कुम्भ खत्म हो गया, सरकारी आँकड़ों के अनुसार 40 करोड़ लोगों ने गंगा संगम
में डुबकी लगायी। इस बीच गंगा के प्रदूषित होने की वैज्ञानिक रिपोर्टे आयी तो और
साफ होने की रिपोर्टे भी आयी। लेकिन आइये ठंडे दिमाग से सोचें की एक नगर का अपशिष्ट
यदि नदियों के जल को प्रदूषित कर सकता है करोड़ो लोगों का स्नान भी कर सकता है कि नहीं।
इसके पहले आइये गंगा से जुड़े मिथकों की समझते है।दिनो-दिन नगरीय आबादी बढ़ रही है स्वाभाविक है कि अपशिष्ट जल की मात्रा भी बढ़ रही है। साबुन,डिटर्जेनट,आदि अनेक रसायन भी अपशिष्ट के साथ गंगा में बह रहा है। नदियों के किनारे जंगल खत्म हो रहे है। ऐसी स्थिति में नदियों का अमृत जल बिष में बदल रहा है,पर भारतीय जन स्वार्थी आस्थावान है, अपने पाप धोने मुक्ति पाने के लिए नदियों डुबकी लगा रहा पर यह नहीं सोच पा रहा है नदिया स्वस्थ कैसे रहे,जिन्दा कैसे बचे ?
भारतीय जनजीवन में गंगा इस तरह समायी हुई है कि गंगा के बिना भारतीयता अधूरी रह जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के कमंडल से निकल कर विष्णु के चरणों का स्पर्श करते हुए शिव की जटा में आबद्ध हो जाती है।जिसमें भगीरथ के कठोर श्रम से धरती को उपलब्ध होती है यह नदी।इस कथा का निहितार्थ यह है कि गंगा का जल आरम्भ में सतो गुणी, विष्णु स्पर्श का तात्पर्य रजोगुण होकर शिव की जटा मे लिपट कर तमो गुण को धारण करती है। आयुर्वेद की दृष्टि में सतोगुण कफ प्रकृति,सतोगुण पित्त प्रकृति तमो गुण वात प्रकृति है।अर्थात तीनों प्रकृतियों धारण कर गंगा मनुष्य के लिए उपलब्ध है।इसी लिए गंगा मनुष्य के जीवन से मृत्यु पर्यन्त गहराई से जुड़ी हुई है।
इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जब हिम तरल होकर
जल के रूप में प्रवाहित होता है तो कफ प्रधान होता है।अनेक पत्थरो, खनिजों, वनौषधियों से टकराकर पित्त प्रधान,तथा धरती पर मिट्टी से सम्पर्क और उँचाई से तेज प्रवाह के कारण वात प्रधान
हो जाता है।इस प्रकार जैसै गंगा आगे बढ़ती है स्थानिक गुण धारण करती जाती है।इसी
लिए भारतीय संस्कृति का विकास गंगा के तट पर गंगा के गुणधारक प्रवृति के अनुसार
दिखता है। भारतीय संस्कृति को भी एक सीमा रेखा में नही बाँधा जा सकता है।वह भी
स्थानिक, समकालित गुणों को धारण करने की अद्भुत क्षमता रखती
है।
भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी गंगा की ही तरह
ब्रह्मा से उत्पन्न होकर विष्णु के राजस चरित्र इन्द्र के पास आकर शिवचरित्र
अश्वनिकुमार के पार पहुँचता है।जो भगीरथ रुपी महर्षि चरकादि ऋषियो के माध्यम से
धरती पर मानव कल्याणर्थ पहुँचता है।ऐसे मे भला आयुर्वेद गंगा से अछूता कैसे रह
सकता है जब दोनो की उत्त्पत्ति और गति एक ही जैसे है।आयुर्वेद रूपी गंगा के भगीरथ
महर्षि चरक कहते है कि (हिमवस्प्रभा पथ्या.......)हिमालय से निकलने वाली नदियों का
जल पथ्य होता है अर्थात स्वास्थ्य रक्षक होता है। इसी विचार को आचार्य वाग्भट्ट
तर्क के साथ लिखते है कि हिमालय से निकलने वाली नदियों जिनका जल पत्थरों विभिन्न
प्रकार लवणयुक्त चट्टानों से टकरा कर औषधिगुण युक्त हो जाता है।इस क्रम में अन्य
आचार्यो का कथन है कि तीव्र प्रवाही नदियों का जल स्वास्थ्यकर,मंद प्रवाही नदियों का जल अस्वाथ्यकारी होता है।अर्थात गंगा का तीव्र
प्रवाह हरिद्वार तक रहता है जो औषधि अमृत स्वरूप है।इलाहाबाद,वाराणसी तक आते-आते स्नान योग्य होता जाता है।इसी लिए काशी का जल संग्रह व
पीने से वर्जित किया गया गया है। फिर भी गंगा त्रिगुण को गंगासागर तक कमोबेस बनाये
रखती है।इस सदा पवित्रा और मोक्षद्यिनी है।
गंगा जल के गुण के विषय मे भण्डारकर औरिएण्टल इंस्टीट्यूट पुणे की एक हस्तलिखित प्रतिलिपि के अनुसार गंगाजल पहचान यह है कि यह श्वेत,सुस्वादु,स्वच्छ,रुचिकर,दीपन(भूख को बढाने वाला),मेध्य(बुद्धि वर्धक,अग्निवर्धक,पथ्यकर होता है।इन गुणों का कारण यह हैकि यह शिलाजित,गंधक,आदि तत्वों,वनौषधियों से होकर तीव्रगति से गुजरती है जिससे उनके सूक्ष्माँशो को धारण किये रहती है।इस जल में आक्सीजन,नाइट्रोजन,की पर्याप्त व संतुलित मात्रा रहती है।इस कारण इसमें अन्य जान्तव न होने के कारण इसमे सड़ने की प्रक्रिया नही होती है।इसे लम्बे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।इसी लिए प्राचीन व मध्यकाल के इतिहास में बहुत से शासकों व तपस्वीयों का जीवन गंगा जल पान पर ही निर्भर होने का उल्लेख मिलता है। इसका उल्लेख इलबतूता (1325—54) ने अपनी यात्रा वृतांत मिलता है।यहाँ तक कि अकबर और औरंजेब जैसे शासको को भी गंगाजल पीने का उल्लेख मिलता है।
पर दुखद यह रहा कि अंग्रेजी शासकों और उन्हीं नीतिगामी भारतीय सरकारों ने गंगाजल को अमृत के बजाय मात्र जल संसाधन समझा और उसका उपयोग बाँध, बाँध कर बिजली बनाने और औद्योगिक, नगरीय अपशिष्ट प्रवाहित करने का सहज सुगम माध्यम बना दिया । दिनों-दिन नगरीय आबादी बढ़ रही है स्वाभाविक है कि अपशिष्ट जल की मात्रा भी बढ़ रही है। साबुन,डिटर्जेनट,आदि अनेक रसायन भी अपशिष्ट के साथ गंगा में बह रहा है।
नदियों के किनारे
जंगल खत्म हो रहे है। ऐसी स्थिति में नदियों का अमृत जल बिष में बदल रहा है,पर भारतीय
जन स्वार्थी आस्थावान है, अपने पाप धोने मुक्ति पाने के लिए नदियों डुबकी लगा रहा है पर यह नहीं सोच पा रहा है नदिया स्वच्छ स्वस्थ व जिन्दा कैसे बचे ?
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