मान्यता दी है। विशेष बात यह है कि वेदों ने भी इस आचार को अत्यंत महत्व दिया है। ऋग्वेद का  एक पूरा  सूक्त और अथर्ववेद के दो सूक्त सोम और सूर्या के विवाह  वर्णन के माध्यम से इस संस्कार की पर्याप्त विवेचना करते हैं। सोम और सूर्या काल्पनिक-  पात्र हैं या ऐतिहासिक, इस विषय पर चर्चा करने से अधिक महत्वपूर्ण है, वैदिक ऋषियों द्वारा विवाह-संस्कार को दी गई सम्मति। इन सूक्तों में वैदिक ऋषियों की काव्योचित सौन्दर्यानुभूति के साथ-साथ आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण से साक्षात्कार होता है। ऋग्वेदीय वर्णन सोम और सूर्या के विवाह तक ही सीमित रहता है, पर अथर्ववेद में इस दैविक आचार को लोकोपयोगी बनाने का उपक्रम हुआ है। ऋग्वेदीय वर्णन काव्योचित सौन्दर्य सृष्टि करता है तो अथर्ववेद में लौकिक पुनव्र्याख्यान सा दिखाई देता है। इस तरह अथर्ववेदीय वैवाहिक वर्णन वैदिक ऋषियों ही नहीं तत्कालीन लोक प्रचलित वैवाहिक आचार और उसके पीछे छिपी दार्शनिकता का पूरा विवेचन करने में समर्थ है इसलिए इस पत्र में अथर्ववेद को आधार बना कर ही विवाह सूक्त का विवेचन किया जाएगा। जो मंत्र ऋग्वेद और अथर्ववेद दोनों में ही उपलब्ध हैं उनके लिए दोनों वेदों का उल्लेख किया जाएगा।

ऋग्वेद के दसवें मण्डल का 85 वाँ सूक्त और अथर्ववेद के चौदहवें काण्ड का पहला सूक्त सोम और सूर्या के वैवाहिक बंधन में समस्त समष्टि को सम्मिलित कर लेता है। अथर्ववेद के चौदहवें काण्ड का ही दूसरा सूक्त लोक प्रचलित वैवाहिक आचार की व्याख्या करते हुए विवाह के पीछे छिपी हुई लोकोपयोगी भावना सम्मिलित करता है। पहला सूक्त वैदिक ऋषियों की काव्योचित सौन्दर्यानुभूति के साथ-साथ विवाह संस्कार के पीछे छिपी उद्दात्त भावना को व्याख्यायित करता है और दूसरा सूक्त भोग के उद्दात्त को लोकोपयोगी बनाने में समर्थ है।

ऋग्वेद और अथर्ववेद के विवाह सूक्त का पहले मंत्र में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की एकबद्धता को लक्षित किया गया है। नर और नारी का बंधन उनका व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं अपितु समाज की एकसूत्रता और उसके माध्यम से मानव समाज की एकसूत्रता को लक्षित सामूहिक प्रयास है। पति और पत्नी परिवार को उसी तरह संयमित कर सकते हैं जिस तरह दोनों ध्रुव धरती को।1  यहाँ विवाह दो वयस्कों के मध्य नैतिक सम्बन्ध मात्र नहीं, अपितु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सामंजस्य का मानवीय प्रयत्न भी है। इसमें मात्र दो व्यक्तित्वों का साहचर्य नहीं अपितु पूरे समाज को अपने साथ ले चलने की भावना है। 2

 नर और नारी के सम्बन्धों के साक्षी नक्षत्र होते हैं अतः उनके सम्बन्धों में वैसी ही दृढ़ता आ जाती है जैसी कि नक्षत्रों के सम्बन्धों में होती है। इसलिए सबसे पहले सूर्या और सोम के विवाह का वर्णन है। लोक में भी किसी भी शुभकार्य में सबसे पहले दिव्य शक्तियों को लोक स्तर पर ला कर , लोक और दैविक शक्तियों में सामंजस्य स्थापित करने के उपरान्त ही लौकिक आचार का निर्वाह किया जाता है। उदाहरण के लिए जब स्त्रियाँ अपने सुहाग के लिए कामना करतीं हुई कोई व्रत उपासना करती हैं  तो  सबसे पहले पार्वती के सुहाग की कथाओं का स्मरण किया जाता है, अथवा शिव- पार्वती के विवाह प्रसंग को कथा रूप में सुनाया जाता है। उत्तर भारत में आज भी सुहाग सम्बन्धी अनेक पूजन चार कथा कहने भर से सम्पन्न हो जाते हैं। चावल के आटे का चौक पूर, सात ढ़ेले रख आटे का दिया जला कर कोई एक स्त्री कथा कहती है- बाकी सभी स्त्रियाँ बड़े मनोयोग से कथा सुनतीं हैं। इन कथाओं में एक गणेश से सम्बन्धित और एक या दो शिव -पार्वती से सम्बन्धित अवश्य होतीं हैं। तीसरी कथा के पात्र लोक से सम्बन्धित होते हैं और चौथी कथा भोली-भाली लोकोक्ति की तर्ज पर आशीर्वचन होते हैं। ।

सूर्या और सोम का विवाह

 सूर्या और सोम के विवाह-वर्णन में सबसे पहले ब्रह्माण्ड की एकसूत्रता को लक्षित किया गया है-

भूमि सत्य से बंधी है, अन्तरिक्ष सूर्य से बंधा है, आदित्य नियम से बंधे हैं, अंतरिक्ष में सोम भी स्थित हैं।3

इसके उपरान्त सोम की महिमा का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि सोम से आदित्य बलशाली होते हैं, सोम से ही पृथ्वी महान है, इन नक्षत्रों के समीप सोम स्थित हैं। 4

कुछ मंत्रों तक सोम की महिमा के वर्णन के उपरान्त वधु सूर्या के आगमन का वर्णन होता है। सूर्या भी मानो समस्त ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व करती है।

" मनोहारी ओढ़नी पहने आँखों में अंजन आँजे, द्यौ और भूमि के कोश को दहेज के रूप में संजोये सूर्या पति के पास आती है।5  देववाणी इसकी साथिन है. मनुष्यवाणी इसकी दासी है, सूर्या के वस्त्रों को गाथा से परिष्कृत कर सजाया गया है। 6 इसके वस्त्रों के अंचल स्तोम हैं और कुरीर व छन्द मुकुट हैं ।7 सोम वधु की कामना करने वाला है दोनों अश्विन वर के साथी हैं। अपने पति के मन पर शासन करने वाली सूर्या को सविता ने दिया है। 8 जब यह सूर्या वधु अपने पति के पास आती है तो मन इसका रथ और द्यौ छत्र बनता है, और दोनों शुक्र अनड़वान् होते हैं। 9 जब यह दिव पथ पर चलती आती है तो चराचर इसकी प्रतीक्षा करते हैं। ऋक् और साम इसके रथ के दोनों बैल श्रोत्र इसके दोनों चक्र बनते हैं,। 10

 जब यह मनोमय रथ पर पति के पास चलती हुई आती है तो दोनों चक्र बड़े पवित्र होते हैं, व्यान इन चक्रों के अक्ष होते है।11 सूर्या के आगे-आगे पिता सविता द्वारा दिया गया दहेज चलता है। 12 जब वह आती है तो विश्व के समस्त देवता उसे आशीर्वाद देतें हैं। पूषा इन्हें पुत्र की तरह स्वीकार करते हैं। 13 ज्ञानी जन शंका रखते हैं कि हे सूर्या! तेरे दो चक्रों को ब्रह्म ज्ञानी ऋतुएँ मानते हैं, लेकिन एक चक्र अभी भी गुप्त है जिसे कोई पहचान नहीं पाया है। ये दोनों जो दिखाई देतें हैं वे माया के शिशुओं जैसे आगे -पीछे खेलते हैं। इनमे से एक समस्त भुवनों को देखता है और दूसरा ऋतुएँ बनाता है।14

सोम और सूर्या का विवाह सृष्टि में उपस्थित समस्त दिव्य तत्वों की एकसूत्रता को प्रख्यापित करते से दिखाई देते हैं। दो दिव्य तत्वों के संयोग में भी अन्य तत्वों की क्या उपयोगिता हो सकती है इसका सबसे सुन्दर उदाहरण यह विवाह सूक्त है। विवाह मात्र सामाजिक दायित्व ही नहीं, अपितु मानवोचित सौन्दर्यानुभूति का प्रकटीकरण भी है। यदि इसे मात्र आचार के रूप में स्वीकारा जाए तो भावात्मकता की कमी से बंधन की दृढ़ता पर प्रभाव पड़ेगा। इसीलिए वर- वधु के सौन्दर्य के साथ-साथ परिवेश के सौन्दर्य पर भी ध्यान रखा जाता है। इस प्रसंग की  साहित्यिक उपलब्धि यह है कि यहाँ ऋक्  ( काव्य) और साम ( गीत) के साथ  गाथा( कथा) का भी उल्लेख है। इसका अर्थ यह है तत्कालीन साहित्यिक विधाएँ पूर्ण परिष्कृत थीं।

कन्या की पितृ-गृह से मुक्ति

दैविक विवाहोल्लेख द्वारा मानवीय आचार को मान्यता देने के उपरान्त विवाह सम्बन्धी आचारों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। विवाह से पहले कन्या पितृ-गृह से तन-मन से जुड़ी होती है। उसे नए घर में जाने से पहले अपने को भावनात्मक रूप से तैयार करना पड़ता है । अतः सबसे पहले कन्या को मानसिक रूप से पितृगृह से मुक्त करवाया जाता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में इस आचार से सम्बन्धित मंत्र मिलते हैं। सम्भवतः यह आचार सम्भवतः वर  वधु के लिए यह आचार करता  है। वे कहते हैं कि – मैं इसे इधर से मुक्त करवाता हूँ और उधर अच्छी तरह से बंधन युक्त करता हूँ। हे सुखकारक इन्द्र!  यह स्त्री अच्छे पुत्रों और भाग्य वाली  बन जाए। 15 मैं तुझे वरुण के उस पाश से छुड़वाता हूँ जिससे सुखकारक सविता ने तुझे बाँध दिया है। तेरे लिए समस्त नियम बद्ध सुकृत लोक सुखकारक बनें। 16 अच्छा भाग्य तेरा हाथ थाम कर यहाँ ले आए, अश्विन तुझे उत्तम रथ प्रदान करे। तू अपने घर में पहुँच गृहपत्नी बन सब को वश में करे।17

हे वधु मैं तेरे लिए यह लोक बड़ा करता हूँ जिससे तू इसमें सपत्नियों के साथ वास करे। 18 तू अपने पति के घर गार्हपत्य अग्नि प्रज्वलित कर, उसके तन का स्पर्श कर सबसे मधुर वचन बोल। 19 अपने पति के घर में हमेशा वास कर। पुत्र-पौत्र से खेलते हुए सुखकारक जीवन बिता।20

 

कन्या के ऋतुमती होने से उत्पन्न दोषों का निवारण

वैदिक युग में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। पति-पत्नी  के मध्य जिस तरह के सम्बन्ध का वर्णन है उससे स्पष्ट जान पड़ता है कि विवाह के समय नर और नारी दोनों शारीरिक और मानसिक रूप से वयस्क होते थे। यही नहीं विवाह सूक्त में कन्या के ऋतुमती होने से सम्बन्धित मंत्र मिलते हैं जिनसे उसके परिपक्व होने के साथ-साथ इस बात की भी जानकारी मिलती है कि तत्कालीन समाज में विवाह तभी होता था जब यह पता पड़ जाए कि कन्या ऋतुमती हो चुकी है, वह पति को प्रेम के बन्धन में बाँधने योग्य है। ऋतुमती होने के उपरान्त उसके तन की मलीनता को दूर करने के लिए ब्राह्मणों को दान दिया जाता था। किन्तु इतना निश्चित है कि ऋतुमती होने के उपरान्त ही कन्या पदवती हो पत्नी बन पति में प्रवेश करती है।21जब कन्या  काम में आसक्ति हो तभी वह नील -लोहित होती है ( अर्थात् ऋतुमती होती है। )उसका ज्ञान बढ़ता है और पति बन्धन में बँधता है।22 ऐसी स्थिति में यदि वर वधू के वस्त्र से अपना अंग ढ़कता है तो वह पाप का भागीदार होता है। 23 जानकार पति वधू के लिए नवीन, मांगलिक, सुखकारक वस्त्र लाता है। इससे इस पाप का प्रायश्चित भी हो जाता है औऱ पत्नी क्रोधित भी नहीं होती है। 24 इस प्रायश्चित के उपरान्त दोनों को आशीष दिया जाता था कि -" तुम दोनों साथ-साथ सौभाग्य पाओ, सत्य के बीच सत्य बोलते हुए समृद्ध ऐश्वर्य को प्राप्त करो। वधु  अपने  ज्ञानी पति को प्रसन्न करने वाले वचन बोलो!"25

विवाह के अवसर पर चर-अचर व दिव्यशक्तियों का आह्वान

भारतीय परिवेश में विवाह मात्र वैयक्तिक सम्बन्ध नहीं अपितु ऐसा सामाजिक दायित्व है जो मानव समाज ही नहीं अपितु उससे सम्बन्धित सभी सहकारी जीवों से सम्बन्धित है । कुछ जीव ऐसे हैं जो मानवीय परिवार के अभिन्न अंग हैं, उनमे से प्रमुख हैं गोधन। कोई भी परिवार तभी सुखपूर्वक रह सकता था जब उसके साथी जीवों का पर्याप्त सहयोग मिलता रहे। इसलिए विवाह के अवसर पर भी गाय के पूजन का विधान मिलता है। ऋषि कहते हैं कि हे गायों! तुम यहीं रहो, दूर मत जाओ। यहाँ रह कर प्रजा वर्धन में सहायता करो। इस घर की शुभंकरी स्त्रियाँ तुम्हें और सोम देवता तुम्हारे मन को इधर आकर्षित करें।26

हे गायों! तुम इनकी सन्तति के साथ रहो। जिससे देवता इनके भाग्य को न बिगाड़ें। पूषा, मरुत, और सविता आदि सभी इनकी रक्षा करें। 27 विवाह समारोह में दूर-दूर से आने वाले सम्बन्धियों के लिए भी प्रार्थना है कि वे जिस मार्ग से आ रहें हैं , वह उनके लिए सरल हो जाए। जिनके आशीष से ये  सौभाग्य से युक्त होते हुए धारण करने वाले बने। 28 सबसे मनोहारी बात यह है कि अक्षों और सुरा के सम्बन्ध में भी प्रार्थना है कि जो तेज अक्ष और सुरा में है, जो तेज गायों में है- वह इन्हें भी मिले।29 जिस तेज से अक्ष और सुरा अभिसिंचित होते हैं , जो तेज पाप रहितों को मिलता है वही इन दोनों को मिले।30 इसके उपरान्त शारीरिक दोषों के दूर होने की प्रार्थना होती है कि अब मैं शारीरिक दोषों को हटाता हूँ जिससे भद्र और रोचक व्यवहार को प्राप्त हूँ। 31 इस वधु के लिए ब्रह्म ज्ञानी सुख-साधन ले आते हैं। वीरों का नाश न करने वाली इसे सुखकारी जल प्राप्त हों। यह अग्नि की परिक्रमा करे। इसके ससुर और द्वेवर इसकी बाट देख रहें हैं। 32  इसके उपरान्त वधु के लिए शान्ति पाठ होता है- तेरे लिए स्वर्ण , जल सुखकारक बनें। पशु को बाँधने वाला काष्ठ शान्तिकारक हो। जुए के छिद्र शान्तिदायक हों। सैंकड़ो प्रकार से शुद्ध जल शान्तिदायक हों। पति के तन का स्पर्श भी शान्तिदायक हो। 33 सैंकड़ो प्रकार से कर्म करने वाले  हे इन्द्र ! इस अपार बुद्धिशालिनी को रथ के गमन में, जीवन के गमन में, युग के गमन में तीनों तरह से सूर्या के समान तेजस्विनी बना दो।34मन की प्रसन्नता, सन्तान और प्रजा की कामना करती हुई तू अनुकूल कर्म वाली होकर, पति का अनुकरण करती हुई अमृतत्व और सुख से समृद्ध हो जा। 35 जिस तरह बलशाली सिन्धु नदी का साम्राज्य बना है उसी तरह तू भी पति के घर जाकर राज्य कर। 36 ससुर पर राज्य कर, देवरों पर राज्य कर,ननदों पर राज्य कर सास पर भी राज्य कर। 37

शिला से दृढ़ वैवाहिक जीवन की कामना   

मानव ने अपने जीवन काल में जिस तत्व को सर्वाधिक दृढ देखा है वह है- शिला। क्योंकि प्रकृति के हर एक तत्व में कभी न कभी परिवर्तन अवश्य आता है। चाहे वे नदियाँ हो या सागर । लेकिन शिला हमेशा अडिग खड़ी रहतीं हैं। उनमें आए परिवर्तन मानव के जीवन काल की अपेक्षा काफी धीमे होते हैं। अतः विवाह के समय भी वर को शिला पर खड़ा कर वैवाहिक जीवन के शिला से दृढ़ होने की कामना की जाती है। वैदिक काल के उपरान्त भी यह आचार वैवाहिक आचारों में सम्मिलित रहा है। अन्तर सिर्फ इतना है कि शिला के स्थान पर पत्थर या सिल पर पाँव रखवा दिया जाता है। सम्भव है कि वैदिक काल में वधू को शिला पर खड़ा करके ही यह आचार निभाया जाता हो। वर शिला के समक्ष शिला रख कर कहता है कि -" मैं उत्तम सन्तति हेतु तेरे लिए देवी पृथिवी की गोद में यह शिला रखता हूँ । तू इस पर तेजस्विनी और वर्चिस्विनी बन कर  खड़ी हो,  देवता सविता  तेरी आयु दीर्घ करें। "38 इस मंत्र में एक ओर तो शिला स्पर्श द्वारा वधु के जीवन को दीर्घ बनाने की कामना है , दूसरी ओर वर अपनी वधु के लिए शिला रख कर दृढ आधार देने की भावना की पुष्टि कर रहा है। अर्थात्  पति द्वारा पत्नी के लिए शिला स्थपित करना दृढ़ आधार का आश्वासन देना है और पत्नी का उस पर खड़ा होना सम्बन्धों के दृढ़ करने का उपक्रम है। इस आश्वासन के उपरान्त ही पाणिग्रहण संस्कार आरंभ होता है। 

पाणिग्रहण

जब वर  वधु का हाथ थामता है तो  भावी जीवन के लिए  आश्वासन देता है। हाथ थामने का अर्थ है-मित्रता, निर्वाह, संरक्षण आदि । विवाह के उपरान्त पत्नी के सुख सौभाग्य का ध्यान रखना पति का कर्तव्य होता है। पाणिग्रहण के मंत्रों में भी परिवेश को सम्मिलित करने का उपक्रम है। वर वधु का हाथ थाम कर कहता है कि - जिस तरह अग्नि ने इस धरती का हाथ थाम रखा है उसी तरह मैं भी तेरा हाथ थामे रखूँ। जिससे तू कभी भी व्यथित न हो, मेरे साथ धन व सन्तति का उपभोग कर।39 देवता सविता तेरा हाथ पकडवाए। राजा सोम उत्तम सन्तति दे। अग्नि सौभाग्य दे और जातवेद पति पत्नी की आयु में वृद्धि करे।40 वर वधु से कहता है कि " मैं तेरे सौभाग्य के लिए तेरा हाथ पकड़ता हूँ जिसे देव सविता ने पकड़वाया है। अब तू धर्म के अनुसार मेरी पत्नी बन गई है, और मैं तेरा गृहस्वामी हूँ। 41 इसके उपरान्त वर दिव्य शक्तियोंका आह्वान करते हुए कहता है कि - यह वधू अब मेरी पत्नी बन गई है। इसे बृहस्पति ने मुझे दिया है। यह प्रजावती बन कर मुझे पति मानती हुई शत वर्ष तक जावित रहे। 42  पाणिग्रहण को वैवाहिक आचार में सर्वप्रमुख स्थान दिया गया है। आज भी इस आचार को पूरे विधान से मनाया जाता है।

मांगलिक वस्त्र दान

विवाहोपरान्त पुनः वधू को मांगलिक वस्त्र दिया जाता है। लोक में भी विवाह के समय  चुनरी चढ़ाई जाती है। अधिकतर सभी समाजों में विवाह के समय वर पक्ष वाले वधू के लिए वस्त्र अवश्य लाते  हैं।  वैदिक युग में भी मांगलिक वस्त्र का बड़ा महत्व प्रतीत होता है। ऐसा माना जाता है कि यह वस्त्र स्वयं त्वष्टा ने वधू के लिए बनाया है । इस मांगलिक वस्त्र को धारण करते ही वधू का सौन्दर्य द्विगुणित हो उठता है। इसीलिये इसे चढ़ाते समय आशीष दिया जाता है कि बृहस्पति आदि महान गुरुओ के आशीष से त्वष्टा ने तुम्हारे लिए यह वस्त्र दिया है, जिसे पहन कर यह नारी सूर्या के समान ऐश्वर्य और सन्तान को प्राप्त हो, सविता ने इसके भाग्य को निश्चित किया है। 43 इस  मांगलिक वस्त्र को बनाने का भी विशेष विधान हुआ करता होगा। सम्भवतः घर की वयस्क महिलाएँ इस मांगलिक वस्त्र को बुना करती होंगी।  तभी वधु को आशीष देते समय कहा जाता है कि जिन स्त्रियों ने इस वस्त्र को फैलाया, ताने-बाने  बुने , जिन्होंने इसकी किनारियाँ बुनी, इसमें बुनावट डालीं, वे सब बड़ी-बूढ़ियाएँ तुझे यह वस्त्र पहना रहीं हैं। तू दीर्घ आयु वाली इस वस्त्र को पहन। 44 इसके उपरान्त वधु के लिए सर्वमंगल प्रार्थना की जाती है कि -इन्द्र अग्नि, द्यावा पृथिवी ,

मातरिश्वा, मित्र वरुण भग और अश्विन आदि देव इस नारी की सन्तान सहित रक्षा करें। 45

वधू अलंकरण

विवाह के उपरान्त वधू पति घर जाने को तैयार होती है तो उसे सज्जित किया जाता है। कुछ समय पूर्व तक कस्बों में विवाह के समय कन्या को सजाया नहीं जाता था। पीले वस्त्रों और खुले केशों में ही में उसका विवाह हो जाता था और उसके उपरान्त ससुराल जाने से पहले ससुराल से आई साड़ी में उसे सजाया जाता था। अथर्ववेद में भी पाणिग्रहण के मंत्रों के बाद वधु की रूप सज्जा से सम्बन्धित मंत्र आएँ हैं। सूर्या का उद्धहरण देते हुए कहा गया है कि-हे अश्विन! सबसे पहले बृहस्पति ने सूर्या के केशों को सजाया था उसी  तरह  यह नारी पति के साथ शोभित होती है। 46 उसके अलंकारित रूप की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि इस नारी ने ऐसा रूप पाया है कि यह पत्नी बन कर पति के मन में विचरण करे। यह सखियों के साथ चलती है तो कौन विद्वान् है जो उसके पाश से बच सके। 47 इस पर वर कहता है कि मैं इसके रूप को मन से देखकर समझता हूँ । मैं मन में  निश्चित कर चुका हूँ कि चोरी का नहीं खाऊँगा। मैं सिर्फ वरुण के पाश से दूर जाना चाहता हूँ।49 इसके बाद वह वधु को भी वरुण के पाश से छुड़ा कर पति घर आने का आह्वान करता है।50 वस्तुतः गृहस्थ आश्रम का पालन करना जीवन का अभिन्न कर्तव्य है। इसलिए चारों आश्रमों में मध्यम के महत्व का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि - भग ने चार पाद बनाएं हैं, भग ने चार कर्म बनाएँ हैं। त्वष्टा ने मध्यम मार्ग बनाया है अतः यह वधु हम सब के लिए मंगलकारी हो। 51

रथ सज्जा

विवाह के उपरान्त वधू को पति घर ले जाने के लिए रथ सज्जित किया जाता है। सम्भवतः वैदिक युग में पालकी के स्थान पर रथ में ही वर-वधु को घर लाया जाता था। उसके रथ का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "हे सूर्या वधू! अनेक रंगों वाले, सुन्दर चक्रों वाले सुवर्ण रथ में चढ़ कर अमृत के लोक से पति के सुखकारक लोक मे आओ। 52 हे वरुण, इन्द्र और सविता! तुम इस नारी को जो भाइयों और पति के लिए घातक नहीं है और जो पुत्रवती होने वाली है, हमारे लिए ले आओ। 53

 

वधु के स्वागत में घर- द्वार के मंगलकारी होने की कामना-

हे स्थूण तू इस कुमारी के लिए हिंसा न कर । यह देवकृत मार्ग में कष्ट न पाए। वधु के जाने के मार्ग पर शाला और द्वार सुखकारी बनें। 54 लोक में आज भी देहली व द्वार की पूजा का विधान है। सम्भवतः इसलिए कि द्वार ही आगन्तुक का सर्वप्रथम स्वागत करता है। यदि आगमन सुखकारी होगा तो जीवन भी सुखकारी होगा।

वधु का दान दहेज सहित पति को घर प्रस्थान

विवाह संस्कार में अग्नि का साक्षी होना किसलिए ज़रूरी है इस सम्बन्ध में अथर्ववेद में बड़ा रोचक प्रसंग मिलता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद के अनुसार कोई कन्या सबसे पहले सोम की पत्नी होती है। इसके पश्चात् गन्धर्व की, फिर अग्नि की तत्पश्चात् नर की। 55 सोम गन्धर्व को देता है, गन्धर्व अग्नि को और अग्नि नर को। 56 सोम व सूर्या का विवाह आदि - विवाह है, इसलिए सम्भवतः किसी भी कन्या के विवाह से पूर्व

सोम व सूर्या के विवाह का स्मरण किया जाता है, गन्धर्व कन्यत्व का रक्षक माना जाता है, अतः वह उसका दूसरा पति हुआ, वैवाहिक आचार में अग्नि का साक्षी होना आवश्यक है, अतः वह तीसरा पति हुआ , पति के रूप में मनुष्य उसका असली पति होते हुए भी इन तीनों शक्तियों का आभारी होता है , इसलिए उसे चौथा पति माना जाता है। 57 जब वधु पति घर के लिए रवाना होती है तो बन्धु बाँधव मांगलिक वचन कहते हुए साथ-साथ चलते हैं- तुम  दोनों को सुमति प्राप्त हो , तुम्हे गाय और घोड़े मिलें हैं, तुम्हारे हृदय में काम भाव जागृत हो, तुम दोनों गायों का पालन करो,शुभस्पति औऱ गोप रक्षक के प्रिय रूप में घर पहुँचो। 58 वह वधु आनन्द प्राप्त करती हुई शुभ और मंगल के साथ वीरों के साथ स्तुति योग्य धन धारण करे। सुन्दर तीर्थों सुभग मार्गों को प्राप्त करती हुई तुम मंगलकारी बनो, मार्ग में खड़े कठोर झाड़-झंकार नष्ट हो जाएँ। 59 मार्ग में जो-जो औषधियाँ , नदियाँ खेत खलिहान और वन आदि मिलें, वे सब इस वधु और इसके प्रजावत्सल पति की राक्षसों से रक्षा करें।60 हम सब ऐसे सुगम मार्ग से चलें जहाँ वीरों को कोई कष्ट न हो और उनका धन कोई दूसरा न ले।61  मार्ग में मिले अन्य लोगों को सम्बोधित किया जाता कि हे नरों! तुम लोग मेरा कहना मानों , तुम ऐसा करो जिससे यह दम्पती आशीष पाए। यहाँ जितने भी देवी देवता , गन्धर्व , अप्सराएं, वनस्पतियाँ आदि मिलते हैं वे सब इनके लिए मंगलकारी हों। वे इनके गतिमान रथ को हानी न पहुँचाएँ ।62 यदि यक्ष्मा जैसे कोई रोग वधु के रथ को हानी पहुँचाने के लिए पीछे-पीछे आएँ तो वे वहीं चले जाएँ जहाँ से आएँ हैं। 63 रास्ते में बटमार आदि के मिलने की भी सम्भावना होती है, जो दम्पती पर घात लगा कर बैठते हैं। ऐसे शत्रु न मिले और दुर्गम मार्ग सुगमता से पार हो जाए और शत्रु भाग जाएँ। 64 घर पहुँचने पर दहेज में आई वस्तुओं को सबको दिखाया जाता था-साथ में लाई गईं वस्तुओं को  कठोर और मित्र आँखों वालों को समान रूप से दिखाता हूँ। जो कुछ विश्वरूपेण दान -दहेज है वह सविता की कृपा से पति के लिए सुखकारक बने। 65

वर के घर में वधू का स्वागत

जब वधु वर के घर पहुँचती है तो पुनः उसका स्वागत होता है। " यह शिवा नारी आई है। इसे धाता ने इस लोक के लिए दिया है। इस नारी को अर्यमा, भग, दोनों अश्विन , प्रजापति आदि इसकी सन्तति को बढ़ाएँ। 66 यह जो नारी आई है वह आत्मा से उर्वर है। हे नर तू उसमें बीज वपन कर। वह वीर्यवान रेतस को अपने पेट में  धारण करती हुई सन्तति उत्पन्न करे।67 विष्णु और सरस्वती से प्रार्थना की जाती है कि वे इस घर में विराट रूप में स्थित रहें। सिनीवाली देवी सन्तानोत्पत्ति में सहायक हों। भाग्य के देवता भी अच्छी बुद्धिवाले बन कर रहें। 68 हे वधु ! तू घरों में अघोर चक्षु, पति का हनन न करने वाली, सुखकारक, कार्यकुशल, अच्छे नियमों का पालन करने वाली, देवरों से प्रीति रखने वाली, व अच्छे मन वाली बन कर रहे। हम सब तेरे साथ मिल कर आगे बढ़ते हैं। 69 यहाँ पर सहयोग की जिस कामना का उल्लेख है उससे से स्पष्ट जान पड़ता है कि वैदिक युग में संयुक्त कुटुम्ब की भावना को महत्व दिया जाता था। नई वधू से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह देवरों से स्नेहपूर्ण व्यवहार रखे जिससे कुटुम्ब में सौहार्द रहे। यही सौहार्द और आपसी प्रेम संयुक्त कुटुम्ब की नींव है।

गार्हपत्य अग्नि सौंपना

वैदिक युग में गृहस्थाश्रम का महत्वपूर्ण कृत्य गार्हपत्य अग्नि को प्रज्वलित रखना था। गार्हपत्य अग्नि में घरेलू तरीके से दिव्य शक्तियों के पूजन के साथ-साथ रसोइघर की अग्नि को प्रज्वलित रखना भी शामिल होगा। नव वधु का कर्तव्य दिव्य शक्तियों का आह्वान करके गार्हपत्य अग्नि को प्रज्वलित रखना था। अतः जब घर में वधु आती है तो मंगल कामना के साथ उसे गार्हपत्य अग्नि सौंपी जाती थी। आज भी विवाह के उपरान्त वधु से पूजापाठ करवा कर  रसोई छुलाई जाती है, अर्थात् सामाज के समक्ष रसोई का दायित्व दिया जाता है। अथर्वेद में

गार्हपत्य अग्नि सौंपते समय आशीष देते हुए कहा गया है कि- हे वधु! तुम यहाँ पति व देवरों के लिए हानी कारक न होते हुए, पशुओं के लिए मंगलकारी होते हुए नियमों का पालन करती हुई तेजस्विनी बनो। वीर सन्तान वाली होते हुए, देवताओ की अर्चना करते हुए, सबको सुख देते हुए गार्हपत्य अग्नि की सेवा करो। 70 गृहिणी के बिना घर निऋति का वास बन जाता है। जब घर में गृहिणी आ जाती है तो घर मंगलमय बन जाता है। अथर्ववेद में इस सम्बन्ध में बड़ा रोचक मंत्र है, पति निऋति को सम्बोधित करते हुए कहता है कि- हे निऋति! तू यहाँ से उठ कर चली जा। तू क्या चाहती हुई यहाँ आई है? मैं तुझ पर विजय पा कर तुझे घर से बाहर निकालता हूँ। हे अराते! तू जो इस घर को सूना पा कर चली आई है , तू यहाँ से उठ और चली जा। यहाँ पर निवास मत कर।71 इसके पश्चात् वधू को गार्हपत्य की सेवा के उपरान्त सरस्वती व पितरों को नमस्कार करने का आदेश दिया जाता है। 72

आसन देना

जब घर में कोई अतिथि आता है तो उसे बैठने के लिए आसन दिया जाता है। आसन देने का अर्थ सम्मान देना होता है। जब नई वधु घर पर आती तो सबसे पहले उसे औढ़ाने के लिए सुखकारक चादर दी जाती थी। चादर औढ़ाना संरक्षण देने का प्रतीक होता है। सिनीवाली देवी से प्रार्थना की जाती थी कि वह इस वधू को औढ़ाने  के लिए सुखकारक चादर ले कर आए जिससे इसका भाग्य उज्वल रहे और यह उत्तम सन्तान उत्पन्न करे। इसमें सदैव सुमति का वास रहे। 73 इसके उपरान्त वधू के लिए चर्म या तृण का आसन बिछाया जाता है। फिर वधु को आमंत्रित करते हुए कहा जाता है कि-तुमने जो चर्म या तृण का आसन बिछाया है उस पर  सन्तानोत्पत्ति में समर्थ यह कन्या जिसने अभी-अभी पति प्राप्त किया है चढ़ कर बैठ ।74 इसके लिए तृण या चर्म का आसन बिछाना चाहिए जिस पर उत्तम सन्तति जनन में समर्थ यह कन्या बैठ कर अग्नि की सेवा करे। 75 फिर वधू से कहा जाता है कि हे वधू!  इस चर्म आसन पर बैठ कर अग्नि की सेवा करो जिससे राक्षसों का नाश होता है। तुम इस घर के लिए उत्तम सन्तति जनो जो जीवन में ऊँचाई प्राप्त करें। 76 पुनः वधु के लिए मंगल- कामना की जाती है कि यह वधू माता बन कर नाना पशुओं की देखभाल करे, सुमंगली बन कर अग्नि के पास बैठे और अच्छी पत्नी बन देवताओं की सेवा करे। 77

वधू को आशीष

गार्हपत्य अग्नि की पूजा का अधिकार मिलने के बाद वधु पूरी तरह पति के घर का सदस्य बन जाती है। अतः घर के बड़े-बूढ़े उसे पुनः आशीर्वाद देते हैं- " तुम सुमंगली बनो, घर की वृद्धि करना वाली बनों, पति और ससुर को सुख दो, सास के लिए सुखकारक बन घर में प्रवेश करो। " 78 ससुर को सुख दो , घर के सभी सदस्यों को सुख दो, समस्त प्रजा के लिए सुखकारक बनो, सभी की पुष्टि के लिए सुखकारक बनो। 79

मुँह दिखाई

मुँह दिखाई का असली अर्थ वधू से परिचय पाना है। अथर्ववेद में पर्दे का उल्लेख तो नहीं है परन्तु वधू को देखने के लिए आहवान अवश्य है। बाहर से आए सभी जनो को वधु दर्शन के लिए आमंत्रित किया जाता है- इस सुमंगली वधू को देखने सभी लोग आओ, इसे सौभाग्य का आशीष देकर इसके दुर्भाग्य को दूर करो। 80 अगले मंत्र में वैसी ही ठिठोली दिखाई देती है जैसी कि विवाह के अवसरों पर लोक में प्रचलित है-"यहाँ उपस्थित स्त्रियों में जो युवा हैं या जो वृद्ध हैं, वे सब आएँ , जो दुष्ट हृदय वालीं हैं वे भी आएँ,  अपना-अपना वर्चस्व इसे देकर वापिस चलीं जाएँ। 81  " इस तरह वधू की मुँह दिखाई की रस्म में आह्वान तो सभी का होता है पर यह संदेश दे दिया जाता है कि अब वैवाहिक आचारों में उन सब की आवश्यकता नहीं क्यों कि अब चतुर्थी कर्म का समय़ है।                                                          

चतुर्थी कर्म

विवाह का उद्देश्य समाजोपकारी युवा शक्ति का वर्धन है। यदि दम्पती के मध्य पवित्र प्रेम होगा तो निसन्देह सन्तान भी श्रेष्ठ होगी। अतः विवाह के पश्चात् पति -पत्नी के मध्य शारीरिक सम्बन्धों को भी मात्र कामुकता नहीं माना गया। विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों को भी वैवाहिक आचार का रूप दिया गया । वधु को विवाह-पलंग पर आमंत्रित करते हुए कहा जाता है कि - हे वधू! तू अच्छे मन से इस पलंक पर चढ़ जा और इस पति के लिए इन्द्राणी की तरह ज्ञानी और विद्वान् उत्तम सन्तान उत्पन्न कर। ज्योतिमय अग्र उषा वेला में जागती रहे। 82 पूर्व काल में देवताओं ने अपनी -अपनी पत्नियों के तनों का जिस तरह स्पर्श किया है उसी तरह यह महती गुणों वाली सुन्दर नारी सूर्या के समान पति से सन्तति प्राप्त करे। 83 इस के पश्चात् पति से कहा जाता है कि- हे वैभवशाली! तुम उठो, हम तुझे नमस्कार कर तुझ से यह कामना करते हैं कि तू अपनी पत्नी की कामना कर! पितृ घर से आने वाली यह वधू तेरा भाग्य बने, तू इसे भलीं भाँती समझ ले। 84 पति पत्नी में कामोत्पत्ति का आह्वान करता है- हविर्धान से प्रेरित अप्सराएँ तुझमें सूर्या की तरह मदमदाती हुई आनन्द मनाती  है,वे तुझमें जन्म लें। मैं तेरे लिए गन्धर्व को नमन करता हूँ। 85 गन्धर्व पहला पति माना गया है, अतः उसका सम्बन्ध कामोत्पत्ति से है। अतः चतुर्थी कर्म के समय सबसे पहले गन्धर्व की पूजा होती है। अप्सराए मदमदाती भावनाएँ हैं जो वैवाहिक आचार के समय हविर्धान। की आहुती के बाद से नर और नारी में जन्म लेने लगतीं हैं। इसके उपरान्त वर गन्धव पूजा करते हुए कहता है कि - हे गन्धर्व ! तुझे नमन, आँखों में उज्वल चमक औऱ अच्छे कर्मों के लिए तुझे नमन, समस्त धनों के स्वामी, ब्रह्मज्ञानी तुझे नमस्कार, मेरी पत्नी के समीप अप्सराएँ आएँ। 86 हम धन और अच्छे मन वाले बनें, गन्धर्व हमे प्रसन्न करे। हम उस दिव्य स्थान को प्राप्त करें जहाँ आयु की सीमा का भी लंघन हो जाता है। 87 इसके उपरान्त घर के पितर देवों का स्मरण किया जाता है। सम्भवतः वैदिक ऋषि इस बात से परिचित थे कि नव दम्पती की सन्तान के रूप में पूर्वजों का अंश अवश्य होता है अतः हे पितरों! तुम इस ऋतुकाल में मिलने वाले इन माता-पिता बनने वालों के बीच रेतस बन जाओ। मैं अपनी इस पत्नी पर चढ़ता हूँ, सन्तति जनन में संलग्न होता हूँ। आप यहाँ धनोत्पत्ति में सहायक हो। 88 इसके उपरान्त पूषा देव की स्तुति की जाती है- हे पूषन्! तुम इस कल्याण दायिका को प्रेरित करो, जिससे यह मनुष्य बीज वपन कर सके। यह कामना करती हुई जंघाओं को फैलाए, जिससे इस पर शेप प्रहेरण कर सकें। 89 इसके उपरान्त वर से कहा जाता है कि- हे पुरुष! तू जंघाओ पर चढ़, हाथ से सहारा देकर पत्नी का आलिंगन कर, तुम दोनों प्रसन्नचित्त और दीर्घ आयुष वाले बनों। 90 हम दोनों मिलकर सन्तानोत्तपत्ति करें। प्रजापति व अर्यमा हमें दिन-रात संयुक्त रखें। तू दुष्टलक्षणविहीन हो कर ही पतिलोक में प्रवेश कर इस घर के दोपाए और चौपाए सुखकारक हों। 91   

चतुर्थीकर्म के मंत्रों में स्पष्टतः काम भावना का समजोपयोगी उदात्त रूप दिखाई देता है। विवाहोपरान्त काम भावना का उद्देश्य दम्पती प्रेम को उद्दीपन देना है, जिससे उत्पन्न सन्तान में उद्दात्त गुण हों। समाज में विवाह का यही उद्देश्य रहा है।

चतुर्थी कर्म के उपरान्त पत्नी को पति द्वारा वस्त्रदान

चतुर्थी कर्म के उपरान्त पति वधु को नवीन वस्त्र देने के साथ ब्राह्मणों व देवताओं को दान भी देता है जिससे विवाह पर्यंक पर होने वाले दोषों का नाश हो जाए। ये वस्त्र जो विवाह के समय वधु ने पहने थे, वे देवताओं द्वारा दिए गए पवित्र वस्त्र थे। जो ब्रह्म ज्ञानी इस बात को जानते हुए वधु के वैवाहिक वस्त्रों में से  ब्राह्मणों को दान वस्त्र देता है वह विवाह पलंग पर हुए दोषो का नाश करता है। 92 ब्राह्मण वर वधू को आशीष देते हुए कहता है कि - वधू के वैवाहिक वस्त्रों में से वधुयोग्य वस्त्रों का जो ब्रह्म भाग तुमने मुझे दिया है उसके फलस्वरूप तुम दोनों आपस में अनुकूल मन वाले बनों। यह दान वैसा ही है जैसा कि इन्द्र ने बृहस्पति को दिया था। 93 तुम दोनों सुन्दर घर में आपस में मिल कर  बुद्धिशाली बन, हँसी-खुशी, प्रसन्नचित्त, सुन्दर गायों, और अच्छे पुत्रों सहित उषा की तरह शोभित होते हुए जीवन व्यतीत करो। 94  दानोपरान्त पति अपनी प्रियतमा का मानमनौवल भी करता है। निसन्देह चतुर्थी कर्म के उपरान्त वधु प्रियतमा लगने लगती है । वह कहता है कि - मेरी प्रियतमा का तन मेरे दिए वस्त्रों से शोभित हो, जिसे पहले वनस्पतियों से बनाया गया है , हम कभी भी आपस में नाराज न हों। 95 यह वस्त्र जो मेरी पत्नी के लिए बुना गया है, उसकी किनारियाँ, बूटे, बुनावटें और तन्तु आदि सभी पत्नी के तन को सुख दें। 96  

गोपूजा

वैदिक युग में गोधन जीवन का सर्वप्रमुख आधार था। अतः विवाहित स्त्री का प्रमुख कर्तव्य इस गोधन की परिचर्या करना था। गोधन ही जीवन में सुख -समृद्धि ला सकता था। अतः विवाहोपरान्त पति पत्नी को घर की पशुशाला में ले जाता और स्त्री को भी गायों के समान तेज, भाग्य आदि से संयुक्त होने का आशीर्वाद देता। वह कहता कि - बृहस्पति के दिए हुए तेज, वर्चस्व, भाग्य, यश, पयस, और रस को समस्त देवताओं ने धारण किया है। उनमें से जो तेज, वर्चस्व, भाग्य, यश, पयस और रस  गायों में प्रविष्ट हुआ है उसी से में इसे भी संयुक्त करता हूँ।97 मंत्रों के इस गुम्फ में गाय और गृहिणी के मध्य जिस सामंजस्य की आकांक्षा प्रकट की गई है वह तत्कालीन समाज के भावनात्मक स्तर की श्रेष्ठता को दर्शाती है। तत्कालीन समाज में अन्यों जीवों का पालन-पोषण व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं हुआ अपितु उन्हें भी परिवार का अंग माना

गया। तभी वधु गायों से भी उसी आशीष की कामना करती है जो कुटुम्ब की अन्य महिलाओ से प्राप्त हुआ।

अग्नि व सविता देव की पूजन द्वारा विध्नों के नाश की कामना

गृहस्थ जीवन में अनेक विध्न बाधाएँ आतीं रहतीं हैं, लेकिन हर गृह्स्थ की यही कामना रहती है कि वह इन क्लेशप्रदायक स्थितियों का सामना न करे। अथर्ववेद के विवाह सूक्त में ऐसे अनेक मंत्र हैं जिनमें अग्नि और सविता देव से प्रार्थना है कि घर में कोई भी अप्रिय घटना न घटे जिससे घर की पुत्रियों, पत्नियों, सन्तान और पशुओं को क्लेश उठाना पड़े।  यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो कि पुत्रियों, स्त्रियों या सन्तान को रोना पड़े तो अग्नि देव उससे छुटकारा दिलवाएँ।98 अग्नि पूजा के उपरान्त पत्नी धान के पूले बोती हुई कामना करती है कि  -"मेरा पति सौ वर्ष तक जीए। "। 99 पुरोहित उन्हें आशीर्वाद देते हैं कि वे चकवा -चकवी की तरह प्रेम पूर्वक रहें और पूरी आयु पाएँ। 100 इसके पश्चात् यक्ष्म आदि रोगों के निवारण की प्रार्थना की जाती है। वेदों में विशेषतः अथर्ववेद में रोगों से मुक्ति को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। निरोग जीवन में ही सौ वर्ष की आयु का महत्व है। 101

भौतिक एवं भावानात्मक एकात्मकता

अथर्ववेद के विवाह सूक्त में अन्तिम दो मंत्र ऐसे हैं जो न केवल विवाह प्रथा की मनोवैज्ञानिक व्याख्या करते हैं अपितु वैवाहिक आचार को सामाजिक परिपेक्ष्य में सार्थक करते हैं। चौदहवें काण्ड के दूसरे सूक्त का सत्तरवाँ और इकहत्तरवाँ मंत्र पति पत्नी के वैवाहिक जीवन की मनोवैज्ञानिक व्याख्या सी करते हैं। सत्तरवें मंत्र में पति पत्नी को आश्वासन देते हुए करता है कि -"  मैं तुझे पृथिवी के पयस से युक्त रखूँगा, मैं तुझे औषधि के पयस से युक्त रखूँगा, मैं तुझे सन्तान और धन से युक्त रखूँगा, मैं तुझे सदैव बल से युक्त रखूँगा। " 102  इस मंत्र में कोरा आश्वासन ही नहीं हैं। पति के लिए पत्नी भोग्या नहीं थी, पति  का कर्तव्य था कि  वह पत्नी को धरती में उपलब्ध सुख-वैभव दे, उसे उचित औषधियाँ दे और धन, सम्पत्ति में भी भागीदार बनाए । इसके अतिरिक्त महत्वपूर्ण बात यह है कि पति का कर्तव्य है कि वह पत्नी को जिन्दगी की कठिनाइयों से जूझने के लिए पर्याप्त बल भी दे अर्थात् तत्कालीन समाज में पत्नी अबला नहीं अपितु पति के सामर्थ्य से युक्त होकर सबला थी। इसके बाद का मंत्र पत्नी-पत्नी के सम्बन्धों की इतनी सुन्दर व्याख्या करता है कि यदि आज भी इस तथ्य को समझ-परख लिया जाए तो विवाह संस्था की उपयोगिता वर्तमान परिवेश में और अधिक उपयोगी हो जाए। पति पत्नी से कहता है कि "  यह मैं हूँ और वह तुम, मैं साम हूँ और तुम ऋचा, मैं अन्तरिक्ष और तुम पृथिवी, हम दोनों मिल कर सन्तान उत्पन्न करें। " 103 इस मंत्र में पति अपने और पत्नी के व्यक्तित्व के अन्तर को मान्यता देता है। पति-पत्नी के स्वभाव , व्यवहार और सोच में अन्तर होना स्वाभाविक है। यदि पति यह मानता है कि पत्नी का अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व ही न हो तो वैवाहिक जीवन में मतभेद हो सकता है, अतः इस मंत्र में पति पत्नी के स्वतंत्र व्यक्तित्व को पूरी तरह मान्यता देता है। वह स्वयं को साम और पत्नी को ऋचा मानते हुए इस तथ्य को मान्यता देता है कि पत्नी परिवार को सुखद रूप  देती  है और पति परिवेश को संगीतमय अर्थात् आनन्दमय बनाता है। किसी भी याग में जब तक ऋचाओं को साम के सुरों में नहीं ढाला जाए तब तक मंत्र सिद्ध नहीं होते उसी तरह परिवार की सुष्ठु गति में पत्नी के संचालन  और पति के सहयोग  के समावेश की आवश्यक है। इसी तरह वह अपने को द्यौ और पत्नी को पृथिवी मानता है। पृथिवी और अन्तरिक्ष का मिलन मात्र दिवसारंभ और दिवसान्त में होता है। उसी तरह परिवार में भी पति- पत्नी का संयोग अधिक नहीं हो पाता क्योंकि उन दोनों के परिवार के प्रति अपने-अपने कर्तव्य होते हैं। ऐसी स्थिति में संक्षिप्त संयोग भी उनमें वही तादात्म्य बना सकता है जो अन्तरिक्ष और धरा के मध्य होता है। इस स्थिति में पति-पत्नी का उद्देश्य आपस में सामंजस्य बनाए रख कर  समाज को उत्तम सन्तति देना है।

अन्ततः वधु से मिलने आए वधु के माता-पिता से प्रार्थना की जाती है कि वे वधु को सुख वैभव का आशीर्वाद देकर वापिस जाएँ। 104 पत्नी से कामना की जाती है कि वह उत्तम बुद्धिशाली बन सौ वर्ष का जावन जीए, अपने घर में रहती हुई उत्तम गृहपत्नी का जीवन जीए, सविता देव उसकी आयु दीर्घ करें।105

इस तरह वेदों में प्राप्त विवाह मंत्र न केवल वैवाहिक आचार - निर्वाह की सम्मति देता है अपितु वैवाहिक जीवन के उद्देश्य, लक्ष्य, भावनात्मक सामंजस्य के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक व्याख्या भी करते हैं। वस्तुतः ये मंत्र वैवाहिक जीवन की ऐसी आचार संहिता प्रस्तुत करते हैं जो समाजोपयोगी होते हुए व्यक्तिगत भावनाओं का भी समर्थन करती हैं। यहाँ पति-पत्नी एक दूसरे से ऊँचे-नीचे नहीं अपितु एक - दूसरे के पूरक हैं. यही भारतीय समाज में विवाह संस्था का लक्ष्य है।                                                        

संदर्भ-

1- द वैदिक एक्सपीयरिन्स, रेमण्डो पणिक्कर- पृष्ठ 257

2- सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्योणोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यस्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः।। ऋ. 10.85.1अवे. 14.1.1। आरी ब्वारि क्वान ख्वारी का माँगे का पाए? हिंसती घोड़ी रंभाती गाय , देहलीज भरी पन्हियाँ, कोने भरी लठैयाँ, पीपर सा ससुरा, इमली सा मैका, पान खाऊँ आप घर पीक डालूँ बाप

3- सोमेनादित्या बलिनः सोमेन पृथिवी मही। अथो नक्षत्राणामेषामुस्थे सोम आहितः।।

ऋ.10.85.2, अवे.14.1.2

4-चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यंजनम्। द्यौर्भूमिः कोश आसीत् यदयात् सूर्या पतिम्।।ऋ. 10.85.7, अवे.14.1.6 6-रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी। सूर्याया भद्रमिद् वासा गाथायैति परिष्कृता।। ऋ. 10.85.अवे. 14.1.7

5- स्तोमा आसन् प्रतिधयः कुरीरं छन्द ओपशः। अवे 14.1.8        

6- सोमो वधुयुर भवदश्विना स्तामुभा वरा। सूर्या यत् पत्ये शंसन्ती मनसा सविताददात्।।

ऋ.10.85.9, अवे.14.1.9

7- मनो अस्या अन आसीद् द्यौरासीत् च्छदिः। शुक्रावनड्वाहावास्ताँ यद्यात् सूर्या पतिम्।।

ऋ.10.85.अवे. 14.1.10

8-ऋक्सामाभ्यामभिहितौ गावौ ते सामनावैताम्। श्रोत्रे ते चक्रे आस्तां दिवि पन्थाश्चराचरः।।

ऋ. 10.85. अवे. 14.1.11

9- शुची ते चक्रे यात्या व्यानो अक्ष आहतः। अनो मनस्मयं सूर्यारोहत्प्रयती पतिम्।।

 ऋ. 10. 85. अवे. 14.1.12           

10-सूर्याया वहतुः प्रागात् सविता यमवासृजत्। ... अवे. 14.1.13                           

11- द्वे ते चक्रे सूर्येब्रह्मणं ऋतुथा विदुः। अथैकं चक्रं यद् गुहा तदद्धातय इद विदुः।। अवे. 14.1.14

12-पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशु क्रीडन्तौ परियातो अध्वरम्। विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्योविदघञ्जायते पुनः।। अवे, 14.1. 14                                                                        

13- प्रेतो मुञ्चामि नामुतः सुबद्धाममुतस्करम्। यथेममिन्द्र मीढ़वः सुपुत्रा सुभगासति।। अवे 14.1 .18

14- प्र त्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशाद् येन त्वावध्वान् सविता सुशेवाः।

    ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोके स्योनं ते अस्तु सह संभलाऐ।। अवे. 14.1.19

15- भगस्त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विन त्वा प्र वहतां रथेन। गृहान् गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदामि।। अवे. 14. 1.20

16- उरु लोकं सुगमत्र पन्थां कृणोमि तुभ्यं सहपत्न्यै वधु।। अवे. 14 . 1. 20                                   

17- इह प्रियं प्रजायै ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि।

    एना पत्या तन्वं1संस्पृशस्वाथ जिविविदथमा वदामि।। अवे. 14. 1.21                 

18- इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुव्र्यश्नुतम्।     

    क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वस्तकौ।। अवे. 14.1.22

19- परा देहि शामुल्यं ब्रहम्भ्यो वि भजा वसु। कृत्यैषा पद्वती भूत्तवा जाया विशते पतिम्।। अवे. 14.1.25

20- नीललोहितं भवति कृत्वासक्ति व्यज्र्यते। एधन्ते अस्या ज्ञानयः पतिर्बन्धेषु बध्यते।। अवे. 14.1.26

21-अश्लीला तनूर्भवति रुशती पापयामुया। पतिर्यद् वध्वो3वाससः स्वमङ्मभ्यूणृते।। अवे. 14.1.27

22- य इत् तत् स्योनं हरति ब्रह्मा वासः सुमंगलम्। प्रयश्चितिं यो अध्येति येन जाया न रिष्यति।। अवे.14..1.30

23 - युवं भगं सं भरतं समृद्धमृतं वदन्तावृतोद्येषु।

     ब्रह्मणस्पते पतिमस्यै रोचय चारु संभलो वदन्तु।। अवे. 14.1.31

24- इहेदसाथ न परो गमाथेमं गावः प्रजया वर्धयाथ।शुभं यतीरुस्त्रियाः सोमवर्चसो विश्वे देवाः क्रन्निह वो मनांसि।। अवे 14.1.32

25- इमं गावः प्रजया सं विशाथायं देवानं न मिनाति भागम्।

    अस्मै वः पूषा मरुत्श्च सर्वे अस्मै वो धाता सविता सुवाति।। अवे। 14.1.33

26- अनृक्षरा ऋजः सन्तु पन्थानो येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्।

    सं भगेन् समर्यम्णा सं धाता सृजतु वर्चसा। अवे. 14.1.34

27-यच्चवर्चो अक्षेषु सुरायां च यदाहितम्।यद् गोष्वश्विना वर्चस्तेनेमाँ वर्चसावतम्।। अवे-14.1.35

28-अवे. 14.1.35

29- इदमहं रुशन्तं ग्राभं तनूदूषिमपोहामि। यो भद्रो रोचनस्तमुदचामि।। अवे.14.1.38

30- आस्यै ब्राह्मणाः स्नपनीर्हरन्त्ववीरघ्नीरुदजन्त्वापःअम्र्णो अÏग्न पर्येतु पूषन् प्रतीक्षन्ते श्वशुरो देवरश्च।। अवे.14.1.39

31 - शं ते हिरण्यं शमु सन्त्वापः शं मेथिर्भवतु शं युगस्य तद्र्म।

     शं ते आपः शतपवित्रा भवन्तु शमु पत्या तन्वंएसं स्पृशस्व।। अवे. 14.1 .40         

32- अवे. 14.1.41

33- आशासाना सौमनसं प्रजां सौभाग्यं रयिम्।

   पत्युरनुव्रता भूत्वा सं नह्यस्वामृताय कम्।। अवे 14.1.42

34-यथा सिन्धुर्नदीनां साम्राज्यं सुषुवे वृषा।

   एवा त्वं सम्राज्ञ्येधि पत्युरस्तं परेत्य।। अवे. 14.1.43

35-सम्राज्ञ्येधि श्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत देवरेषु। ननान्दुः सम्राज्ञ्येधि सम्राज्ञ्यत श्वश्रुवाः।। अवे. 14.1.44

36- स्योनं ध्रुवं प्रजायै धारयामि ते धारयामि तेद्मश्मानं देव्याः पृथिव्या उपस्थे।

     तमा तिष्ठानुमाद्या सुवर्चा दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु।। अवे, 14.1.47

37-- येनाग्निरस्या भूम्या हस्तं जग्राह दक्षिणम्। तेन गृहणामि ते हस्तं मा व्यथिष्ठा मया सह प्रजया च धनेन च।। अवे. 14.1.48

38- देवस्ते सविता हस्तं गृह्णातु सोमो राजा सुप्रजसं कृणोतु।

    अग्निः सुभगाँ जातवेदाः पत्ये पत्नी जरदÏष्ट कृणोतु।। अवे. 14.1.49

39- गृह्णामि ते सौभागत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।

    भगो अर्यमा सविता पुरं धिर्मह्यं त्वादुर्गार्गाहपत्याय देवा।। 14.1.50

40- भगस्ते हस्तमग्रहीत् सविता हस्तमग्रहीत्।

    पत्नी त्वमसि धर्मणाहं गृहस्पतिस्तव।। अवे- 14.1.51

41- ममेयमस्तु पोष्या मह्यं त्वादाद् बृहस्पतिः.

    मया पत्या प्रजावति सं जीव शरदः शतम्।। अवे. 14.1 . 52

42-त्वष्टा वासो व्यदधाच्छमे कं बृहस्पतेः प्रशिषा कवीनाम्।

    तेनेद्य नारी सविता भगश्च सूर्यामिव परि धत्ता प्रजया।।अवे- 14.1.53

43-या अकृन्तन्नवयन् याश्च तत्निरे या देवीरन्ता अभितो च् ददन्त।

   तास्त्वा जरसे सं व्ययन्त्वायुष्मतादं परिधत्तस्व वासः।। अवे. 14.1. 45

44- अवे 14.1.54

45- बृहस्पतिः प्रथमः सूर्यायाः शीर्षे केशाँ अकल्पयत्।

     तेनेमामश्विना नारीं पत्यै सं शोभयामसि।। अवे. 14.1.55

46-इदं तद्रूपं यदवस्तु योषा जायां जिज्ञासे मनसा चरन्तीम्।

    तामन्वर्तिष्ये सखिभिर्नवग्वैः क इमान् विद्वान् विचचर्त पाशान्।। अवे. 14. 1..56

47- अहं वि ष्यामि मयि रूपमस्या वेददित् पश्यन् मनसः कुलायम्।

    न स्तेयमद्मि मनसोदमुच्ये स्वयं श्रथ्नानो वरुणस्य पाशान्।। अवे. 14.1.57

48-अवे. 14.1.58

49- अवे, 14.2.60

50- सुकिंशुकं वहतुं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम्।   

    आ रोह सूर्ये अमृताय लोकं स्योनं पतिभ्यो वहतु कृणु त्वम्।। अवे. 14.1.61

    अवे, 14.2.30

51 अवे 14.1.62

52-अवे 14.1.63

53 - सोमस्य जाया प्रथमं गन्धर्वस्तेच्परः पति।

     तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा।।ऋक् 10.85.40.. अवे. 14.2.3

54-सोमो ददद् गन्धर्वाय गन्धर्वो ददग्नये। रयिं च पुत्रोश्चाददग्निर्मह्यमथो इमाम्।। ऋक् 10.85.41, अवे.14.2.4

55- आ वामगन्सुमतिर्वाजिनी वसून्यश्विना हृत्सु कामा अरंसत।

    अभूतं गोषा मिथुना शुभस्पती प्रिया अर्यम्णो दुर्या अशीमहि।। अवे. 14.2.5

56-सा मन्दसाना मनसा शिवेन रयिं धेहि सर्ववीरं वचाचम्।

    सुगं तीर्थं सुप्रयाणं शुभस्पती स्थाणुं पथिष्ठामय दुर्मति हतम्।। अवे. 14.2.6

57- या ओषधयो या नद्यो इमानि क्षेत्राणि या वना।

    तास्त्वा वधु प्रजावतो पत्ये रक्षन्तु रक्षसः।। अवे 14.2.7

58- एमं पन्थाम रूक्षाम सुगं स्वस्ति वाहनम्।

     यस्मिन् वीरो न रिष्यन्यन्येषां विदन्ते वसु।। अवे 14.2.8

59- इदं सु मे नरः श्रुणुतु............................मा हिंसिषुर्वातुमुह्यमानम्।। अवे 14.2.9

60-अवे 14. 2. 10

61- अवे 14.2.11

62-सं काशयामि वहतु ब्रह्मणा गृहैरघोरेण चक्षुषा मित्रियेण।

    पर्यार्णद्धं विश्वरूपं यदस्ति स्योनं पतिभ्यः सविता तत् कृणोतु।। अवे. 14.2.12

63-शिवा नारीयमस्तमगन्निमं धाता लोकमस्यै दिदेश।

   तामर्यमा भगो अश्विनोभा प्रजापतिः प्रजया वर्धयन्तु।।अवे.14.2.13

64-अवे . 14.2.14

65-अवे. 14.2.15

66-अवे. 14.2.17

67- अवे. 14.2.18

68- उत्तिष्ठेतः किमिच्छन्तीदमागा अहं त्वेडे अभिभूः स्वाद्गृहात्।

    शून्यैषी निऋते याजगन्धोत्तिष्ठाराते प्र पत मेह रंस्थाः।। अवे. 14.2.19

69- अवे. 14.2.20

70- शर्म वर्म तदा हरास्यै नार्या उपस्तरे।

    सिनीवालि प्र जायतां भगस्य सुमतावसत्।।अवे.14.2.21

71-यं बल्बजं न्यस्थ चर्म चोपस्तृणीथन।

    तदा रोहतु सुप्रजा या कन्या विन्दते पतिम्।। अवे. 14.2.22

72- अवे. 14.2.23

73- अवे. 14.2.24

74- आरोह चर्मोपसीदाग्निमेष देवो हन्ति रंक्षासि सर्वा।

   इह प्रजां जनय पत्ये मै सुज्यैष्ठयो भवस्त प्रजस्त एषः।। अवे. 14.2.25

75- अवे. 14.2.26

76- अवे. 14.2.27

77- अवे, 14.2.28

78- या दुर्हार्दो युवतयो याश्चेह जरतीरपि।

     वर्चो न्व1 स्यै सं दत्तास्थास्तं विपरेतन।। अवे. 14.2.29

79-आ रोह तल्पं सुमनस्यमानेह प्रजां जनय पत्ये अस्मै।

 इन्द्राणाव सुबुधा बुधअयमाना ज्योतिरग्रा उषसः प्रति जागरासि।। अवे. 14.2.31

80-अवे . 14.2.32

81-अवे. 14.2.33

82-अप्सरसः सधमादं मदन्ति हव्रधानमन्तरा सूर्यं च।

   तास्ते जनित्रमभि ताः षरेहि नमस्ते गन्धर्वर्तुना कृणोमि।। अवे. 14.2.34

83-अवे. 14.2.35

84- अवे. 14.2.36

85. अवे. 14.2.37

86-तां पूषं छिवतमामेरयस्व यस्यां बीजं मनुष्या3वपन्ति।

   या न ऊरू उशती विश्रयाति यस्यामुशन्तः प्रहरेम शेपः।। अवे. 14.2.38

87- अवे. 14.2.39

88- अवे. 14.2.40

89-अवे. 14.2.41

90-अवे. 14.2.42

91- स्योनाद्योनेरधि बुध्यमानौ हसामुदौ महसा मोदमानौ।

    सुगू सुपुत्रौ सुगृहौ तराथओ जीवावषसो विभातीः।। अवे. 14.2.43

92- या मे प्रियतमा तनूः सा मे बिभाय वाससः

       तस्याग्रे त्वं वनस्पते नीविं कृणुष्व मा वयं रिषाम।। अवे. 14.2.50

93-अवे. 14.2.51

94- अवे. 14.2.53, 54, 55,56, 57, 58

95- अवे. 14.2.60, 61, 62,

96-अवे. 14.2. 63

97-इहेमाविन्द्र सं नुद चक्रवाकेव दम्पती।

    प्रजयैनौ स्वस्तकौ विश्वमायुव्यश्र्नुताम्।। अवे. 14.2.56

98- अवे. अवे. 14.2.66, 67, 68, 69

99- सं त्वा नह्यामि पयसा पृथिव्याः सं त्वा नह्यामि पयसौषधीनाम्।

     सं त्वा नह्यामि प्रजया धनेन सा संनद्धा सनुहि वाजमेमम्।। अवे. 14.2. 70

100-अमोच्हमस्मि सा त्वं सामाहमस्म्यृक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम्।

    ताविह सं भवाव प्रजामा जनयावहै।।अवे. 14.2.71

101- अवे- 14.2.73

102- अवे 14.2.75



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