आयुर्वेद के पास निर्माण और शोध का व्यापक वैश्विक बाजार है। इसके लिए विज्ञान की अन्य शाखाओं जैसे बायोकेमिस्ट्री, वनस्पति विज्ञान,रसायन विज्ञान,आई.टी.आदि के साथ मिल कर काम किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिए राष्ट्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (CDRI),राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान(NBRI),राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (NCL) एवं विश्वविद्यालयों से साथ आयुर्वेद संस्थानों का समन्वय स्थापित करना होगा। इस अभियान में अनुभव पूर्ण निजी प्रैक्टिस कर रहे एलोपैथी और आयुर्वेद चिकित्सकों को भी शामिल करना चाहिए।
इसके लिए सरकारों को घोषणाओं के बजाय आयुर्वेद के शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों के गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। देश के स्वास्थ्य नीति और बजट में आयुर्वेद की उचित भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
आयुर्वेदिक
रस शास्त्र के संबंध में प्राचीन भारत की एक घटना का उल्लेख मिलता है, जो रस
शास्त्र के महत्व का दर्शाता है।
एक बार मगध साम्राज्य में दुर्भिक्ष का प्रकोप हो गया। वर्षा न होने के कारण फसलें, जड़ी-बूटियाँ और पेड़-पौधे सूख गये। अकाल पड़ गया, भोजन के अभाव में जनता कुपोषण और बीमारियों से त्राहिमाम् करने लगी । तत्कालीन राजा ने इस संकट से उबरने के लिए नालन्दा विश्वविद्यालय में आचार्यों का सम्मेलन बुलाया । सभी आचार्यों ने अपने-अपने विचार रखे। अंत में नागार्जुन नामक आचार्य ने अपना विचार रखते हुए कहा कि - सिंगरफ और हिंगुल से पारा निकला जा सकता है, पारे से स्वर्ण बनाया जा सकता है। स्वर्ण के व्यापार से राजकोष समृद्ध हो होगा, जिससे जनता की सहायता कर कुपोषण से उबारा जा सकता है। स्वर्णभस्म से सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा कर साम्राज्य को दुर्भिक्ष से उबारा जा सकता है। तत्कालीन राजा ने आचार्य नागार्जुन को अवसर दिया, आचार्य के प्रयोग से मगध दरिद्रता और व्याधि से मुक्त होकर पुनः समृद्ध स्वस्थ साम्राज्य बन गया ।
इस सफलता से प्रसन्न राजा ने आचार्य नागार्जुन को नालन्दा विश्वविद्यालय का कुलपति बना दिया। इसके पश्चात आचार्य नागार्जुन की ख्याति पूरे एशिया में फैल गयी।
परन्तु
आज समय बदल गया है, लोकतंत्र है, विश्वविद्यालयों में आचार्य और कुलपति कैसे बनते
हैं, यह सब जानते है, शायद इसी लिए सरकारें किसी समस्या के समाधान के लिए करोड़ों
रुपये देकर विदेशी एजेंसियों को हायर करती हैं।
इस
संदर्भ में आज की स्वास्थ्य नीति को देखा जाये, तो हमारे पास एक आयातित स्वास्थ्य
नीति है। जिसका लाभ जनता के बजाय बहुराष्ट्रीय फार्मा कार्पोरेट्स को होता है।
यह विचित्र विडम्बना है कि स्वास्थ्य नीति चिकित्सा वैज्ञानिकों के बजाय ग्लोबल फार्मा कार्पोरेट्स के अनुसार अफसर बनाते हैं। इसे प्रत्यक्ष रूप से कोरोना महामारी के समय देखने को मिली। जब आयुर्वेद (आयुष) को चिकित्सा कार्य से बाहर कर दिया गया। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ने स्पष्ट तौर पर कह किया की महामारी नियंत्रण में आयुर्वेद का कोई रोल नहीं है। इस अपमान जनक बयान को आयुर्वेद के लोगों ने सहर्ष स्वीकार लिया । महामारी पर बयान देने के लिए चिकित्सकों, प्रोफेसरों, वैज्ञानिकों के बजाय नेताओं, अफसरों को आगे किया था। जो विविधता पूर्ण भारत में विविध चिकित्सा विधाओं का प्रयोग करने के बजाय पाश्चात्य देशों जैसी एक नीति को पूरे देश पर थोप कर, बंटाधार कर दिये।
राष्ट्रीय विविधता और स्वास्थ्य
जबकि
भारत विविध भौगोलिक, सामाजिक,
आर्थिक
स्तर, खान-पान,
जीवन
शैली वाले समूह रहते हैं ।जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में विविधता है, इसलिए कोई
भी दवा एक जैसे प्रभावी नहीं हो सकती है, इसीलिए आयुर्वेद के आचार्यों ने हर
क्षेत्र के अलग-अलग निदान व दवाओं का प्रयोग किया है,उन्हें यह तथ्य पता था कि
प्रकृति-संस्कृति
और स्वास्थ्य का गहरा संबंध होता है। इसलिए आयुर्वेद में स्वास्थ रहने के उपाय और
चिकित्सा विधियों में विविधता मिलती है।
जैसे उत्तर भारत में आयुर्वेद,दक्षिण भारत में सिद्ध,हिमालय की पहाड़ियों में सोवारिंग्पा, आदिवासी क्षेत्रों के गुनिया चिकित्सक स्थानीय संसाधनों से स्वास्थ्य की देख भाल करते रहे हैं।
स्वास्थ्य नीति में कार्पोरेट्स की भूमिका
वर्तमान भारत में पारम्परिक-प्राकृतिक संसाधनों की जीवन शैली के अलावा आर्थिक विकास के दौर में एक शहरी नव मध्य वर्ग समुदाय उदय हुआ है। जो दुनिया के कार्पोरेस्ट्स के लिए भारत को एक बड़ा बाजार बना दिया है। देश की स्वास्थ्य नीति इन्हीं कार्पोर्ट्स के अनुसार तय होती है। स्वास्थ्य बजट का सर्वाधिक हिस्सा इन्हीं पर केन्द्रित होता है। यही कारण है कि प्रति वर्ष इन्सेफेलाईटिस, डायरिया, एनिमिया, मलेरिया, फ्लू आदि महामारियों से आर्थिक सामाजिक परिधि के लोग मरते रहते हैं। कुछ दिन हाय-तौबा के बाद मामला शान्त हो जाता है। अब तो कार्पोरेट्स उत्पादों के कारण ब्लडप्रेशर , हर्ट अटैक, डायबेटिज, फैटी लीवर, ब्रेन हेमरेज भी महामारी बनते जा रहे है। हालत यह होती जा रही है, पहले पैदा करो,बीमारी का भय पैदा करो,फिर वैक्सिन और दवायें बेचो।
इसके
हालात के लिए स्थायी विकल्प पर विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती है। स्वदेशी
चिकित्सा पद्धतियों घोर उपेक्षा की जाती है। जबकि आज भी देश के सत्तर फीसदी लोग
स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों के भरोसे जी रहे हैं।
इन्सेफेलाइटिस पर आयोजित
एक गोष्ठी में एक मित्र चिकित्सक बता रहे थे कि इस महामारी के समय उन्हें सर्वे व
आंकड़ों के सहेजने की जिम्मेदारी निभा रहे थे। पूरे आंकड़े एकत्र करने के बाद
उन्हें महसूस हुआ कि यह रोग उसी क्षेत्र व परिवारों को विशेष रुप से प्रभावित किया
था, जहाँ गरीबी और कुपोषण की समस्या थी।
कुपोषण का मुख्य कारण गरीबी नहीं, प्राकृतिक संसाधानों और जीवन शैली पर कार्पोरेट्स का कब्जा है। जो पहले परम्परागत-प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट करते है, फिर प्राकृतिक जीवन शैली को पिछड़ापन कह कर भ्रष्ट करते हैं। फिर अपना बाजार खड़ा करते हैं। जिसको खरीदने के लिए औकात की जरूरत होती है। जिसकी औकात नहीं होती है वह मरने के लिए अभिशप्त होता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का इतिहास और वर्तमान
अब
देश के स्वास्थ्य नीति की बात करते हैं। स्वतंत्रता के बाद स्वास्थ्य को सामाजिक
दायित्व व समाज कल्याण के रुप में परिभाषित किया गया था। जिसके लिए गठित भोरे
समिति ने 1952 ई. में निम्न संस्तुतियां प्रस्तुत की थी।
1-स्वास्थ्य
सेवायें केवल उपचारात्मक नहीं, बल्कि स्वास्थ्य संरक्षण व संवर्धन के लिए भी होनी
चाहिए।
2-स्वास्थ्य
सेवायें सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए, चाहे वह उसका भुगतान करने में सक्षम हो या
न हो।
3-निकटतम
उपलब्धता होनी चाहिए।
4-सामुदायिक
सहभागिता बढ़ायी जानी चाहिए।
5-वंचित
समूहों जैसे महिलाओं, बच्चों,
सामाजिक,
आर्थिक रूप से वंचित लोगो पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
6-स्वास्थ
मूलतः राज्य का विषय होगा, परन्तु महामारियों और व्यापक दुष्प्रभाव वाले रोगों के
लिए राष्ट्रीय दायित्व होगा। जिसके अन्तर्गत मलेरिया उन्मूलन,
अंधता निवारण, कुष्ठ,
टीबी,
डायरिया, मानसिक रोगों के लिए तथा टीकाकरण कार्यक्रम केन्द्र के अधीन होगा।
भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का यह पहला
ड्राफ्ट था। इसके अन्तर्गत त्रिस्तरीय अस्पतालों की स्थापना की गयी। विशेष अभियानों
के लिए पृथक विभाग बनाये गये। पर संसाधनों के अभाव में यह कार्य बहुत धीमी गति
हुआ। इसके पश्चात 1983
में संसद द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का मसौदा तैयार किया गया। इसी क्रम में 2002
और अब 2017 में राष्ट्रीय
स्वास्थ्य नीतियाँ आती रही। जिसमें
प्रारम्भिक काल की सामुदायिक भागीदारी को वैश्विक स्तर और गुणवत्ता बढ़ाने के बहाने निजी क्षेत्र की
भागीदारी दे दी गयी। जिसका परिणाम आज शोषण और लूट के रूप में आ रहा है।
प्रारम्भिक
स्वास्थ्य नीति से मलेरिया, अंधता,
पोलियो,
डायरिया
आदि अनेक महामारियों पर नियंत्रण पाने में सफलता मिली,परन्तु
आज भी जो देश की 68 प्रतिशत ग्रामीण आबादी तक आधार भूत स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं
पहुँच पायी हैं। इसके विपरीत सम्पन्न वर्ग
के पास अनेक विकल्प हैं । सरकारी क्षेत्र के एम्स,
पीजीआई,
मेडिकल कालेज से लेकर निजी क्षेत्र के वेदान्ता,
फोर्टिज,
एस्कार्ट
आदि फाइव स्टार अस्पताल उपलब्ध है।
चिकित्सा के सारे आयातित संसाधन और तकनीकों को भारत जैसे भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक विविधता पूर्ण बड़ी आबादी वाले देश में सभी जगह पहुँचाना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। बड़ी पूंजी वाला कार्य भी है। इसलिए इस असफल होती नीति के कारण 2002 में सरकार ने स्वास्थ्य जैसे मौलिक अधिकार को निजी क्षेत्र को शामिल कर खुली लूट का रास्ता खोल दिया। 2018 आते-आते सरकार इससे पल्ला झाड़ कर किनारे होने की नीति की ओर बढ़ने लगी। अर्थात 140 करोड़ आबादी के देश का स्वास्थ्य कुछ सम्पन्न लोगों तक सीमित हो कर रह गयी है । अधिसंख्य आबादी चमकी बुखार, इन्सेफेलाईटिस, एनीमिया, पीलिया आदि से मरती रहेगी । इसका कारण स्पष्ट है कि निजी क्षेत्र का मुख्य लक्ष्य मुनाफा होता है,जो उसके मुनाफे के दायरे में आयेगा उसी के लिए काम करेगा, शेष देश के लोग रामभरोशे रहेगे। क्योंकि उनका परम्परागत प्राकृतिक संसाधन भी छीन जा चुका है।
आयुष
की स्वतंत्रता
इधर 2014
में सरकार की ओर से एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया । भारत में प्रचलित पारम्परिक
चिकित्सा पद्धतियों- आयुर्वेद, योग,
यूनानी,
होम्योपैथी,
सिद्धा,
सोवारिंग्पा को एक साथ जोड़कर आयुष सिस्टम
आफ मेडिसिन बना दिया गया ।
हालाँकि आयुर्वेद आदि देशी चिकित्सा
पद्धतियों से स्वतंत्र करने की प्रक्रिया 1995 में ही नरसिंह राव (कांग्रेस) सरकार के समय ही शुरु हो गयी । 1995
में इसे अलग करते हुए
“ Department
of Indian Systems of Medicine & Homoeopathy (ISM&H)” बनाया
गया। इसे आगे बढ़ाते हुए 2003 में वाजपेयी सरकार (भाजपा) ने इसका
इसका
नाम बदलकर “Department of AYUSH” कर
दिया । परन्तु यह विभाग स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW)
के
अंतर्गत ही काम करता था । 2014 में मोदी (भाजपा) सरकार ने स्वतंत्र मंत्रालय का स्वरूप दिया ।
देश
के स्वास्थ्य को लेकर चिंता करने वाले
विचारकों के लिए यह उत्साहित करने वाला कदम था। पर आज पाँच सालों में ही यह उत्साह
ठंडा पड़ गया, क्योंकि आयुष का
प्रचार तो बहुत शानदार ढंग से किया जा रहा है, पर अभी तक न बजट में ठीक हिस्सेदारी
बढ़ी, न राष्ट्रीय भागीदारी मिली है । इसका कारण है यह है कि सरकारी चिकित्सा
विज्ञान की परिभाषा में ये फिट नहीं बैठती है। इसे एक सहायक चिकित्सा विधि की तरह
देखा जाता है। इन पद्धतियों के हजारों साल के अनुभूत संपदा जड़ी-बूटियों को आधुनिक
मानकों पर प्रमाणित कर, एलोपैथी को सौंप दिया जाता है। आश्चर्यजनक तथ्य यह है देश
की 60 प्रतिशत आबादी जिस
चिकित्सा पर निर्भर है उसका आधुनिक मानकों के अनुसार डाटा माँगा जाता है। जबकि ये दवायें हजारों साल से प्रमाणित है।
इनके शिक्षण संस्थानों को उन्नत करने का प्रयास नगण्य है । नीम चढ़ा करेला यह कि स्वदेशी
चिकित्सा विज्ञान के शिक्षण-प्रशिक्षण में भी निजी क्षेत्र को प्रवेश दे दिया गया
है। जिससे बिना प्रायोगिक ज्ञान के आयुष चिकित्सक दोयम दर्जे के एलोपैथिक चिकित्सक
बनने को विवश हैं।
आयुष
की सबसे व्यवस्थित व समृद्ध विधा आयुर्वेद शल्य, रासायनिक औषधियों के प्रयोग,
प्रसव
कराने तक पर कानूनी प्रतिबंध है। परन्तु योग को ऐसे प्रचारित किया जाता है कि सारी
स्वास्थ्य समस्याओं की कुंजी हो,जबकि
देश के कम आय वर्ग, ग्रामीण व श्रमिक आबादी को योगा नहीं पोषण व पौष्टिक भोजन की जरूरत
है।
इस प्रकार अदूरदर्शिता
पूर्ण आयातित स्वास्थ्य नीति के कारण भारत एक बीमार देश बनाता जा रहा है। जिसका
कारण अंधाधुंध विकास का उत्पाद प्रदूषण, प्राकृतिक
संसाधनों की कमी,समृद्ध
वर्ग का असंयम,असमृद्धि वर्ग का
कुपोषण है। समृद्ध वर्ग में जहाँ मधुमेह, हृदय
रोग महामारी का रुप धारण करता जा रहा है. वही असमृद्ध आबादी में त्वचा,
श्वास,
एनीमिया,हड्डियों की कमजोरी,
कैंसर,
टीबी,गुर्दे,
लीवर आदि के रोग महामारी बनते जा रहे हैं। इधर आधुनिक एलोपैथी की दवायें
निष्प्रभावी होती जा रही है। कृत्रिम जीवन शैली के कारण रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती
जा रही है ।
इस हालात में देश के स्वास्थ्य को, स्वदेशी स्वास्थ्य नीति ही बचा सकती है। इसके लिए वर्तमान कानूनों की समीक्षा कर स्वदेशी चिकित्सा विधियों पर विश्वास कर, खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है। इससे अधिक अदूरदर्शिता भला क्या हो सकती है कि पूरे स्वास्थ्य बजट का 10वाँ हिस्सा भी आयुष को नहीं मिलता है।
राष्ट्रीय
स्वास्थ्य बजट में आयुष की हिस्सेदारी
भारत सरकार के आधिकारिक राष्ट्रीय बजट पोर्टल (https:// www.indiabudget.gov.in) के अनुसार वित्त वर्ष 2024 –25 के बजट दस्तावेज़ के अनुसार कुल स्वास्थ्य बजट (MoHFW+ AYUSH + अन्य स्वास्थ्य कार्यक्रम) : लगभग -₹85,244 करोड़ था ।
इसमें
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ₹81,594 करोड़
तथा आयुष मंत्रालय(Ministry of AYUSH) : ₹3,650 करोड़ आवंटित किया था।
इस तरह AYUSH का हिस्सा कुल स्वास्थ्य बजट में लगभग 3.3% होता है।2025–26 (BE) Health (MoHFW) → ₹98,311 करोड़ AYUSH → ₹3,900 करोड़ कुल Health + AYUSH = ~₹1,02,211 करोड़ दिया गया ।यानी 2024–25 से 2025–26 में स्वास्थ्य बजट में 20% की वृद्धि के बावजूद AYUSH का हिस्सा लगभग 3.7–3.8% बना हुआ है।
पीछे
लौट कर देखें तो 1995 में जब ISM&H
बना,
तब
पूरा बजट 50–60 करोड़ रुपये के आसपास था। कुल स्वास्थ्य बजट के मुकाबले आयुष की
हिस्सेदारी लगातार 1.5–2% के बीच रही। 2000 के बाद धीरे-धीरे यह बढ़कर 3% तक
पहुँची। 2019–20 से 2025–26 BE तक
कुल स्वास्थ्य बजट 62,459 करोड़ (2019-20) से बढ़कर 98,311 करोड़ (2025-26
) पहुँच गया। आयुष बजट 1,500 करोड़ से बढ़कर 3,900 करोड़
पहुँच गया।
आयुष की हिस्सेदारी 2.34% से बढ़कर लगभग 4.37% (2023-24 में उच्चतम) रही, लेकिन फिर पीछे लौटकर 2025-26 में यह 3.81% पर घट गई। जिसे निम्न तालिका में देख सकते है।
कोविड-19
के बाद आयुर्वेद के प्रभाव को देखते हुए यह बजट बढ़ाया गया था । इस समय सरकार
जितना आयुष के प्रति प्रेम दिखा रही है उसके अनुसार यह बजट कम से कम 10 प्रतिशत
होना चाहिए ।
1.5
से 2 प्रतिशत बजट का फार्मूला काफी पुराना है, हास्यप्रद यह है कि आयुष मंत्रालय
बनने के बाद भी 2014 से 2020 तक यह बजट 2 प्रतिशत ही रहा जबकि एक मंत्रालय का
अतिरिक्त बोझ भी बढ़ गया।
किसी महामारी आपदा काल में इस चिकित्सकों या चिकित्सा विधियों का कोई प्रयोग नहीं किया जाता है। अब इन नीतियों को बदलने का समय आ चुका है। अब आयुष को राष्ट्रीय स्वास्थ्य में उचित दायित्व और बजट में उचित हिस्सेदारी दी देने की जरूरत है ।
शासकीय
सामान्य अस्पताल, क्लीनिक,विशेषज्ञता
अस्पताल व क्लीनिक, निजी
अस्पताल व क्लीनिक. व्यावसायिक उच्चस्तरीय अस्पताल,
ये
सभी आधुनिक चिकित्सा केन्द्र शहरों में ही स्थित है,ग्रामीण
क्षेत्र के स्वास्थ्य का दायित्व आज भी
पारंपरिक व अप्रशिक्षित एलोपैथिक चिकित्सकों पर ही निर्भर है।
सामान्यतः आयुष चिकित्सा पद्धति को वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में देखा जाता है, क्योंकि जनता व शासन के दृष्टि में एलोपैथिक पद्धति ही मुख्यधारा की चिकित्सा पद्धति है जबकि अनेक रोग ऐसे है जिनकी समुचित चिकित्सा एलोपैथिक पद्धति में संभव नहीं होती है। ऐसे रोगों की चिकित्सा आयुष पद्धतियों में ही सहज संभव होती है। इसलिए इस क्षेत्र में हमें विशेष को कौशल प्राप्त करने की आवश्यकता है। वर्तमान में जीवन शैली व प्रदूषण के होने वाले रोग पूरी दुनिया में महामारी की तरह फैल रहे है,जिसमें आयुर्वेद,योग व अन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियां वरदान सिद्ध हो रही है,इस प्रकार स्वास्थ्य के बाजार में आयुर्वेद का बहुत महत्वपूर्ण स्थान विकसित हो रहा है।
आयुष का प्रभावी महत्व
आयुर्वेद
में त्वरित प्रभाव देने वाली औषधियाँ भी
है जिनका प्रयोग व अभ्यास आवश्यक है। सामान्य रोगों जैसे ज्वर,
वमन,डायरिया
आदि की चिकित्सा भी आयुर्वेद द्वारा तात्कालिक रुप में संभव है। इसलिए आपात कालीन
रोगों में भी आयुर्वेद की भूमिका बढ़ायी जानी चाहिए। इसके लिए प्रयोग व अभ्यास पर
ध्यान देना होगा है ।
जीवन
शैली के रोग जैसे-सुगर,बीपी
वृद्धावस्था के रोग, तनाव,
कटि
शूल, लीवर, प्लीहा,
गुर्दे, मूत्र, श्वास, प्रजनन, स्नायु शूल,
अनिद्रा,
स्त्री- प्रसूति तंत्र में आयुर्वेद व अन्य आयुष पद्धतियां विशेष रुप से लाभदायक
पायी जा रही है।
आज
की यह अनुभूत सच्चाई है, जो अविश्वसनीय लग सकती है। आजकल आगंतुक ज्वर(वायरल फीवर) एलोपैथिक
चिकित्सा से ठीक होने में 5-7 दिन का समय और हजारों रुपये का खर्च आता है, जबकि
आयुर्वेद की रस औषधियों से 2-3 दिन और 3-5 सौ रुपये में ठीक हो जाता है। इसलिए
आयुर्वेद के रस औषधियों का प्रमाणीकरण कर प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
यहाँ
खेद जनक पक्ष यह है कि आयुर्वेद के औषधि स्रोतों को ही खत्म किया जा रहा है। विकास
की अंधी दौड़ में जंगल-पहाड़ काटकर जड़ी-बूटियों, समूल खत्म किया जा रही हैं। सोना
महँगा होता जा रहा है, पारे के आयात पर प्रतिबंध जैसा है, आयुर्वेदिक औषधियों के
लिए आयात करने की छूट तो है पर इतने कानूनी पचड़े है कि प्रतिबंध जैसा ही है। इसके बावजूद सरकार आयुर्वेद के
विकास-विस्तार का ढ़िढ़ोरा पीट रही है।
Global Antimicrobial Resistance
और आयुर्वेद के लिए वैश्विक अवसर
फिलहाल आयुर्वेद के पक्ष में एक सुखद बात यह है कि विभिन्न वैश्विक शोध एजेंसियों के
अनुसार एंटीबायोटिक दवायें निष्प्रभावी होने के साथ हानिकारक सिद्ध हो रही है। फिर भी
विकसित देशों में प्रतिबंधित एंटीबायोटिक दवायें बिना मंजूरी की भारत में बिक रहीं हैं, जो
लीवर, गुर्दे, स्नायु, हड़्डी के मरीजों के बढ़ने का कारण हो सकती है। जिसके लिए साजिश
पूर्ण ढंग आयुर्वेद को दोषी ठहराया जा रहा है।
ऐसी
दवाओं के कारण दुनिया भर में सुपरबग के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई पर खतरा मंडरा
रहा है। ब्रिटेन के हालिया शोध में यह चेतावनी देते हुए बताया गया कि भारत में
बिकने वाली 64 %
एंटीबायोटिक अवैध हैं।
ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लीनिकल फार्मेसी में प्रकाशित शोध और हालिया वैश्विक रिपोर्टें
इस बात की पुष्टि करती हैं कि भारत एंटीबायोटिक दवाओं की खपत और रोगाणुरोधी
प्रतिरोध (Antimicrobial
Resistance – AMR) दोनों
ही मामलों में सबसे आगे है। स्थिति इतनी गंभीर है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आज भी
भारत जैसे देशों में बिना पर्याप्त मंजूरी के दर्जनों एंटीबायोटिक दवाएँ बेच रही हैं, जो सीधे तौर पर देश के स्वास्थ्य
के लिए धोखाधड़ी है।
Global Antimicrobial Resistance and Use Surveillance System (GLASS) – WHO, 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एंटीबायोटिक खपत की दर लगभग 13–14 Defined Daily Doses (DDD) प्रति 1,000 व्यक्ति प्रतिदिन है।यह दर अमेरिका (8.4 DDD), चीन (10.2 DDD) और यूरोप के औसत (9.6 DDD) से कहीं अधिक है।
अनुमान है कि भारत में हर वर्ष 10 लाख से अधिक लोग AMR से संबंधित संक्रमणों से प्रभावित होते हैं, जिसका कारण ये दवायें है।2007 से 2012 के बीच किए गए अध्ययन में पाया गया कि भारत में 118 प्रकार की एफडीसी (Fixed Dose Combination – FDC) एंटीबायोटिक दवायें भारत में बिक रही थीं।इनमें से 64% दवाओं को भारतीय दवा नियामक (CDSCO) से मंजूरी ही नहीं मिली थी।अमेरिका जैसे सख्त नियामक देश में केवल चार FDC एंटीबायोटिक ही उपलब्ध थीं।भारत में बिकने वाली 93% सिंगल डोज फार्मुलेशन (SDF) वैध पाई गईं। कुल 86 SDF दवाएँ भारत में उपलब्ध थीं।
इस मामले में अन्य देशों की तुलना करें तो भारत में सबसे अधिक खपत और प्रतिरोध, प्रतिबंधित एफडीसी की बिक्री होती है।
चीन में पारंपरिक चिकित्सा और कड़े फार्मा नियमन के कारण एंटीबायोटिक खपत
में कुछ हद तक नियंत्रण में है।
अमेरिका और यूरोप मे सख्त एफडीए और ईएमए नियमन के चलते केवल सीमित और वैज्ञानिक प्रमाणित एंटीबायोटिक प्रयोग की जाती हैं ।अफ्रीका व दक्षिण-पूर्व एशिया में दवा उपलब्धता सीमित है, लेकिन निगरानी तंत्र कमजोर होने के कारण प्रतिरोध बढ़ रहा है।
यह संकट इतना अधिक गहराता जा रहा है कि The Lancet, 2023 के अध्ययन के अनुसार, AMR से 2019 में विश्वभर में लगभग 50 लाख मौतें जुड़ी थीं। इनमें से 13 लाख मौतें प्रत्यक्ष रूप से AMR संक्रमणों से हुईं।अकेले भारत में 2,90,000 से अधिक मौतें AMR से संबंधित संक्रमणों के कारण दर्ज की गईं।अगर यह प्रवृत्ति जारी रही, तो 2050 तक भारत में वार्षिक 10 लाख से अधिक मौतें केवल रोगाणुरोधी प्रतिरोध से हो सकती हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए रोगियों और डॉक्टरों दोनों
को दवा के दुरुपयोग से बचने के लिए जागरुकता अभियान चलाने के साथ आयुष-आयुर्वेद
(फेज थेरैपी,
हर्बल-नैनो तकनीक) को
बढ़ावा होगा तथा वैश्विक साझेदारी भारत को WHO
और G20 जैसे मंचों पर AMR से लड़ने के लिए नीति-स्तर पर अग्रणी भूमिका
निभानी होगी।
इसलिए
आयुर्वेद के पास निर्माण और शोध का व्यापक वैश्विक बाजार है। इसके लिए विज्ञान की अन्य शाखाओं
जैसे बायोकेमिस्ट्री, वनस्पति
विज्ञान,रसायन विज्ञान,आई.टी.आदि
के साथ मिल कर काम किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिए राष्ट्रीय औषधि अनुसंधान
संस्थान (CDRI),राष्ट्रीय
वनस्पति अनुसंधान संस्थान(NBRI),राष्ट्रीय
रासायनिक प्रयोगशाला (NCL) एवं
विश्वविद्यालयों से साथ आयुर्वेद संस्थानों का समन्वय स्थापित करना होगा। इस
अभियान में अनुभव पूर्ण निजी प्रैक्टिस कर रहे एलोपैथी और आयुर्वेद चिकित्सकों को
भी शामिल करना चाहिए।
इसके
लिए सरकारों को घोषणाओं के बजाय आयुर्वेद के शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों के
गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। देश के स्वास्थ्य नीति और बजट में आयुर्वेद की उचित भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
संदर्भ
(References):
1-भारत सरकार,
वित्त
मंत्रालय – Expenditure Budget, Volume II (विभिन्न
वर्षों 2000–01 से 2013–14 तक)।
Demand for Grants, Ministry of Health and
Family Welfare (Department of Health, Department of AYUSH)।
उपलब्ध: https://www.indiabudget.gov.in
2-भारत सरकार,
लोकसभा
सचिवालय – Demands for Grants, Ministry of Health and
Family Welfare (2005–2013)।
3-लोकसभा दस्तावेज़ (Parliament
Library)।
Planning Commission of India (2007,
2012)
– Eleventh and Twelfth Five-Year Plan Documents।
4-राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल (NHP)
– Central Bureau of Health Intelligence (CBHI), MoHFW (2005–2013)।
5-2020–2025 के लिए प्रामाणिक संदर्भ (References)
भारत सरकार,
वित्त
मंत्रालय – Union Budget, Expenditure Profile &
Expenditure Budget Vol. II (2020–21 से 2025–26 तक)।
6-Ministry
of Health and Family Welfare (MoHFW) और Ministry
of AYUSH के Demands
for Grants। उपलब्ध: https://www.indiabudget.gov.in
7-लोकसभा सचिवालय (Parliament
of India) – Demands for Grants (Demand No. 45:
Ministry of AYUSH) (2020–2025)।
दस्तावेज़ लोकसभा की आधिकारिक वेबसाइट पर
उपलब्ध।
8-Economic
Survey of India (2020–21,
2021–22,
2022–23,
2023–24,
2024–25)।
स्वास्थ्य और आयुष व्यय का संक्षिप्त विवरण।
9-राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफ़ाइल (National
Health Profile, CBHI, MoHFW) – 2020–2023।
स्वास्थ्य एवं आयुष व्यय,
संस्थानों
और मानव संसाधन का अद्यतन डेटा।
10-Ministry
of AYUSH – Annual Reports (2020–21,
2021–22,
2022–23,
2023–24)।
इसमें मंत्रालय का वार्षिक बजट,
योजनाएँ
और व्यय विवरण दिया गया है। उपलब्ध: https://main.ayush.gov.in
(* लेखक,स्वतंत्र विचारक,कवि,कथाकार,लोक अध्येता एवं ईस्टर्न साइंटिस्ट के मुख्य संपादक है। यह शोधपत्र लेखक के शिघ्र प्रकाश्य पुस्तक -वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में आयुर्वेद में संग्रहित है। जो अगले महीने अमेजन पर उपलब्ध होगी)
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1 Comments
हर बार की तरह ईस्टर्न साइंटिस्ट का यह अंक भी शानदार और संग्रहणीय है। संपादक मण्डल व लेखको को बधाई।
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