आज योग को लेकर चर्चाओं और वाद-विवाद का बाजार गर्म है। इसे कोई भारतीय सांस्कृतिक धरोहर मानता है, कोई हिन्दुत्व की पहचान, तो कोई स्वास्थ्य विज्ञान का एक जरूरी अंग। सोशल मीडिया पर योग का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। फेसबुक पर एक मित्र ने टिप्पणी की—"जब तक योग ब्राह्मणों के हाथ में था, तब तक यह परमज्ञान और मोक्ष का माध्यम था; लेकिन जब अन्य जातियों के हाथ में गया, तो मात्र कसरत बनकर रह गया।"
बीबीसी पर प्रकाशित एक ब्लॉग में एक मुस्लिम महिला ने लिखा—"मैं योग करती हूँ, लेकिन मैं मुसलमान भी हूँ।" यह पंक्ति पश्चिमी समाजों में योग की सार्वभौमिक स्वीकार्यता और धार्मिक सीमाओं से परे इसके प्रयोग को इंगित करती है। पश्चिम में योग लंबे समय से स्वास्थ्य और युवा बने रहने के एक व्यावहारिक साधन के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। किंतु भारत में, खासकर जब से 21 जून को ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ मनाने की घोषणा हुई है, तब से योग को लेकर समर्थन और विरोध की दो धाराएं बन गई हैं।
योग का उद्भव : सिद्ध परंपरा से नाथ तक
योग का ऐतिहासिक विकास किसी एक धर्म या परंपरा तक सीमित नहीं रहा। यह भ्रम दूर करना आवश्यक है कि योग केवल वैदिक या ब्राह्मण परंपरा की देन है। वास्तव में, योग का मूल उद्गम अवैदिक सिद्ध धर्म परंपरा में हुआ, जो आगे चलकर नाथ संप्रदाय में विकसित हुआ। नाथों ने योग को एक गहन साधना पद्धति के रूप में आत्मसात किया।
योगियों की यह उद्घोषणा कि—
"तुम जानो क्षुद्र जाहा, क्षुद्र ताहा नय। सत्य येथा किछु याके, विश्व सेथा रय।"
इस बात की घोषणा थी कि मानव शरीर क्षुद्र नहीं है; इसमें समग्र ब्रह्मांड समाहित है।
इन योगियों ने शरीर के रहस्यों को समझा—छह चक्र, सोलह आधार, तीन लक्ष्य, पाँच आकाश, बारह ग्रंथियाँ, और तीन प्रमुख नाड़ियाँ—इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना। तांत्रिक योगियों ने देहाभिमान से ऊपर उठकर दिव्यदेह का अवतरण किया। वैष्णव परंपरा ने इसी दिव्यदेह को भावदेह कहा—यह भाव और देह का संयुक्त अनुभव था।
योग: आंतरिक यात्रा की विधि
योग केवल शरीर को साधने की तकनीक नहीं है; यह शरीर से भीतर की ओर यात्रा का माध्यम है—अन्नमय कोश से प्राणमय, फिर मनोमय, विज्ञानमय और अंततः आनंदमय कोश तक की क्रमिक यात्रा।
यह यात्रा कुंडलिनी योग के सहस्रार की हो या वृंदावन के रसिकों के नित्यवृंदावन की, दोनों ही आंतरिक सौंदर्य और चैतन्य के चरम बिंदु तक पहुँचने की विधियाँ हैं।
तांत्रिक आधार: विज्ञान भैरव तंत्र
योग की एक महत्वपूर्ण जड़ विज्ञान भैरव तंत्र है। इसमें देवी शिव से अस्तित्व पर प्रश्न करती हैं और शिव 108 ध्यान विधियाँ प्रस्तुत करते हैं। ये विधियाँ स्त्री और पुरुष दोनों के लिए हैं। यहाँ योग वास्तव में ‘जुड़ाव’ है—स्वयं से, सृष्टि से, और अंततः परब्रह्म से।
इन विधियों में वैश्विक दृष्टिकोण समाहित है—चीन, यूनान, इस्लाम, और ईसाई परंपराओं में भी मन और शरीर के योग के सूत्र मिलते हैं। यह सब शिव के उत्तरों में ही समाहित है—बस भाषाएँ और नाम अलग-अलग हैं।
योग का ब्राह्मणीकरण और पतंजलि का योगदान
बाद में योग का ब्राह्मणधर्मीकरण हुआ। इसे आत्मा और परमात्मा के जोड़ की कठिन अवधारणा से जोड़ दिया गया, जिससे यह सामान्य जन और स्त्रियों की पहुँच से दूर हो गया। पतंजलि ने योग को एक व्यवस्थित प्रणाली दी और कहा—"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः", अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है। किंतु यह आदर्श अब तक किसी ऐतिहासिक व्यक्ति में पूरी तरह घटित नहीं दिखता।
हालाँकि पतंजलि ने योग को केवल साधना तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे स्वास्थ्य और चिकित्सा से भी जोड़ा। यही शिवयोग की प्रारंभिक भावना थी—शरीर के माध्यम से आत्मा की यात्रा।
बौद्ध परंपरा और योग का सार्वभौमिकरण
पद्मसंभव के माध्यम से योग बौद्ध धर्म का शक्तिशाली औजार बन गया। बौद्धों में अजपा जप की विधि और षडंग योग (प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, अनुस्मृति, समाधि) का विस्तार हुआ। यहाँ योग 'ध्यान' और 'करुणा' के साथ गहराई से जुड़ गया। इस काल में योग अपने रूप में अधिक मनोवैज्ञानिक और आंतरिक हो गया।
वर्तमान में योग: योगा का उदय
आज जिस योग की बात हो रही है, वह 'योगः' या 'योग' नहीं, बल्कि योगा है। इसका मूल उद्देश्य है—शरीर को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखना। यह योग की 'पूर्वक्रिया' भर है, जिसे अधिकतर शहरी, सुविधाभोगी वर्ग अपनाता है। किसान, मजदूर, या ग्रामीण जनता का जीवन अपने आप में ही 'योगमय' रहा है—क्योंकि उनके दैनिक श्रम में ही योग के सारे आसन समाहित होते हैं।
इसी प्रवृत्ति का लाभ बाबा रामदेव ने उठाया। जैसे-जैसे देश में मध्यमवर्गीय आरामतलब जीवनशैली का विस्तार हुआ, वैसे-वैसे योगा की मांग भी बढ़ी।
राजनीतिकरण और विवाद की जड़
आज योग एक राजनीतिक विमर्श बन गया है। दक्षिणपंथी इसे अपनी सांस्कृतिक विरासत घोषित करते हैं, तो वामपंथी और कुछ मुस्लिम समूह इसे हिन्दुत्व के एजेंडे के रूप में देख रहे हैं। यह विवाद कहीं न कहीं सत्ता और विपक्ष की खींचतान से भी जुड़ा है।
विपक्ष को इस बात का अफसोस है कि वे इस सांस्कृतिक पूंजी को वैश्विक स्तर पर प्रस्तुत करने में विफल रहे। सत्ता पक्ष इसे भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में स्थापित कर रहा है। परिणामस्वरूप, योग का यह स्वरूप—योगा—आत्मबोध की बजाय सत्ता-बोध का माध्यम बन गया है।
उपसंहार: योग की ओर एक संतुलित दृष्टि
योग किसी एक धर्म, जाति या पंथ की बपौती नहीं है। यह मानव-चेतना की सार्वभौमिक साधना है—जो शरीर से शुरू होकर आत्मा तक पहुँचती है। इसे राजनीतिक, धार्मिक और सांप्रदायिक सीमाओं से ऊपर उठकर देखने की आवश्यकता है। यदि भारत योग को अपनी चिंतन-परंपरा के रूप में विश्वपटल पर प्रतिष्ठित कर पा रहा है, तो यह स्वागत योग्य है—परंतु यह भी आवश्यक है कि हम ‘योगा’ से आगे बढ़कर ‘योगः’ की ओर लौटें।
(*लेखक आयुर्वेद चिकित्सक,विचारक,लोक अध्येता,कथाकर,कवि व ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के मुख्य संपादक हैं।)
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