डॉ.दुष्यंत कुमार शाह*
भारतीय संस्कृति में होली एक ऐसा त्यौहार है,जो उत्तर भारत से निकलकर विविध नामों से पूरे दक्षिण एशिया में मनाया जाता है। प्राचीन काल में मूलतः यह ऋतु परिवर्तन, पर्यावरण,स्वास्थ्य और कृषि पर आधारित त्यौहार था,परन्तु कालान्तर में अनेक आंचलिक कथायें, किंवदंतियाँ जुड़ने के कारण इसका मौलिक प्राकृतिक स्वरुप खो गया ।
सभ्यता के आरम्भिक काल में जब कालगणना का विकास नहीं हुआ था,तब फसल चक्र से ही वर्ष की गणना होती थी। बरसात की शुरु होने पर अषाढ़ मास में कृषि सत्र शुरु होता था. जिसका अंत रबी की फसल कटने पर फागुन में होता था। फसल कटने की खुशी में यह पर्व मनाया जाता था। उस समय इसके लिए कोई दिन निश्चित नहीं था,जब भी जौ,चना की फसल के दाने अधपके हो जाते थे,तभी यह पर्व मनाया जाता था। अधपके दानों को आज होरहा कहते है,जिसके लिए वैदिक साहित्य में होला शब्द आया है। यही से इस पर्व होली हो गया । पंजाब में आज भी होला मोहल्ला के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। त्यौहार मनाने की यह विधि आज भी आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित है,जैस झारखण्ड में नया वर्ष सरहुल किसी निश्चित दिन नहीं मनाया जाता है,जब भी सरहुल नामक पेड़ में फूल आते है तभी सरहुल पर्व मनाया जाता है। इसी तरह मिजोरम में जब धान कटता है तब पवालकूट नामक पर्व मनाया जाता है। इस तरह होली या फगुआ प्रकृति के साथ एकाकार होने का त्यौहार है ।आगे चल कर जैसै मानव सभ्यता और बुद्धि का विकास हुआ,मौसम,ऋतुओं की पहचान और नामकरण हुआ तब बसंत के शिखर का पर्व बन गया होली। सभ्यता के विकास क्रम में प्रतिक्षण बदलते प्रकृति के स्वभाव की पहचान के लिए
ज्योतिर्विद्या का विकास हुआ,ऋषियों को
यह पता चला कि पृथ्वी पर प्रकृति के बदलाव का कारण आकाश मंडल में सूर्य, चन्द्र, ग्रह,नक्षत्रों
और धरती की गति है, जिसकी पहचान के लिए दिन,पक्ष,महीनों,ऋतुओं,अयन और वर्ष का
निर्धारण हुआ तब से होली ही नहीं सारे त्यौहार के लिए दिन निश्चित हो गया। त्यौहार
को पर्व कहा गया है,पर्व का तात्पर्य जोड़ या संधि है,अर्थात मौसम,ऋतुओं के
संधिकाल पर ही पर्व निश्चित किये है। वास्तव यह परिवर्तन शीत-ताप का परिवर्तन
है,जिसके कारण है धरती पर जीवन संभव है।
अब आइये,देखते है ज्योतिष कालगणना में
कैसे होली का निर्धारण हुआ। भारतीय कालगणना विधि संवत् पंचांग कहलाता है जो
प्रकृति के क्षण-क्षण बदलते स्वरूप के तादात्म स्थापित करने का प्राचीनतम् विज्ञान
है। भारतीय संस्कृति में मुख्यतः दो कलैण्डर प्रचलित है,एक
सौर्य कलैण्डर दूसरा चन्द्र कलैण्डर ।
सौर्य कलैण्डर की गणना सूर्य को केन्द्र
मान की जाती है,इसके बारह महीनों की गणना मेष,वृष
आदि राशियों के अनुसार की जाती है,पृथ्वी सूर्य के
परिक्रमण में बारह तारा मंडलों से गुजरती है। इस गति में एक तारा मंडल(राशि) को
पार करने में लगभग 30 दिन के लगता है,यही एक मास कहलाता है,इस
राशि के नाम पर उस मास का नामकरण किया गया है। इसके अनुसार मेष संक्रांति से वर्ष
का आरम्भ होता है।
इसी प्रकार चन्द्र कलैंडर में चन्द्रमा
और नक्षत्रों को केन्द्र में रख कर गणना की जाती है इसका आधार चन्द्रमा का
परिक्रमण मार्ग है, जो सूक्ष्मता के साथ प्रकृति के क्षण-क्षण परिवर्तनों की पहचान
करने सक्षम है। क्योंकि पृथ्वी के दिन-रात व ऋतुओं को कारण चन्द्रमा ही है। इसी
लिए बिना किसी यंत्र के जाड़ा-गर्मी-बरसात मौसम और ग्रीष्मादि ऋतुओं का निर्धारण संभव
होता है। हालाँकि कालगणना नहीं थी तब भी ऋतुओं थी,मौसम थे, परन्तु उसका निर्धारण
नहीं था ।
सौर्य जैसे ही चन्द्र कालगणना में भी
पूरे प्रकृति परिवर्तन चक्र को 12 भागों में विभाजित किया गया जिन्हें मास करते है,
इस विधि में सूर्य-चन्द्र और पृथ्वी की गति को देखा जाता है। चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए एक नक्षत्र के
परिक्षेत्र में 14 से 16 दिन रहता है। इसे अर्धमास या मास पक्ष कहते है,पन्द्रह
दिन सूर्य के परोक्ष और पन्द्रह दिन अपरोक्ष रहता है,उसे
शुक्ल और कृष्ण पक्ष कहा जाता है। उस क्रम में चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के
सापेक्ष एक 365 दिनों में 27 नक्षत्रों से गुजर जाता है। इस तरह मुख्य रूप से दो
से ढाई नक्षत्रों से गुजरने का समय एक मास कहलाता है। पूर्णिमा के दिन जिस नक्षत्र
में चन्द्रमा होता है,उसी नक्षत्र के नाम पर मास का नामकरण
किया गया है। अर्थात वर्ष की प्रथम पूर्णिमा चित्रा में होने के कारण प्रथम मास
चैत्र कहलाता है। इस क्रम में विशाखा में वैशाख,ज्येष्ठा
में जेष्ठ ,उत्तराषाढ़ से अषाढ़,
श्रावणी से श्रावण, उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद,
अश्वनी से आश्विन,कृतिका से कार्तिक,
पूषा से पौष, मघा से माघ,उत्तरा
फाल्गुनी से फाल्गुन मास का नामकरण हुआ है। इस प्रकार वर्ष की अंतिम पूर्णिमा
उत्तरा फाल्गुनी की होती है इसलिए यह महीना
फाल्गुन कहलाता है। इस परिक्रमण काल में पृथ्वी का तापक्रम और नमी का क्रम बदलता
रहता है, यह उन नक्षत्रों के प्रभाव के कारण
होता है। इसी कारण ऋतुएं भी बदलती रहती हैं । यहाँ प्रसंगवश फाल्गुनी नक्षत्र के
स्वभाव और पृथ्वी के वातावरण पर प्रभाव की चर्चा करते है।
फाल्गुनी दो चन्द्र भवन पूर्वा फाल्गुनी
और उत्तरा फाल्गुनी का नाम है।"शतपथ ब्राम्हण" मे फाल्गुनी दो नक्षत्रों
का वर्णन है। इन्हें अर्जुनी भी कहते है।
इसका उल्लेख ऋग्वेद 18. 20. 13 में भी है।
फाल्गुनी का शाब्दिक भाव को देखा जाय तो
संस्कृत में फाल्गु का तात्पर्य पित्ताभ लाल होता है। पूर्वाफाल्गुनी राशि चक्र मे
133।20 से 146।40 अंश का विस्तार क्षेत्र
पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र कहलाता है।
फाल्गुनी नक्षत्र का देवता भग नामक
सूर्य है। स्वामी ग्रह शुक्र, राशि सिंह 13।20 से
26।40 अंश। यह भारतीय खगोल का 11 वाँ उग्र
संज्ञक नक्षत्र है। इसके केवल दो तारे है। इनकी अवस्थिति से प्रतीत होता है कि
उद्यान में बेंच या मंच है। इसे "भगदेवत" भी कहते है।
उत्तरा फाल्गुनी -राशि चक्र मे 146।40
से 160।00 अंश विस्तार का क्षेत्र उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है। इसके देवता अर्यमा
दूसरे आदित्य है। ये संरक्षण, सहायता,
अनुग्रह, स्नेह के देवता है।
इस लक्षणा पूर्ण वर्णन से स्पष्ट हो
जाता है,कि फाल्गुनी नक्षत्र से प्रभावित
फाल्गुन मास के सूर्य की रक्तपित्ताभ किरणें पृथ्वी को भी लाल-पीले रंग में रंग
देती हैं,इस समय का तापक्रम वनस्पतियों व जीवों
के लिए सुखद और सर्जनात्मक होता है। प्रकृति सृजन शक्ति अर्थात काम ऊर्जा से भरी
होती है। पृथ्वी का वातावरण सौन्दर्य के शिखर पर होता है। जो भुक्त न होने के कारण
दैहिक,मानसिक विकारों का कारण बन सकती है,जिसके
विरेचन के लिए इस मास में आनन्द की मौखिक अभिव्यक्ति को उश्रृंखलता के स्तर तक
गीत-संगीत,शब्द-अपशब्द तक ले जाने की परम्परा
विकसित हुई होगी।
इस संदर्भ को भारतीय आयुर्विज्ञान
आयुर्वेद की दृष्टि से शरद,शिशिर ऋतु में संचित
कफ बसंत ऋतु में उत्तरायण के बढ़ते तापक्रम के कारण तरल होने लगता है, जो
प्रकुपित होकर ज्वरादि रोग उत्पन्न करता है। इससे बचने के लिए वमन-विरेचन आदि शोधन
प्रयोग के पश्चात कच्चे भूने हुए चना,गेहूँ,जौ
आदि के सेवन का प्रावधान बताया गया है, जो होली को प्रकृति के साथ देह का सामंजस्य
स्थापित करने का पर्व सिद्ध करता है। देह के शोधन के वमन,विरेचन का उपाय बताया गया
है,पर मन की ग्रंथियों, कुंठा, जुगुप्त्सा के वमन-विरेचन के लिए होली पर्व के
उन्मुक्त, उश्रृंखल व्यवहार की परम्परा विकसित हुई
होगी। बंध-प्रतिबंध से मुक्त होकर सहज स्वभाविक प्राकृत हो जाने का अवसर होता है। थोपा
हुआ शिष्टाचार मिट जाता है। यह पर्व शरीर और मन को निर्भार कर देता है,आज
प्रतिस्पर्धात्मक युग तनाव,कुंठा के युग में ऐसा
त्यौहार अति आवश्यक हो गया है। नव नूतन प्रकृति के साथ एक होने का यह उत्सव मौलिक
रुप में फाल्गुन या वसंतोत्सव है।
कृषि विज्ञान के दृष्टि से इस पर्व पर
का एक वर्ष चक्र पूर्ण हो जाता है। कालगणना का भी एक चक्र पूर्ण होता है,ऐसे
में गुजरते साल और कृषि चक्र के पूर्णता का उत्सव प्रकृति रंगीनगीं के साथ हो लेने
का आदिकालीन त्यौहार है। ये तथ्य इस पर्व मौलिक रूप से फगुआ पर्व ही सिद्ध करते है,जो
भोजपुरी जनमानस आज भी मौलिक रुप से जीवित है। जो समय-समय पर विविध ऐतिहासिक घटनाओं,कथाओं
से साथ अपना अर्थ व नाम बदलने के बावजूद अपने मौलिक स्वरूप को बनाये हुए है।
आज भी गाँवो में होली नहीं संवत (सम्हत) ही जलाने की परम्परा है। जिसमे वंसतपंचमी के दिन एक हरे बाँस या एरंड के पेड़ मे तीसी-जौ का पौधा बाँधकर का पान सुपारी के साथ पूजन करके जमीन में गाड़ दिया जाता है। इसी दिन से फगुआ गीत गायन शुरु हो जाता है। यह क्रम संवत् के अंतिम दिन पूर्णिमा को जलाने तक चलता है। इसके दूसरे दिन यह उत्सव अपने शिखर पर पहुँच जाता है।इन गीतो में मौसम व प्रकृति का पुट होता है,भोजपुरी संस्कृति का फगुआ जीवन में बहुत गहराई से रचा-बसा है। संवत जलाने का तात्पर्य संवत की समाप्ति है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन नये संवत् की शुरुआत हर्षोल्लास से होली के रूप में मनाया जाता है। आगे चल कर पुराण की एक कथा और जुड़ती है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के दिन ब्रह्मा ने सृष्टि की थी इस लिए नववर्ष मनाने की परम्परा चैत्र के दिन कृष्ण पक्ष बीत के बाद शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन से मनाया जाने लगा,फिर भी प्राचीनतम परम्परा होली या फगुआ के रूप में आज जीवन्त है।
*असि.प्रो. (इतिहास)किरोड़ीमल कालेज,दिल्लीविश्वविद्यालय,दिल्ली
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