असम का प्रमुख त्यौहार बिहु

 

सुबह से लगातार चलते रहने से थकान स्वाभाविक थी,जिससे राहत की कोशिश में स्नान करके आराम करने के मूड में थे हम लोग। पर दीपक के पापा नाथ जी का कुछ और ही प्रोग्राम था । वाशरुम से मेरे निकलते ही बोले-चलिये अब फटाफटा नाश्ता कर लीजिए फिर चलते हैं बिहु मेला ।


नाथजी की मंशानुसार सांध्य मंगलम् नाश्ता कर, बिहु मेले के लिए निकल पड़े हम। बिहु का मुख्य पर्व तो 14 अप्रैल मेष संक्राति के दिन होता है,पर महीनों चलता रहता है। सामाजिक-सांस्कृतिक,नागरिक संस्थायें रात्रि में सार्वजनिक आयोजन करती हैं। हमारे ठहरने के कुछ ही दूर लोटासिल प्लेग्राउण्ड में पान बाजार का सार्वजनिक बिहु आयोजित किया जाता है,इसलिए पैदल ही निकल गये हम। बहुत सारे स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियाँ, बच्चे नूतन पारंपरिक परिधानों में लोटासिल की ओर जा रहे थे। रास्ते में कुछ बड़े घरों की लान में पारिवारिक स्तर पर बिहु चल रहा था। जिसमें बच्चे,युवा, वयस्क,वरिष्ठ मस्ती से नाच रहे थे। देखकर लग रहा था असम के रग-रग बसा है बिहु। आखिर बसे भी क्यों नहीं,असमी सभ्यता का आदिम पर्व जो है।

 बिहु का इतिहास आदिम कृषि संस्कृति का इतिहास है। वैसे तो दुनिया के सारे लोक पर्व कृषि से जुड़े पर्व ही हैं। समय के साथ विविध जिनसे आख्यान जुड़ते गये और आज पूरा बाजार जुड़ गया है।

बिहु की शुरुआत कब से हुई इसके बारे में ठीक-ठीक तो किसी को पता नहीं है। फिर भी अध्येताओं द्वारा जानने के कोशिश में शोध होते रहते हैं। मेजबान नाथ जी,काटन कालेज के किसी प्रोफेसर मित्र के हवाले से हमें बिहु के बारे में बताने लगे ।

शहरी इलाकों में इसे बिहु के नाम से जाना जाता है,परन्तु गाँवों में बि-हौ, बिसु, पिसुभी कहते हैं ।असल में यह धान बोने, पकने, कटने का उत्सव है। धान ही असम की मुख्य फसल है,जो साल में तीन बार बोई-काटी जाती है। इसलिए बिहु भी साल में तीन बार14 अप्रैल को मेष संक्रांति पर बोहाग-रोंगोली बिहु,14अक्तूबर को तुला संक्रांति पर काटि या कंगाली बिहु,14 जनवरी को मकर संक्रांति पर माघ या भोगाली बिहु मनाया जाता है।

रोंगोली बिहु से नये साल की शुरुआत होती है,इसलिए यह बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। इस दिन आहू धान का बीज बो कर खेती की शुरुआत की जाती है,शालि धान की रोपाई होती है। एक तरह से देखें तो ग्रीष्म, वर्षा, शरद ऋतुओं का संधिपर्व है बिहु । आदि काल में खेती पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर थी । इसलिए अच्छी वर्षा और उपज की कामना से नाच-गाकर देवताओं को खुश करते हुए धान बोने-काटने की परम्परा से शुरु हुई होगी जो आगे चलकर बिहु पर्व बन गया।

मूलतःयह दिमासा आदिम लोगों का पर्व है,इस इलाके में कृषि की शुरुआत दिमासा आदिम कबीलों से ही मानी जाती है। बिहु दिमासा भाषा का शब्द है,जिसमें ‘बि’ का मतलब पूछना, ‘हु’ का तात्पर्य देना होता है। कुछ लोग बिशु कहते है,जिसमें ‘बि’ का मतलब पूछना और ‘शु’ माने सुख-समृद्धि होता है।

दिमासा लोग नारियल का लड्डू, घिया (चावल) पीठा, तिलपीठा, मच्छी पितिका, बेनगेना खार (केले बने नमक) तथा जड़ी-बूटियों से बने आसव पेय लेकर खेत में पेड़ों के पास जाते हैं । नाचते गाते माँ ब्राई और पिता शिबराई की पूजा करके बिहु की शुरुआत करते है। ब्राई और शिबराई को हम शक्ति-शिव के रुप में भी देख सकते हैं।

नाथजी चलते-बोलते एक पान की दुकान पर रुक गये। मुझे भी कई दिन हो गये थे पान खाये हुए। असम में बनारस-देवरिया जैसा पान नहीं मिलता है। यहाँ बँग्ला पत्ती- मीठा पत्ती दो तरह के पान के मिलते हैं। जर्दा वाला बंग्लापत्ती 15 रुपये,मीठा वाला, मीठा पत्ती 20 का मिलता है। एक पत्ते काट कर दो नहीं बनाये जाते हैं यहाँ । एक पूरी पत्ती पर चून-कत्था सुपारी,जर्दा लगाते हैं,फिर कई तरह के मशाले डालते हैं। मीठा वाले में गड़ी के कतरे,किसमिस,सौंफ आदि डालते हैं,जिसे थूकने की जरूरत नहीं होती है। लेकिन इसे असमिया लोग बहुत कम खाते हैं,जबकि तामुल-पान असमिया कल्चर का अभिन्न अंग है। भोजन-जलपान के बाद मेहमान को तामुल-पान नहीं दिया तो कुछ भी नहीं दिया । असमियाँ लोग सामान्यतःकत्था-चूने के साथ तामुल-पान खाते हैं, तामुल कच्ची सुपारी को कहते हैं।

हाँ तो हम पान के इन्तजार में खड़े-खड़े बिहु पर बात कर रहे थे। जिसे एक स्थानीय व्यक्ति बड़े गौर से सुन रहे थे। पान लेने के बाद हम चलने लगे तो वे भी साथ होकर नाथ जी से असमियाँ में बात करने लगे । अपनी तरफ संकेत देखकर मुझे आभास हो गया कि शायद वे हमारे बारे में पूछ रहे हैं।

मेरा परिचय जानने के बाद मुझे संबोधित करते हुए बोले-सर!मैं दिनेश्वर बोरो,दोस्त हूँ नाथ जी का, पिछले साल असम पुलिस से एक साथ रिटायर हुए हैं हम । सर! दुकान पर आपकी बात सुनकर मुझे खुशी हुई कि आप बिहु के बारे में जितना डीपली जानना चाहते हैं,उतना असमी लोग भी नहीं जानना चाहते हैं। नई पीढ़ी तो अब डीजे पर म्यूजिक बजा कर नाचने को ही बिहु समझने लगी है। लेकिन सर! गाँवों में आज भी शुद्धो बिहु मनाते हैं लोग।

असल में बिहु हम बोडो-दिमासा लोगों का कृषि परब है,जो एग्रीकल्चर के विस्तार के साथ हमारे कबीले से निकल कर, ब्रह्मपुत्र की पानी की तरह सभी कुल कबीलों,जाति, धरम के तटबंध तोड़ते हुए असमिया सांस्कृतिक प्रतीक बन गया,इसकी शुरुआत को लेकर कई कथायें हैं।

सबसे पुरानी कथा हम बोडो लोगों की है। जिसमें एक खूबसूरत बोडो बेटी बोर्डोइशिला थी। जिसकी खूबसूरती पर मोहित एक देवता ब्याह कर उसे स्वर्ग लेकर चला गया। बोर्डोइशिला अपने माँ से मिलने के लिए धरती पर आना चाहती थी,पर उसका देवता पति एक क्षण के लिए भी छोड़ने को राजी नहीं था। फिर धरती पर बसंत आया,जंगलों में रंग-बिरंगी फूल खिले,धरती का सौन्दर्य बोर्डोइशिला को खींच लाया। अपनी माँ से मिलने की जिद् में आँधी-तूफान बन,स्वर्ग से इसी दिन धरती पर उतर आयी। लोगों को पता नहीं था,इसलिए आँधी-तूफान से काफी नुकसान हुआ,जिसे देख कर वह भी रोने लगी। फिर उसे खुश करने के लिए नाच गाकर लोगो ने पकवान खिलाया । तभी से ऐसा माना जाता है कि हर साल बोर्डोइशिला इस दिन धरती पर उतरती है। जिसके स्वागत में बिहु मनाया जाता है।

एक अन्य मिथक में रूप-जानकला की प्रेम कहानी से बिहु की शुरुआत हुई। रूप केगीत-संगीत पर जानकला ने ऐसा नृत्य किया कि सम्मोहित मेघदेव बरसने लगे । फसल अच्छी हुई। इसी परम्परा में नाच-गाकर यह त्यौहार मनाया जाने लगा।

एक मिथक दो दोस्तो लखिंदा-कोचोपटी का भी है,जो आवारा-नीच समझे जाते थे।अपमान से तंग आकर दोनों ने मेहनत कर गर्मी में भी धान उगाया,फिर चमत्कृत समाज उन्हें सम्मान देने लगा । इस तरह बिहु को लेकर विविध कबीलों की अपनी-अपनी कथायें हैं। आगे चलकर जब इधर सनातनी लोगों का प्रभाव बढ़ा तो ब्रह्म,विष्णु, शिव,नारद, विश्वकर्मा,कृष्ण आदि के मिथक गढ़ लिये गये। जिसके अनुसार कलयुग आने पर देवता इसी दिन धरती छोड़कर स्वर्ग चले गये,पर अपना वाद्ययंत्र यही छोड़ गये। उसी की याद में उनके वाद्ययंत्रों का उत्सव मनाया जाता है। इस तरह धरती,नदी, पहाड़,पेड़,पशु,देवता,स्वर्ग आदि बिहु के मिथकों, गीतों में समाते चले गये।

आलूही सर (अतिथि सर)! सारे मिथकों-कथाओं के मूल में प्रकृति से जुड़ा परबो हैं यह । प्रेम संगीत का उत्सव है बिहु,जिसकी झलक इस बिहु गीत में मिलेगी आपको-

प्रथमे ईश्वरे सृष्टि सरजिले, तार पासत सरजिले जीव

तेनेजन ईश्वरे पीरिति करिले, आमि बा नकरिम किय....”

ईश्वर ने पहले सृष्टि बनाया,फिर जीव बनाया,उसे प्रेम किया, फिर हम क्यों न प्रेम करे...।

अब तो आप समझ ही गये होगें कि विशुद्ध प्रेम का परबो है बिहु। इसीलिए युवाओं का त्यौहार भी कहा जाता है,क्योंकि उन्मुक्त होकर नाचने-गाने का अवसर होता है यह। पहले बंगाल और पश्चिम से आये लोग इसे आदिम लोगों का अश्लील परबो मानते थे,क्योंकि कभी-कभी गीतों और देह की भाव भंगिमायें सौन्दर्य-प्रेम के शिखर पर पहुँच जाती हैं। इसलिए वे उन्मुक्त असभ्यता मानते थे। अपनी बेटियों-स्त्रियों को दूर रखते थे इस परबो से। लेकिन जब पाल राजाओं ने राजकीय तौर बिहु मनाना शुरु किया,तो वे लोग भी इस उत्सव में शामिल हो गये । संत शंकरदेव के वैष्णव आंदोलन ने इसे राधा-कृष्ण के रास से जोड़ दिया। वैष्णव लोग बिहु की शुरुआत नामघर से करते है। बिहु का असल विस्तार कोच-अहोम काल में हुआ,जब अहोम राजदरबार में बिहु का प्रवेश हो गया । इधर आने के बाद मुगलों ने भी बिहु को होली की तरह अपनाया । अंग्रेजी राज,आजादी की लड़ाई, गाँधी,नेहरु सभी से बिहु प्रभावित हुआ। प्रेम के गीत संघर्ष के गीतों में बदल गये। सभी युगों में जनता अपने दुख-सुख,बाढ़, सूखा, संघर्ष, प्रेम-विछोह को बिहु गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करती रही है। डिजिटल युग ने बिहु गीत-संस्कृति का स्वरूप ही बदल दिया है ।आज लोग हैपी बिहु बोलने लगे हैं,पर अब बिहु विश्व पटल पर देखा-सुना जा रहा है। होटल,क्लब,कार्पोरेट्स द्वारा लक्जरी आयो-

-जन होने लगे हैं। बिहुरानी (क्वीन), बिहु कुँवोरी (बिहुब्यूटी)जैसे आवार्ड दिये जाने लगे हैं। बिहु कोरियोग्राफी, डांस,म्यूजिक को लोग पेशे के रुप में अपनाने लगे हैं,बिहु स्कूल भी खुल चुके हैं। यू-ट्यूब,इंस्टाग्राम जैसे सोसल मीडिया की वजह से बहुत लोगों का रोजगार-व्यवसाय बन गया है बिहु । जुबीन गर्ग, मानस रॉबिन, कृष्णामोनी चुटिया, मौसम गोगोई,भीताली दास, खगेन गोगोई, बिपुल चुटिया, फुकोन बिहु के लोकप्रिय कलाकार हैं,जो बिहु से दुनिया में शोहरत और समृद्धि पाये हैं।

यूँ ही बतकही में लोटासिल प्लेग्राउण्ड पहुँचकर, फूलों-गुब्बारों से सजे द्वार से हम मेले में प्रवेश कर गये। जहाँ चाट,आइसक्रीम,गुब्बारों,खिलौनों,पान की दुकानों पर मेलहे लगे थे। कुछ युवक-युवतियाँ निःशुल्क पानी पिला रहे थे। बच्चे,युवक-युवतियों, स्त्री-पुरुषों से भरा था प्लेग्राउण्ड । हँसते-बोलते लोग इधर-उधर आ जा रहे थे,सेल्फी लेने की होड़ लगी थी। अद्भुत सम्मोहक छवियाँ सामने से गुजर रहीं थी। भीड़ से गुजरते हुए हम लोटासिल ग्राउण्ड के मध्य एक बड़े वाटर-फायर प्रूफ टेंट हाल में पहुँचे,जहाँ हजारों कुर्सियों पर रंग-बिरंगी पारंपरिक पोशाक में स्त्रियाँ-युवतियाँ,युवक,पुरुष बैठे थे,अद्भुत दृश्य था ।

मनमोहक क्षणों को मोबाइल में कैद करते स्त्री-पुरुष हाथ,इलेक्ट्रानिक लाइटिंग, साउण्ड सिस्टम,असमिया गमोछे जैसा बैक ग्राउण्ड पर्दा,जिसके दोनो किनारों पर सुपारी-केले के पेड़ों की पेंटिग । पर्दे से टंगी जापी,कापो फूलांग(आर्किड फूल माला) अशोक,आम की पत्तियों के वंदनवार से सजा था बिहु प्लोर।

पर्दे से सटे बैठे क्लासिकल,मार्डन वाद्ययंत्रों के साथ कलाकार। दायें कोने में फूलों से सजा डायस,जिस पर बालों में आर्किड फूल लगाये,रेशमी मेखला-चद्दर में एक गोरी, छरहरी युवती मधुर स्वर में जनसमूह को बिहु की शुभकामनायें देती,कार्यक्रम के शुरुआत की घोषणा करती है। फिर ढ़ोल,पेपा(भैंस के सिंग की बाँसुरी),गोगोना(बाँस से बना माउथ आर्गन),टोका(बाँस की डण्डी),बन्ही(बाँसुरी),हुटुली(मिट्टी से बना वाद्य)क्लासिक असमिया वाद्ययंत्र बजने लगते हैं,जिसकी लय पर नाचते हुए, रंगीन धोती,कुर्ते में,सिर पर गमोछा बाँधे युवक फ्लोर पर प्रगट होते हैं। उसके पीछे मुगा रेशम की मेखला चाद्दर में, बालों में कपौ फुल (ऑर्किड),कलाइयों पर गमखारू-मुथी खारू (एक प्रकार की चूड़ियाँ) कमर पर हासोती (छोटा गमोछा)बाँधे, दोनो हाथों को गर्दन पर लगाये,झुकी नृत्यमुद्रा में कटि को आगे-पीछे स्पंदित करती,मुस्कराती किशोरियाँ प्रगट हुई,हाल तालियों से गूँज उठा । एंकरिंग करती युवती के होठ कंपित हुए और गीत के बोल फूट पड़े-

हाओइइइइइइ/ किनु चोइत मोहिया

बोहथ जाकी मारिले ओय / गोसे हड्डी सोले ओय पैट

किनु असोमियार बोहाग बिहु अहिले /उकियाई लोगले माट....

(हाओइइइइइ चैत्र महीने में इधर-उधर हवायें चल रही हैं, पेड़ अपने पत्ते बदल रहे हैं, हम असमिया लोगों की खुशी के लिए बिहु आया है, हमें बुला रहा है।)

कुछ देर में संगीत-गीत नृत्य शिखर पर पहुँचता है,हाल में बैठे-खड़े सभी के सिर पर बिहु सवार हो जाता है,जो जहाँ जैसे है, वहीं उसी मुद्रा में नाचने लगता है।

इस क्रम में आठ-दस साल के बच्चों, युवक-युवतियों की प्रस्तुतियाँ दर्शकों को घंटो झूमने पर विवश कर रहीं थी ।

अभी कार्यक्रम चल ही रहा था,तब तक नन्दलाल को नींद महसूस होने लगी, इसलिए हमें निकलना पड़ा यहाँ से । कुछ ही मिनट में ई रिक्शा हमें होटल पहुँचा दिया। थकावट असर दिखाने लगी,इसलिए बिस्तरे पर गिरते ही सो गये हम ।

मैं नींद में के आगोश में समा चुका था,पर अचानक मुझे लगा कि सामने सोफे पर बैठी

लल्लीम पुई शिकायती लहजे में कह रही है-

असम आकर मिजोरम क्यों नहीं आये सर ?

लल्लीम पुई,वही मिजोरम की आदिम लड़की जो भोजपुरियाँ संस्कृति पर शोध करने तप्पा डोमागढ़ आयी थी-मेरे उपन्यास “रिसर्च इन तप्पा डोमागढ़” की नायिका ।

पुई मुस्कराती हुई कह रही थी-सर! क्यों इतना खो गये हैं बिहु में ? मैंने देखा है आपके भोजपुरी संस्कृति में भी तो सारे पर्व-त्यौहार कृषि और मौसम से जुड़े आदिम लोगों के है। अक्षय तृतीया को धरती की पूजा कर धान का बीज बोते हैं,अषाढ़ में रोपते हैं,कजरी गीतों की लय पर सावन बसरता हैं। भादो में मक्के की बालियाँ निकलती हैं, काली रात में धरती का अँधेरा मिटाने आ जाते है काले कृष्ण। धान की बालियाँ निकल आती है। क्वार की नवरात्रि से मौसम बदलता है,धान पकता है,कटता है नवरात्रि में देवी के रुप आ जाती धरती,देवी गीतो से गूँज उठता है गाँव । धान से ही तो धन शब्द बना है,जो बाजार में बिकता है तो दीवाली मन जाती है किसानों के घर। पिड़िया के गीतों की धुन पर गेहूँ उगने लगता है। कँप कँपाती ठंड से मुक्ति की आश में बन जाती है खिचड़ी। बसंत पंचमी को फूलने लगती है मटर, सरसों, चना,तीसी । शिवरात्रि को प्रकृति-पुरुष मिल जाते है, जिसका मेला आज भी याद है मुझे । पककर सुनहरी हो जाती हैं जब गेंहूँ की बालियाँ तो फिर मादक फगुआ गीतों से गूँज उठते हैं गाँव। वासंतिक नवरात्रि पर वामित माई के देवघड़ की भीड़ याद है मुझे आज भी। जब नये गेंहूँ के आटे से कराही चढ़ती है,घर-घर में,गाँव के सीवान पर,देवघड़ पर पुड़िया महक उठती है।

सर ! दुनिया से सारे पर्व हमारे आदिम पुरखों ने प्रकृति के साथ जीने के लिए पहचाने और निश्चित किये हैं। पर सांस्कृतिक,राजनैतिक संघर्षो और वर्चस्व की कथायें, मिथक गढ़ लिए गये कालक्रम में,अन्यथा बिहु प्रकृति के साथ होने का पर्व है,तो दिवाली होली,चपचार कूट(मिजो पर्व) ओणम,चैती,लोहड़ी भी है प्रकृति के साहचर्य का पर्व । यही तो है विविधता में एकता का सूत्र है इस देश का। जिसकी अनुभूति के लिए व्यापक दृष्टि की जरूरत है सर ।

मेरी आँख खुल गयी,देखा तो कमरे में कोई नहीं था,तब आभास हुआ कि मैं सपने में था। इसके बाद मैं सो नहीं सका,लल्लीम पुई की बातों से मन ग्लानि से भर गया, क्योंकि हम उत्तर भारतीय कथाओं का बोझ लाद कर अपने पर्वो के  नैसर्गिक स्वरूप को नष्ट कर दिये है । आज आधुनिक-विकसित बनने की अंधी दौड़ में पर्वो के लय, आनन्द को बाजार के हवाले कर चुके हैं। आदिम पुरखों की विरासत फगुआ-चैता, कजरी कुछ नहीं गूँजती है अब गाँवों में । धन्य है असम, मिजोरम के प्रकृति पूत जो अपने पुरखों के आदिम पर्वो को आज भी जी रहे हैं,किसी पर्व को युद्ध पर्व में बदलने से बचा लिया है, शास्त्रकारों की कुदृष्टि नहीं पड़ सकी बिहु,चपचार कूट पर ।

(अचल पुलस्तेय की यात्रा कथा- कुरुना से कामाख्या का अंश)

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