1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद से इंजीनियरिंग शिक्षा में एक नया मोड़ आया। निजी क्षेत्र को तकनीकी शिक्षा में प्रवेश की अनुमति दी गई और AICTE ने बड़ी संख्या में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को मान्यता देना शुरू किया। 2000 से 2010 के बीच देश में हर वर्ष सैकड़ों नए इंजीनियरिंग कॉलेज खुलने लगे। जहाँ 2000 में लगभग 1,500 इंजीनियरिंग कॉलेज थे, वहीं 2010 तक यह संख्या 3,500 से अधिक हो गई। इसी अवधि में हर वर्ष 10 लाख से अधिक इंजीनियरिंग स्नातक देश से निकलने लगे।
भारत में इंजीनियरिंग शिक्षा का विकास एक लंबी और ऐतिहासिक प्रक्रिया रही है, जिसकी शुरुआत ब्रिटिश शासन काल में हुई। वर्ष 1847 में थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग, रुड़की (वर्तमान में IIT रुड़की) की स्थापना इस दिशा में प्रथम प्रयास थी। इसके बाद 1856 में कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पुणे तथा 1919 में बनारस इंजीनियरिंग कॉलेज (अब IIT BHU) की स्थापना हुई। उस समय इंजीनियरिंग शिक्षा मुख्यतः सिविल, मैकेनिकल और रेलवे निर्माण जैसे क्षेत्रों के लिए केंद्रित थी।
स्वतंत्रता के
पश्चात भारत सरकार ने तकनीकी शिक्षा को महत्व देते हुए IITs और NITs जैसे संस्थानों की स्थापना की। 1951 में IIT खड़गपुर की नींव
रखी गई। 1960–70 के दशक में कई
और IITs, क्षेत्रीय
इंजीनियरिंग कॉलेज (अब NITs) और
राज्य स्तरीय इंजीनियरिंग संस्थान अस्तित्व में आए। इस काल में इंजीनियरिंग शिक्षा
सीमित, नियंत्रित और
गुणवत्तापूर्ण थी। इनमें प्रवेश कठिन परीक्षाओं के माध्यम से होता था, जिससे देश को योग्य इंजीनियर प्राप्त होते
थे। उस समय केवल वही विद्यार्थी इस क्षेत्र में आते थे जो वास्तव में इसके लिए
उपयुक्त और समर्पित होते थे।
उदारीकरण और
शिक्षा का विस्फोट
1991 के आर्थिक
उदारीकरण के बाद से इंजीनियरिंग शिक्षा में एक नया मोड़ आया। निजी क्षेत्र को
तकनीकी शिक्षा में प्रवेश की अनुमति दी गई और AICTE ने बड़ी संख्या में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों को
मान्यता देना शुरू किया। 2000 से 2010 के बीच देश में हर
वर्ष सैकड़ों नए इंजीनियरिंग कॉलेज खुलने लगे। जहाँ 2000 में लगभग 1,500 इंजीनियरिंग कॉलेज थे, वहीं 2010 तक यह संख्या 3,500 से
अधिक हो गई। इसी अवधि में हर वर्ष 10 लाख से अधिक इंजीनियरिंग स्नातक देश से निकलने लगे।
इस तीव्र वृद्धि
का एक बड़ा कारण आईटी और सॉफ्टवेयर उद्योग में आए उछाल को माना जाता है।
इंजीनियरिंग को एक सुरक्षित, प्रतिष्ठित
और उच्च वेतन वाला करियर समझा जाने लगा। अभिभावकों और छात्रों में यह धारणा बन गई
कि इंजीनियरिंग की डिग्री भविष्य की गारंटी है। परिणामस्वरूप, बड़ी संख्या में ऐसे छात्र भी इस क्षेत्र
में प्रवेश करने लगे, जो या तो
इस योग्य नहीं थे या जिनकी रुचि अन्यत्र थी।
बेरोजगारी और
गुणवत्ता की गिरावट
संख्या की यह अंधी
दौड़ गुणवत्ता पर भारी पड़ी। इंजीनियरिंग शिक्षा की बढ़ती आपूर्ति के अनुपात में
बाज़ार में मांग नहीं थी। परिणामस्वरूप, बड़ी संख्या में स्नातक बेरोजगार रह गए। AICTE की रिपोर्टों के अनुसार, हर वर्ष निकलने वाले इंजीनियरिंग स्नातकों में से
केवल 40% से 50% को ही प्रत्यक्ष रोजगार मिल पाता है। इसका
अर्थ है कि हर वर्ष लगभग 4–6 लाख
इंजीनियरिंग ग्रैजुएट्स बेरोजगार रह जाते हैं या उन्हें उनके क्षेत्र से बाहर के
कम वेतन वाले कार्य करने पड़ते हैं।
2019 की Aspiring Minds Report बताती है कि केवल 3.5% इंजीनियरिंग
स्नातक ही सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी के लिए पूरी तरह उपयुक्त पाए गए। लगभग 80%
इंजीनियरिंग ग्रैजुएट्स को उनके
अध्ययन के अनुरूप नौकरियाँ नहीं मिल पातीं। NASSCOM
और अन्य रिपोर्ट्स बार-बार “स्किल
गैप” की बात करती हैं —
यानी डिग्री तो है, पर
व्यावसायिक दक्षता का अभाव है।
ग्रामीण और कस्बाई
क्षेत्रों में स्थित निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थिति और भी चिंताजनक है। इन
संस्थानों से स्नातक होने वाले छात्रों में बेरोजगारी का अनुपात अधिक है, जबकि IITs, NITs जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से पढ़े छात्रों को
अपेक्षाकृत बेहतर रोजगार अवसर मिलते हैं।
आर्थिक व
सामाजिक प्रभाव
बेरोजगारी ने
युवाओं को मानसिक, आर्थिक और
सामाजिक दबाव में डाल दिया है। 8–10 लाख रुपये खर्च कर इंजीनियरिंग की डिग्री लेने वाले कई युवा 10 से 15 हजार रुपये मासिक वेतन पर काम करने को विवश हैं। कुछ
तो बी.टेक के बाद बी.एड., बी.टी.सी.
जैसे कोर्स कर प्राइमरी शिक्षक बनते हैं, तो कुछ क्लर्क, लेखपाल,
सींचपाल और यहाँ तक कि सफाईकर्मी की
नौकरियाँ तक करने को मजबूर हो जाते हैं।
इंजीनियरिंग
स्नातक की सामाजिक प्रतिष्ठा, जो कभी अत्यंत उच्च मानी जाती थी, अब धूमिल हो गई है। यह एक बड़ी विडंबना है कि जिसे सबसे प्रतिष्ठित और आधुनिक
शिक्षा माना गया, वही आज सबसे
बड़ी बेरोजगारी और कुशलता हीनता का प्रतीक बन गई है।
निष्कर्ष
भारत में
इंजीनियरिंग शिक्षा का सबसे तीव्र विस्तार 1991 के बाद, विशेषकर 2000–2010 के दशक
में हुआ। परंतु यह वृद्धि प्रायः मात्रात्मक रही, गुणात्मक नहीं। निजी संस्थानों की भरमार और रोजगार
की असमानता ने एक ऐसा संकट उत्पन्न किया, जिसमें हर वर्ष लाखों युवा डिग्रियाँ तो प्राप्त कर रहे हैं, पर उन्हें उपयुक्त रोजगार नहीं मिल पा रहा।
आज आवश्यकता इस
बात की है कि हम इंजीनियरिंग शिक्षा को पुनः गुणवत्ता की ओर मोड़ें, प्रवेश प्रणाली को सख्त बनाएं और उद्योग की
आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रमों को अद्यतन करें। साथ ही, समाज में यह जागरूकता भी फैलाना जरूरी है कि हर
करियर की अपनी महत्ता है — और इंजीनियरिंग ही सफलता का एकमात्र मार्ग नहीं है।
*–मुख्य संपादक, ईस्टर्न साइंटिस्ट जर्नल
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