Issue-31 Vol.1I, Apr.-Jun.2025 pp.24-34 Paper ID-E31/2
1सहायक प्रोफेसर, क्रिया शारीर विभाग,
राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, वाराणसी
2प्रोफेसर, रचना शारीर विभाग, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, वाराणसी
3सहायक प्रोफेसर, काय चिकित्सा एवं पंचकर्म विभाग, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, वाराणसी
लेखक
ईमेल:prakashrajsingh65@gmail.com
सारांश
वैदिक काल से ही
मानव जाति को ‘प्रमेह’ रोग के बारे में पता है, जिसका अर्थ है अत्यधिक पेशाब आना। आयुर्वेदिक ग्रंथों में 20 प्रकार के
प्रमेह का वर्णन किया गया है, इनकी तुलना विभिन्न मूत्र
विकारों से की गई है। मधुमेह या क्षौद्रमेह एक वातज प्रमेह है, जिसमें मूत्र शहद की तरह मीठा और गन्दला होता है। ये लक्षण अन्य लक्षणों
के साथ मधुमेह के समान हैं। गलत खान-पान और जीवनशैली के कारण मधुमेह के मामले बढ़
रहे हैं। आयुर्वेद में मधुमेह के अध्ययन से मधुमेह की विभिन्न जटिलताओं के
प्रबन्धन और रोकथाम में मदद मिल सकती है। मधुमेह के प्रसार में वैश्विक वृद्धि,
जनसंख्या वृद्धि, उम्र बढ़ने, शहरीकरण
के साथ मोटापे की वृद्धि और शारीरिक निष्क्रियता की बढ़ती घटनाये मुख्य के कारण
है।
मुख्य शब्द : मधुमेह,
वातज प्रमेह, क्षौद्रमेह ।
Abstract-
(Since
the Vedic period, humanity has been aware of a condition called Prameha, which
refers to excessive urination. Ayurvedic texts describe 20 types of Prameha,
which have been compared to various urinary disorders. Madhumeha or
Kshaudrameha is classified as a Vataja Prameha, in which the urine becomes
sweet and turbid like honey. These symptoms closely resemble those of diabetes.
Poor diet and lifestyle choices have led to a rising incidence of diabetes. The
Ayurvedic study of Madhumeha can aid in the prevention and management of
various complications associated with diabetes. The global rise in diabetes is
primarily driven by factors such as population growth, aging, urbanization,
increased obesity, and a sedentary lifestyle.
Keywords: Diabetes, Vataja Prameha, Kshaudrameha.
प्रस्तावना
एशियाई आबादी
में युवा से लेकर मध्यम आयु वर्ग के वयस्कों में यह बीमारी अधिक पायी जाती है,
जिसका राष्ट्रीय स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ता है। विकासशील देशों में मधुमेह से पीड़ित कुल आबादी की संख्या में से अस्सी
प्रतिशत मधुमेह के रोगी भारत में है।1
अथर्ववेद के
कौशिक सूत्र में 'प्रमेह' का उल्लेख है, जहाँ दो शब्द 'आश्रव'
और 'प्रमेह' का उल्लेख
है, आ + सर का अर्थ है, बहना। सायण और केशव (वैदिक टीकाकार)
ने 'मूत्रातिसार' या अत्यधिक पेशाब का
वर्णन किया है।
आचार्य चरक
(1000 ई.पू.) ने ‘प्रमेह’ को संतर्पण जनित2 रोग माना है, जो अधिक मीठा, स्टार्चयुक्त, वसायुक्त,
चिपचिपा भोजन, नया अनाज, दूध, दही, घी और जलीय जीवों के
मांस का अधिक सेवन करने तथा गतिहीन जीवन शैली अपनाने वाले लोगों के कारण होता है।
प्रमेह को दूषित मेद जन्य रोग3
(वसामय ऊतक चयापचय में गड़बड़ी) में शामिल किया गया है। उन्होंने 'जता' (वंशानुगत) प्रकार के प्रमेह और मधुमेह का
उल्लेख किया है, जो 'बीज दोष'4 के कारण होता है। आचार्य चरक ने प्रमेह के बीस प्रकार और प्रमेह की
जटिलता के रूप में सात प्रकार के ‘प्रमेह पिडिका’5 का वर्णन
किया है और इसके कारण और रोगजनन, प्रकार, नैदानिक विशेषताओं आदि पर चर्चा की है6। 'मधुमेह' का विस्तृत विवरण चरक सूत्र स्थान7
में है। चिकित्सा स्थान में प्रमेह के उपचार के लिए एक अध्याय है और उन्होंने 'रक्तपित्त' और 'प्रमेह'8 के बीच अंतर का उल्लेख किया है।
आचार्य सुश्रुत
(1000-1500 ई.पू.) ने ‘प्रमेह’ को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया - सहज (वंशानुगत)
और ‘अपथ्य निमित्तज’9 (अधिग्रहित),
शारीरिक संरचना के अनुसार - स्थूल (मोटापा) और कृश (दुर्बलता)
प्रमेह10। सुश्रुत ने कारण और रोगजनन, नैदानिक
विशेषताओं,
जटिलताओं और 10 प्रकार के ‘प्रमेह पिडिका’ की अभिव्यक्ति पर चर्चा
की, जो अनियंत्रित प्रमेह11 के कारण
उत्पन्न होते हैं. सुश्रुत ने प्रमेह, प्रमेका पिडिका
(कार्बंकल) और मधुमेह के उपचार के लिए अलग-अलग अध्याय लिखे हैं और ‘प्रमेह निवृति
लक्षण12 (मधुमेह से मुक्ति)’ का भी उल्लेख किया है।
काश्यप संहिता
(1000 ई.पू.) में ‘प्रमेही बालक’ (बच्चों) में प्रमेह की नैदानिक विशेषताओं का वर्णन किया गया है,
जो बचपन में होने वाले मधुमेह13, इसके प्रकारों14, विभेदित
‘मूत्रकृच्छ’ और ‘प्रमेह’ (मूत्रकृच्छ चिकित्सा अध्याय) को इंगित करता है।
उन्होंने आठ प्रकार के प्रमेह पिडिका15 का उल्लेख किया है।
पौराणिक पक्ष
आचार्य चरक ने
प्रमेह की उत्पत्ति का उल्लेख तब किया है, जब दक्ष-प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में भगवान शिव के गणों ने व्यवधान
डाला था। यज्ञ में आहुति के लिए चावल, दूध और चीनी से बने
विशेष प्रकार के भोजन ‘हविषा’ जिसका अर्थ है "प्रसाद" या "बलिदान" को खाने से प्रमेह होता है16।
व्युत्पत्ति
'प्रमेह'
शब्द उपसर्ग (उपसर्ग) 'प्र' और 'मेह' धातु से बना है। मेह 'मिहसेचेन' से हैं।
प्रमेह = प्र
+ मेह
प्र = अत्यधिक
मेह = पानी
बनाना, पेशाब करना
निरुक्ति
प्रकर्षेण
प्रभुतम- प्रचुरं वरामवरं वा महति मुत्रत्यागा करोति यस्मिन् रोगे स प्रमेहः17।
जिस रोग में पेशाब की मात्रा और
बारम्बारता बढ़ जाती है, उसे प्रमेह कहते हैं।
निदान का वर्गीकरण
विभिन्न
आचार्यों द्वारा वर्णित प्रमेह के विभिन्न कारणों को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा
सकता है:
1. सहज या कुलज
-
(क)
मातृज, पितृज,
(ख) बीज भाग दोष – (बीजभागवयव दोषज)
2. गर्भज- अन्न रस
3. अपथ्य-
(क) आहार,
(ख) विहार
4.मानसिक कारण
5.अन्य कारण -
पंचकर्मतियोग आदि।
1- सहज या कुलज
जब माता-पिता
में से कोई एक या दोनों या दादा-दादी प्रमेह अपथ्य करते हैं,
तो उनमें प्रमेह विकसित होगा, दोष उनके 'बीज' (रोगाणु कोशिकाओं) में विकसित होगा, यह दो प्रकार का होता है18।
माता-पिता में
से किसी एक या दोनों से बीज दोष के साथ पैदा होने वाली संतान प्रमेह के साथ पैदा
होगी। माता-पिता से होने वाले बीज दोष दो प्रकार के होते हैं।
(क) बीज - भाग
दोष।
(ख) बीज – भाग –
अवयव दोष।
जब विशिष्ट 'अंग-प्रत्यंग' का 'बीजांश'
विकृत होता है, तो उस 'बीजांश' से बनने वाला अंग भी विकृत या खराब रूप वाला होगा या बनेगा19।
भेल संहिता ने इस प्रकार को 'प्रकृति प्रभाव' प्रमेह20 के रूप में वर्णित किया है।
2- गर्भज
इस प्रकार के
रोग गर्भावस्था के दौरान माँ द्वारा अनुचित भोजन और अन्य अनियमित गतिविधियों के
कारण होते हैं और बच्चा भविष्य में प्रमेह रोग से प्रभावित होगा21।
अन्नरसज - गर्भावस्था के दौरान माँ द्वारा
मीठे खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन करने से प्रमेह होता है22।
आव्हारी चरक ने गर्भावस्था के दौरान माँ द्वारा मधुर आहार के सेवन का उल्लेख किया
है, जिससे बच्चे में भविष्य में प्रमेह विकसित होगा23।
3- अपथ्य –
'दोष
प्रकोप' भोजन और गतिविधियों में लिप्तता और 'धातु दूष्टि' से प्रमेह होता है। भेल संहिता में इस
प्रकार के प्रमेह का उल्लेख 'स्वकृतिजा प्रमेह'24 के रूप में किया गया है। अपथ्य
निम्नलिखित प्रकार के हो सकते हैं-
(क) आहार (खाने
की आदतें)
(ख) विहार
(गतिविधियाँ)
4 - मानसिक कारण (मनोवैज्ञानिक) - तनाव, चिंता जैसे मनोवैज्ञानिक कारण भी प्रमेह में भूमिका निभाते हैं।
प्रमेह में षटक्रियाकाल
षटक्रियाकला का
वर्णन सुश्रुत ने किया है25। यह रोग के रोगात्मक चरण का उसके
उपचार की दृष्टि से विभाजन है। प्रमेह के संबंध में षटक्रियाकला इस प्रकार है-
षटक्रियाकाल
के विभिन्न चरण
षटक्रियाकाल के चरण |
विशेषताएँ |
संचय |
तीनों दोष अपने आप ही बढ़ जाते हैं, जिससे दूषित दोषों के लक्षण उत्पन्न
होते हैं। |
प्रकोप |
दोष मात्रा के साथ-साथ गुणवत्ता में भी बढ़ जाते हैं, कफ प्रमेह में मुख्य रूप से दूषित
होता है। |
प्रसर |
विकृत दोष पूरे शरीर में फैलते हैं। मेद (अत्यधिक तरल
हो जाता है), मन, क्लेद, रक्त,
शुक्र, रस, वसा,
मज्जा, लसिका और अंत में ओज भी दूषित दोषों
से दूषित हो जाता है। |
स्थान संश्रय |
विकृत दोष दूषित दुष्यों के साथ मूत्रवह स्रोत (मूत्र
प्रणाली) में प्रवेश करते हैं और वस्ति मुख में स्थानीयकृत हो जाते हैं, जिससे प्रमेह के पूर्व रूप या
पूर्वसूचक लक्षण उत्पन्न होते हैं। |
व्यक्तावस्था |
मूत्र की मात्रा और आवृत्ति में वृद्धि, मूत्र का गंदा होना, जो स्वाद में अत्यधिक मीठा और कसैला होता है, अन्य
अभिव्यक्तियाँ। |
भेदावस्था |
प्रमेह पिडिका सहित विभिन्न जटिलताएँ |
पूर्वरूप (पूर्वसूचक लक्षण)
रोग के
दोष-दुष्य सम्मूर्छना के पश्चात प्रकट होने वाले लक्षण,
विभिन्न प्रकार के प्रमेह के प्रकटीकरण की प्रक्रिया आरंभ करते हुए,
निम्नलिखित पूर्वसूचक लक्षण उत्पन्न करते हैं26-
• केशजटिलभाव
(बालों का उलझना)
• मधुरासय (मुँह
में मीठा स्वाद)
• कर-पाद
सुप्तता और दाह (हाथों और पैरों में सुन्नता और जलन)
• मुख,
तालु, कन्ठ शोष (मुँह, तालु,
गले का सूखापन)
• पिपासा
(प्यास)
• आलस्य (सुस्त
होना)
• मलम काय (शरीर
से अपशिष्ट उत्पादों की मात्रा में वृद्धि)
• काया छिद्र
उपदेह (दांत, तालु, जीभ, कान,
नाक आदि पर अपशिष्ट उत्पादों का जमा
होना)
•
परिदाह-सुप्तता (शरीर के सभी अंगों में जलन और सुन्नता)।
•
पिपीलिका-भिसरन (शरीर और मूत्र की ओर चींटियों का आकर्षण)।
• मूत्र-दोष
(मूत्र में असामान्यताएँ)
• विस्र शरीरगंध
(शरीर से दुर्गंध)।
• निद्रा
(अत्यधिक नींद)
• तंद्रा
(उनींदापन)
मधुमेह
मधुमेह वातज प्रमेह
के चार प्रकारों में से एक है। चरक ने निदानस्थान में 'मधुमेह' का उल्लेख किया है और
सूत्रस्थान में उन्होंने 'मधुमेह' की निदान संप्राप्ति का अलग से वर्णन किया है27।
सुश्रुत ने 'मधुमेह' के उपचार के लिए अलग अध्याय लिखा है।
निरुक्ति
मधुमेह - वह रोग जिसमें पेशाब मधु या शहद की तरह मीठा हो जाता है और रोगी का शरीर भी
मीठा हो जाता है28।
मधुमेह - दुष्य 'ओज' है, जो सार या सभी धातुओं का सार है। कुपित वात
मधुर ओज को कुपित कर उसे कषाय रस में बदल देता है। दोष वस्ति में प्रवेश करते हैं
और मधुमेह को प्रकट करते हुए वस्ति-मुक्त में अवस्थित हो जाते हैं।
मधुमेह में
मूत्र स्वाद में अत्यधिक मीठा और कसैला, सफेद, छूने में खुरदरा होता है। सुश्रुत ने इसे 'क्षौद्रमेह'29 नाम दिया है।
मधुमेह निदान
नीचे उल्लिखित
भोजन और गतिविधियों में संलिप्तता 'मधुमेह' के लिए अतिसंवेदनशील है30।
आहार
• गुरु आहार
(भारी भोजन)
• स्निग्ध आहार
(वसायुक्त भोजन)
• अम्ल लवण आहार
(नमकीन और खट्टा भोजन)
• नव अन्न (नये
अनाज)
• नव मद्य
(ताज़ी मदिरा)
विहार
• अति निद्रा
(अत्यधिक नींद)
• आस्यसुखम
(गतिहीन आदतें)
• अव्ययम
(व्यायाम की कमी)
मानसिक करण
अचिंतन (मानसिक
व्यायाम की कमी)
अन्य करण
संसोधन
अकुर्वन्तम् (वमन, विरेचन आदि द्वारा शरीर शुद्धि न करना)
सन्तापञ्जन्य
मधुर, शीत, गुरु, पिच्छिल आदि और
दिवास्वप्न, शय्या सुख आदि के अत्यधिक भोग करने से होने वाला
रोग अर्थात भोजन और गतिविधियाँ जो मुख्य रूप से कफ दोष और मेदो धातुओं को बढ़ाती
हैं 31।
'गर्भोपघातकरभाव'
शीर्षक के अंतर्गत चरक ने उल्लेख किया है कि जब गर्भवती महिला मधुर
आहार का अत्यधिक सेवन करती है, तो भावी जीवन में संतान में
प्रमेह विकसित होता है32।
मधुमेह के प्रकार
सम्प्राप्ति के आधार पर मधुमेह को इस
प्रकार विभाजित किया जा सकता है33-
• धातु-क्षय
वातप्रकोपज (कृष)
• दोष आवृत्त पथ
(स्थूल)
आवृत्त वात मधुमेह की संप्राप्ति
उपरोक्त प्रमेह
निदान सेवन करने से कफ-पित्त प्रकोप होता है। समान गुण के कारण कफ और मेद में
दूष्टि उत्पन्न हो जाते हैं। दूषित कफ, पित्त और मेद-मांस धातु नाड़ियों और वात की
गति में अवरोध पैदा करते हैं। वायु रुक्ष गुण वाली है,
मधुर ओज को कषाय रस में बदल देती है एवं मिश्रित
हो कर मूत्रवह स्रोत (मूत्र प्रणाली) में प्रवेश करती है। यह मिश्रण अवस्थित हो
जाता है या वस्ति-मुख में स्थानसंश्रय होता है, जिससे शहद या
मधु की तरह अत्यधिक, बार-बार और मधुर क्षय मूत्र होता है।
प्रमेह को मधुमेह के नाम से जाना जाता है। इसका इलाज करना कठिन है, इस प्रकार में
वात, पित्त, कफ दूष्य होने के लक्षण
बार-बार दिखाई देते हैं। कभी-कभी ये लक्षण कम होते दिखाई देते हैं, लेकिन बाद में लक्षणों में वृद्धि हो जाती है34।
गुरु, स्निग्ध आहार इत्यादि
कफ-पित्त + मेद मांस वृद्ध
शरीर की स्रोतो में रुकावट
आवृत
वायु की गति + दूषित ओजस + वायु
मिश्रण
और मुत्र वह स्रोत में प्रवेश
वस्ति मुख में अवस्थित
मधुमेह
वात प्रकोप मधुमेह की संप्राप्ति
वात को दुष्टि
करने वाले कारकों के संपर्क में आने से प्रारम्भिक वात प्रकोप होता है,
रुक्ष गुणों वाला यह दुष्ट वात विषमाग्नि की ओर ले जाता है।
विषमाग्नि धातु क्षय का कारण बनती है, सभी धातुओं के क्षय के
कारण, वात शरीर में ओज को क्षय रस में बदल देता है। ये
मिश्रित हो जाते हैं और मुत्र-वह-स्रोतों में प्रवेश करते हैं, वस्ति-मुख प्रकट मधुमेह में अवस्थित हो जाते हैं। मूत्र शहद के समान मीठा,
श्वेत, शीत और रुक्ष होता है। यह असाध्य है35।
इस प्रकार का रोगी कृश है।
अपथ्य-आहार-विहार
+ वमन – विरेचन अतियोग
वात
+ धातु
मिश्रित
एवं ओज का क्षय रस में परिवर्तित
मुत्र-वह-स्रोतों
में प्रवेश
वस्ति
मुख में अवस्थित
मूत्र
में वृद्धि, मधुर, गंदला मूत्र
मधुमेह
नैदानिक लक्षण
मधुमेही व्यक्ति
के मूत्र में निम्नलिखित लक्षण होते हैं36-
• क्षय - मधुर
रस (कसैला, मीठा स्वाद)
• पांडु वर्ण
(सफेद रंग)
• रुक्ष स्पर्श
(खुरदरा)
मधुमेही को चलने
की अपेक्षा स्थिर खड़ा रहना, खड़े होने की
अपेक्षा बैठना, बैठने की अपेक्षा लेटना और लेटने की अपेक्षा
सोना पसंद होता है37।
वातज प्रमेह उपद्रव
सुश्रुत38
• हृद-ग्रह
(सीने में भारीपन)
• लौलम (अधिक
खाने की इच्छा)
• अनिद्रा (नींद
न आना)
• कम्प
(कंपकंपी)
• स्तम्भ
(कठोरता)
• शूल (दर्द)
• बद्ध पुरिष
(कब्ज)
असाध्य अवस्था
जब प्रमेही को
तीव्र अवस्था में प्रमेह पीड़ा के साथ-साथ प्रमेह की अन्य जटिलताएँ भी हो जाती हैं,
तो यह असाध्य अवस्था होती है39।
प्रमेह चिकित्सा
रोग का उपचार
निम्न पर आधारित है-
• कारण कारकों
से बचना या ‘निदान परिवर्जन’।
• ‘संशोधन’
द्वारा शरीर का शुद्धिकरण।
• संशमन द्वारा
शेष दूषित दोषों का संतुलन प्राप्त करना।
निदान परिवर्जन
प्रमेह के लिए
जिम्मेदार कारक अर्थात मधुर, शीत, स्निग्ध, गुरु आहार आदि, व्यायाम
की कमी, आलस्य, निष्क्रिय आदतों जैसी
गतिविधियों से बचना चाहिए40।
प्रमेह में
तीनों दोष अलग-अलग मात्रा में शामिल होते हैं, साथ ही दूष्य अर्थात मेद, मांस, रक्त, शुक्र, अम्बु, वसा, मज्जा, लसिका, रस, ओज41।
शारीरिक संरचना
के आधार पर, प्रमेह दो प्रकार के होते हैं42
•
स्थूल और शक्तिशाली।
•
कृश और कमजोर
कृश प्रमेह का
सामान्य उपचार 'बृहण' या 'संतर्पण'43 है, भोजन और
गतिविधियाँ जो शरीर की ताकत बढ़ाती हैं। इस प्रकार के रोगियों में संसोधन चिकित्सा
नहीं की जाती है।
स्थूल प्रमेही
में पहले संसोधन चिकित्सा या शरीर के दोषों की जैविक शुद्धि की जाती है,
उसके बाद उनका संतुलन बनाए रखा जाता है। पहले स्नेहन किया जाता है
और जब शरीर स्निग्ध हो जाता है, तब वमन-विरेचन आदि द्वारा शोधन किया जाता है।44
सुश्रुत ने
उपचार पद्धति का भी उल्लेख किया है, लेकिन उन्होंने प्रमेह, प्रमेह पीडिका और मधुमेह के
उपचार की अलग-अलग चर्चा की है। उन्होंने मधुमेह के उपचार में शिलाजतु के उपयोग का
उल्लेख किया है45।
निष्कर्ष
आज के स्वास्थ्य
परिदृश्य में प्रमेह (मधुमेह) जैसी बीमारी को समझना हमारी ज़रूरत है, जो हमारे
समाज पर स्वास्थ्य और आर्थिक रूप से बहुत बड़ा बोझ है। अगर हम मधुमेह को अपने
पुराने वैदिक काल के वर्णन जो कि अल्पविकसित रूप में है एवं चरक संहिता,
सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय आदि जैसे आयुर्वेदिक ग्रंथों में
खूबसूरती से वर्णित किया गया है, से बेहतर अध्यनन करें तो अतीत से ज्ञान लेकर
वर्तमान समय में उसका क्रियान्वयन लाभदायक होगा।
सन्दर्भ
1.
ए.के. दास, ए.
रामचंद्रन, एस.आर.जोशी, सी.एस. याजनिक, एस साह, के.एम. प्रसन्ना कुमार, भारत
में मधुमेह की वर्तमान स्थिति और नवीन चिकित्सकीय पद्धति की आवश्यकता: जे.ए.पी.आई.
का अनुपूरक 58: पी. 7-9.
2.
अग्निवेश चरक
संहिता, पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-23/5, 5वाँ
संस्करण वाराणसी: चौखम्भा भारती अकादमी 2009
3.
अग्निवेश चरक
संहिता, पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-28/15, 5वाँ
संस्करण वाराणसी: चौखम्भा भारती अकादमी 2009, पृ. 244
4.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-6/57, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी 2009, पृ. 244
5.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-17/78-82, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी 2009, पृ. 352-353
6.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुवेर्दी, निदान स्थान-4/5-48, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी 2009, पृ. 632-640
7.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-17/80-81, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 352
8.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, चिकित्सा स्थान-8/11, वाराणसी: चौखम्भा भारती अकादमी
2009, पृ. 243
9.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अंबिका दत्त, चिकित्सा स्थान-11/3,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान 2010, पृ. 75
10.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अंबिका दत्त, चिकित्सा स्थान-11/3-4,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान 2010, पृ. 75
11.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-6/15-16,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान 2010, पृ. 329
12.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अंबिका दत्त, चिकित्सा स्थान-11-13,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान 2010, पृ. 75-84
13.
काश्यप संहिता
प्रो. पी.वी. तिवारी, सूत्रस्थान अध्याय-25/22, पृष्ठ संख्या-55, चौखम्भा विश्वभारती 1996
14.
काश्यप संहिता
प्रो. पी.वी. तिवारी, सूत्रस्थान-2/22, चौखम्भा विश्वभारती 1996
15.
काश्यप संहिता
प्रोफेसर पी.वी. तिवारी चिकित्सास्थान-11/26, चौखम्भा विश्वभारती 1996
16.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, शारीर स्थान-8/11, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 665
17.
माधवनिदानम
माधवकार प्रोफेसर के.आर. श्रीकांत मूर्ति, अध्याय 33,
चौखम्भा ओरिएंटलिया 2001, पृष्ठ.116-120
18.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, शारीर स्थान-4/31, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 878
19.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, शारीर स्थान-3/17, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 865
20.
भेल संहिता 2000,
प्रोफेसर प्रिय व्रत शर्मा द्वारा संपादित, निदान
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21.
वृद्ध वाग्भट्ट, अष्टांगसंग्रह संहिता, प्रो. ज्योतिर मित्र और डॉ.
शिवप्रसाद द्वारा संपादित, सूत्र स्थान-22/2, चौखम्भा संस्कृत श्रृंखला कार्यालय 2008,
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22.
वृद्ध वाग्भट्ट,
अष्टांगसंग्रह संहिता, प्रो. ज्योतिर मित्र और
डॉ. शिवप्रसाद द्वारा संपादित, शारीर स्थान-2/57, चौखम्भा संस्कृत श्रृंखला कार्यालय 2008,
पृष्ठ 283
23.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, शारीर स्थान-8/21, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 928
24.
भेल संहिता,
प्रो. प्रिय व्रत शर्मा द्वारा संपादित, निदान
स्थान-6/1, चौखम्भा विश्वभारती 2000,
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महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-21/36,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान 2010, पृ. 121
26.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुवेर्दी, निदान स्थान-4/47, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 640
27.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-17/78-81, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 352
28.
अष्टांग हृदयम,
कविराज अत्रिदेव गुप्त एवं वैद्य यदुनंदन उपाध्याय द्वारा संपादित
"विद्योतिनी", निदान स्थान, 10/21,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान पुनर्मुद्रण 2011, पृ.
345
29.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-6/10,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, 2010, पृ. 327
30.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-17/78-81, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 352
31.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-23/3-5, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 436
32.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, शारीर स्थान-8/21, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 928
33.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-6/4,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, 2010, पृ. 326
34.
अग्निवेश,
चरक संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, सूत्र स्थान-17/78-79, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृ. 351
35.
अग्निवेश,
चरक संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुवेर्दी, निदान स्थान-6/53, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, 2009, पृष्ठ
637-638
36.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-4/44,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, 2010, पेज नं. 639
37.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-6/28,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, 2010, पृ. 331
38.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-6/15,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, 2010, पृ.328
39.
महर्षि सुश्रुत
की सुश्रुत संहिता, शास्त्री कविराज
अम्बिका दत्त, निदान स्थान-6/27,
चौखम्भा संस्कृत संस्थान, 2010, पृ.330
40.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, चिकित्सा स्थान-6/53, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, पृष्ठ 243
41.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, चिकित्सा स्थान-6/8, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, पृष्ठ 244
42.
अग्निवेश चरक
संहिता पं. काशीनाथ पांडे एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी, चिकित्सा स्थान-6/15, वाराणसी:
चौखम्भा भारती अकादमी, पृष्ठ 244
43.
चरक संहिता
आचार्य विद्याधर शुक्ल और प्रोफेसर रवि दत्त त्रिपाठी, चिकित्सा स्थान-प्रमेह चिकित्सा अध्याय-6/15-16, खंड-2,
44.
सुश्रुत संहिता
डॉ. अनंत राम शर्मा द्वारा संपादित चिकित्सा स्थान-मधुमेह चिकित्सा अध्याय-13/4,
वाराणसी: चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, पुनर्मुद्रण
2010, पृ.278
45.
सुश्रुत संहिता
डॉ. अनंत राम शर्मा द्वारा संपादित चिकित्सा स्थान-मधुमेह चिकित्सा अध्याय-13/14, वाराणसी: चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, पुनर्मुद्रण 2010, पृ.278
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