Issue 30 Vol.-1 Jan-Mar 2025, Paper ID-E30/1 RNI:UPBIL/2017/75141 ISSN:2581-7884
डा. रति सक्सेना 1के. पी.9/624,वैजयन्त, चेट्टिकुन्नु,मेडिकल कालेज पो आ ,तिरुवनन्तपुरम, केरल
यूँ तो समाज की परिकल्पना का आधार व्यक्ति को समष्टि में संरक्षण देना रहा है, किन्तु जब समाज किसी वर्ग-विशेष के प्रभुत्व का शिकार बन जाता है तो लक्ष्य समष्टि से हट कर वर्ग-विशेष के स्वार्थ तक सीमित हो जाता है। लम्बे काल के सामाजिक इतिहास को परखा जाए तो बड़ी रोचक बातें सामने आती हैं।अथर्ववेद के ग्यारहवें काण्ड में एक महत्वपूर्ण सूक्त है जो छोटा होते हुए भी अपने देवता के नाम और महिमा को पुरुष सूक्त की तरह पूरे उत्साह से प्रस्तुत करता है। विशिष्ट बात यह है कि इस सूक्त का देवता भी व्रात्य के समान परवर्ती मध्यकालीन समाज में आदर का पात्र नहीं माना गया। संभवतः तत्कालीन परिस्थिति में कुछ कबीले उसके पूजक रहे हों। इस देवता का नाम है "उच्छिष्ट"। संक्षेप में कहा जा सकता है कि उच्छिष्ट जो आदीवासी कबीलों का नायक था उसे लम्बे काल में कई स्तरों से गुजरना पड़ा। आरंभिक वैशिष्ट्य को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा, पुनः स्थापित होते -होते वह अपने असली रूप और पहचान को खोता हुआ लुप्तावस्था में पहुँचने लगा। किन्तु जिन्दगी से जुड़े लोक ने उसे अपने में जीवित रखा। परिणामतया वह समाज में पुनः स्थापित हो गया, इस बार उसे सभी वर्गों की स्वीकृति मिली।
यूँ तो समाज की परिकल्पना का आधार व्यक्ति को
समष्टि में संरक्षण देना रहा है, किन्तु
जब समाज किसी वर्ग-विशेष के प्रभुत्व का शिकार बन जाता है तो लक्ष्य समष्टि से हट
कर वर्ग-विशेष के स्वार्थ तक सीमित हो जाता है। समाज के उद्देश्यों का स्वार्थ के
लिए अपचयन न जाने कितनी उठा-पटक करता है और इस उठा-पटक का शिकार न जाने कौन, कब और कैसे होगा, यह
बताना बड़ा कठिन होता है। लम्बे काल के सामाजिक इतिहास को परखा जाए तो बड़ी रोचक
बातें सामने आती हैं। समाज किस तरह से सामान्य को विशिष्ट और विशिष्ट को सामान्य
बनाता है। सामाजिक मनोविज्ञान किस तरह से इतिहास की धारा मोड़ सकता है, ये सब बातें
विभ्रमित तो करती है पर इतनी रोचक
हैं कि समाजशास्त्रियों को बार-बार नई दृष्टि से खोज करने की जरूरत महसूस हो सकती
है। ऐसे ही एक रोचक प्रसंग उस मिथकीय अवधारणा को लेकर है जो वेदकालीन समाज से लेकर
आज तक चल रही है,
किन्तु कभी सरस्वती सी लुप्त हो जाती है तो कभी
रंग बदल कर विचित्र रूप धारण कर लेती है।
अथर्ववेद के ग्यारहवें काण्ड में एक महत्वपूर्ण
सूक्त है जो छोटा होते हुए भी अपने देवता
के नाम और महिमा को पुरुष सूक्त की तरह पूरे उत्साह से प्रस्तुत करता है। विशिष्ट
बात यह है कि इस सूक्त का देवता भी व्रात्य के समान परवर्ती मध्यकालीन समाज में
आदर का पात्र नहीं माना गया। संभवतः तत्कालीन परिस्थिति में कुछ कबीले उसके पूजक
रहे हों । इस देवता का नाम है "उच्छिष्ट"। मोनियर विलियम के अनुसार इसके
अर्थ हो सकते हैं- बचा हुआ, तिरस्कृत, सड़ा
हुआ, जूठे हाथ मुँह वाला। अधिकतर विद्वानों ने वेदों
के महत्व को ध्यान में रखते हुए उच्छिष्ट को हवि कर्म से बचा हव्य आदि माना है।
किन्तु तत्कालीन समाज की संक्रमणकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाए तो
उच्छिष्ट का अर्थ तिरस्कृत ज्यादा उपयुक्त लगता है। अर्थात् वह वर्ग जो शनैःशनैः
सभ्य बनते कुछ वर्गों द्वारा तिरस्कृत माना जा रहा था, उच्छिष्ट माना गया।
तत्कालीन भौगोलिक व पर्यावरण सम्बन्धी
परिस्थितियों को ध्यान में रख कर देखा जाए तो यह मालूम पड़ता है कि वेदों की रचना
काल तक कृषि की अपेक्षा पशुपालन को अधिक महत्व दिया जाने लगा था। वेदों के रचना
काल तक पशुधन की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी, फिर
भी कृषि का आरंभ कुछ हद तक शुरु हो गया था। ऋग्वेद और अथर्ववेद में कृषि सम्बन्धी
सूक्त है। अथर्ववेद में कृषि को कुछ अधिक महत्व दिया गया है। इस काल में
वनस्पतियों और नदियों के लिए रचे प्रार्थना मंत्रों को देखते हुए लगता है कि
शनैः-शनैः कृषि कर्म में उत्कर्ष होने लगा था।
संभव है कि तब तक कुछ कबीले पूरी तरह से कृषिकर्म में संलग्न हो चुके
होंगे। ऐसी स्थिति में कृषक समुदाय के पास अन्य समुदायों की तुलना में अन्न की बहुलता
स्वाभाविक है। सामान्य जन जिनमें पशुपालक, आखेटक
जनजातियाँ थीं,
उनके लिए अन्न दुर्लभ व महत्वपूर्ण बना रहा।
अन्न की दुर्लभता उपनिषद काल तक बनी रही,शायद
इसी कारण उपनिषदों में अन्न को ब्रह्म की संज्ञा भी दी गई। बाद में इस मत में
दैहिक भावना की प्रबलता को देखते हुए अन्न को पाँच कोषों में निम्नतर मान लिया
गया। उस परिस्थिति में कुछ समुदायों द्वारा जो पशुपालन से जुड़े थे, के लिए खेतों में गिरे हुए अन्न को जीवन यापन के
लिए उठा लेना स्वाभाविक है। यह भी हो सकता
है कि कुछ समुदाय या कबीले के लोग बलपूर्वक अन्न को उठा कर ले जाते रहे हों।
संभवतः इस तरह जीवन बसर करने वाले विशिष्ट गणों को उच्छिष्ट माना गया हो। विशिष्ट
बात यह है कि गणपति या गणेश का एक नाम उच्छिष्ट भी है। मोनियर विलियम ने गणपति को
उच्छिष्टों का देवता माना है। इसी तरह उच्छिष्टों की देवी चाण्डालिनी है जो
तान्त्रिकों की देवी मानी जाती हैं। ( अथर्ववेद में तंत्र सम्बन्धी मंत्रों की
बहुलता को सभी ने माना है। ) ऋग्वेद मे व्रात शब्द का प्रयोग "गण" के
साथ किया गया है,
त्रिपंञ्चाशः क्रीडति व्रात
एषं देव इव सविता सत्यधर्मा। ऋ. 10.34..8) जुआरी गणों और व्रातों के राजा को नमस्कार करता
है-
( यो वः सेनानीर्महतो गणस्य राजा व्रातस्य
प्रथमों बभूव।ऋ. 10.34.12)
यहाँ यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जुआरी के लिए
व्रात्य और गण समान रूप से महत्वपूर्ण थे। किन्तु इतना तो निश्चित है कि ऋग्वैदिक
काल में गणों का स्थान व्रात्यों की अपेक्षा श्रेष्ठ था। ऋग्वेद में गणपति का उल्लेख अनेक बार हुआ है।
- तुम गणों में गणपति हो, कवियों में सबके द्वारा सुने जाते कवि हो, हे ब्राह्मणों के ज्येष्ठराज! आओ, हमारे सदनों में स्थापित होकर अपने विचार
सुनाओ।।
अथर्ववेद के इक्कीसवें काण्ड में बड़ा विचित्र सा
सूक्त है जिसमें किसी महत्वपूर्ण देवता की अपेक्षा आंगिरसों के विभिन्न विभागों से
साथ गणों, गणेशों तथा ब्रह्म ज्येष्ठ को आहुति दी गई है।
-आङ्गिरसो के पहले पाँच अनुवाकों के लिए स्वाहा!
छठे के लिए स्वाहा! सातवें और आँठवें के लिए स्वाहा! नील नखों के लिए स्वाहा! हरों
के लिए स्वाहा! क्षुद्रों के लिए स्वाहा! पर्यायकों के लिए स्वाहा! प्रथम शंखों के
लिए स्वाहा! द्वितीय शंखों के लिए स्वाहा! तृतीय शंखों के लिए स्वाहा! उत्तमों के
समीप वालों के लिए स्वाहा! उत्तमों के लिए स्वाहा! उत्तरों के लिए स्वाहा! ऋषियों
के लिए स्वाहा! शिखाधारियों ( अथवा शिखा पर रहने वालों ) के लिए स्वाहा! गणों
केलिए स्वाहा! महा गणों के लिए स्वाहा! समस्त आङ्गिरों और विज्ञानी गणों के लिए
स्वाहा! अलग अलग सहस्त्रों समूहों के लिए स्वाहा! ब्रह्मण के लिए स्वाहा!
ब्रह्म ज्येष्ठ में समस्त वीर कर्म हैं, ज्येष्ठ ब्रह्म ने सबसे पहले दिव को फैलाया। और
भूतों में ब्रह्मा पहले उत्पन्न हुआ। उस ब्रह्म से स्पर्धा करने में कौन समर्थ है? अथर्ववेद
- 19.21.1-21 ।।
अथर्ववेद में गण और इन्द्र का साथ-साथ प्रयोग उनकी सामाजिक स्थिति की
सुद्ढ़ता की ओर संकेत करता हैः (अनवद्यैरभिर्मखः सहस्वदर्चति। गणैरिन्द्रस्य
काम्यैः।। अथर्ववेद- 20.40.2)
यद्यपि अथर्ववेद में व्रात्य सूक्त पूरी महिमा
के साथ उपलब्ध है किन्तु अन्य वेदों ने इसे अधिक महत्व नहीं दिया था। वैदिक काल के
बाद के ग्रन्थों में व्रात की सामाजिक स्थिति बदलती दिखाई देती है। आनन्दगिरि ने
उच्छिष्ट गणपतियों के अनुयायियों को वामाचारी माना है। (
लोकायत- पृ. 202)
मनु ने भी गणेश को शूद्रों और दलितों का देवता
माना है। मनु के अनुसार शूद्र केवल अन्य लोगों के उतरे कपड़े ही पहन सकते थे और
जूठन ही खा सकते थे। ( मनु स्मृति.125, लोकायत
के अनुसार) यहाँ जूठन पर निर्भर रहने की मान्यता वेदकालीन उच्छिष्ट की धारणा को
परिपुष्ट करती है। मनु से पहले कात्यायन ने गण यज्ञ के बारे में बतलाते हुए कहा है
कि-
"यह बंधुओं, भातृनाम
और मित्रों,
सखिनाम द्वारा मिलकर सामूहिक रूप में किया जाने
वाला अनुष्ठान है। ( श्रोत सूत्र-11.12, लोकायत
के अनुसार) समाजविदों का मानना है कि सामूहिक जीवन कबीलों या संघटनों की बुनियादी
जरूरत होती है। जो कबीला जितना एकजुट होता था उतना ही शक्तिशाली माना जाता
था। मनुस्मृति में कहा गया है कि जो लोग
गण यज्ञ करते हैं उन्हें अन्त्येष्टि के भोज मे सम्मिलित नही किया जाए। ध्यान देने
वाली बात यह है कि याज्ञवल्क्य संहिता में विनायक को गणों का मुखिया नियुक्त किया
है। विनायक गणेश यानी उच्छिष्ट का दूसरा नाम है। परवर्ती शास्त्रों में गणों के
मुखिया को आक्रान्ता के रूप में दिखाया गया है। अतः यह संभव है कि व्रात्यों की
तरह उच्छिष्ट कबीले के लोग भी शक्तिशाली, छीन-झपट
कर हासिल करने वाले और तथाकथित सभ्य कबीलों के लिए सिरदर्द बन चले थे। अतः वेदों
के परवर्ती काल में गणपति या उच्छिष्ट विघ्नकारी व विशिष्ट समाज से बहिष्कृत माने
जाने लगे थे। आश्चर्य की बात यह है कि यही आक्रान्ता गणपति पौराणिक काल में
विघ्ननाशक के रूप में पूजा जाने लगा। वेदों और पुराणों के मध्य के काल में गणेश की
घोर आकृति शनैः शनैः अभिजात्य परम्परा के अनुरूप शालीन बनती गई। अब अथर्ववेद के
सन्दर्भ में देखा जाए तो व्रात्य और गण का साथ - साथ उल्लेख परवर्ती पौराणिक कथाओं
में शिव और गणेश के सम्बन्ध पर प्रकाश डाल सकता है। उल्लेखनीय बात यह है कि
पौराणिक गाथा के अनुसार गणेश पार्वती के शरीर से उतरे मैल से बने थे। यानी कि वे
शिव के औरस पुत्र न होते हुए भी माता के रिश्ते से पुत्र थे। इस दृष्टि से गणेश को
मातृसत्तात्मक प्रणाली का प्रतीक भी माना जा सकता है। शिव के साथ भूत प्रेत आदि से
सम्बन्धित जो कथाएँ जुड़ी हैं उनसे भी यह
संकेत मिलता है कि शिव का सम्बन्ध आदिवासी कबीलों से था। इस तरह उच्छिष्टों और
व्रात्यों में सीधा सम्बन्ध न होते हुए भी कुछ न कुछ समानता अवश्य थी। अब अथर्ववेद
में संकलित "उच्छिष्ट " सूक्त के बारे में ध्यान दें--
उच्छिष्ट में नाम -रूप हैं, उच्छिष्ट में लोक समाहित हैं। उत्छिष्ट में ही
इन्द्र, अग्नि और विश्व के सभी देवता समाहित हैं।
उच्छिष्ट में द्यावा पृथिवी और विश्व के समस्त भूत समाहित हैं। जल और समुद्र भी उच्छिष्ट में हैं, चन्द्रमा और वायु भी हैं। सत् उच्छिष्ट में है, असत् भी उच्छिष्ट में है। मृत्यु, वाज और प्रजापति भी उच्छिष्ट में हैं। लोक को
उच्छिष्ट आच्छादित कर समस्त व्रत, द्रव
और श्री को मेरे लिए देता है। वह दृढ़ है, दृढ़स्थिर
है, ब्रह्म है और दश विश्वों का सृजक है। जैसे चक्र
नाभि पर केन्द्रित होता है वैसे ही समस्त देव उच्छिष्ट पर केन्द्रित हैं। ऋक्, साम,
यजु उच्छिष्ट में हैं। उद्गीथ भी प्रस्तुत व स्तुत हैं। हिंङ्कार भी उच्छिष्ट में
है। वह अपने साम के स्वरों को मुझे दे । ऐन्द्राग्न, पावमान, महानाम्नी, महाव्रत
तथा यज्ञ के अंग उच्छिष्ट में वैसे ही है जैसे कि माता के गर्भ में ( बालक होता )
है। राजसूय,
वाजपेय, अग्निष्टोम, आदि यज्ञ तथा अर्क और अश्वमेध भी उच्छिष्ट में
जीवों को आनन्द देते हैं। अग्न्याधेय, दीक्षा, कामपूरक, छन्दों
के साथ उन्नत यज्ञ और समस्त सत्र उच्छिष्ट में हैं। अग्निहोत्र, श्रद्धा, वषट्कार, व्रत, तप
दक्षिणेष्ट पूर्त कर्म भी उच्छिष्ट में समाहित हैं। यज्ञ के अणु, एकरात्रि, द्विरात्रि, सद्यक्री, प्रक्री, उक्थ्य, ओत
आदि रूप भी उच्छिष्ट में निहित हैं। चतुर्रात्र, पञ्चरात्र, षड्रात्र, षोडशी, सप्तरात्र, आदि यज्ञ उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए हैं और वे सब
अमृत युक्त हैं। जो प्रतिहार, अभिजित
, विश्वजित और निधन हैं दिन और रात चलने वाले तथा द्वाद्वश दिन चलने
वाले , वे सब उच्छिष्ट में हैं। वे सब मुझ में हों।
सूनृति, संनति, क्षेम,स्वधा, ऊर्जा
और अमृत के साथ उच्छिष्ट में समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है। नव भूमि और
समुद्रों के साथ समस्त देव उच्छिष्ट में हैं। उच्छिष्ट में ही सूर्य चमकता है, उसी में ही अहोरात्रियाँ हैं , वे सब मुझ में हों । उपहव्य और विषुवन्त यज्ञ जो
गुहा में निहित हैं उन्हें विश्व का पालन करने वाला उच्छिष्ट पिता पालन करता है।
पिता उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए, इसी
से पौत्र और पितामह भी। वह विश्व का ईश है, पराक्रमी
है और भूमि को जीत लेता है। ऋत , सत्य, तप , राष्ट्र, श्रम, धर्म, कर्म, भूत, भविष्य, उच्छिष्ट
में हैं, साथ में वीरता , लक्ष्मी
और बल भी है। समृद्धि,
ओज, आकूति, क्षत्र, राष्ट्र
षड् उर्वी,
संवत्सर उच्छिष्ट में हैं। इडा, पैषा, ग्रह
और हवियाँ भी इसी में हैं। चारो होता, चार
मास में की जाने वाले यज्ञ कर्म उच्छिष्ट में हैं, इसी
उच्छिष्ट में होत्रा,
पशुबन्धा, इष्टियाँ
हैं। अर्धमास ,
मास ऋतुओं सहित उच्छिष्ट में हैं। रौरव करते जल,मेघों का गर्जन,श्रुति
और महि भी इसी में है। शर्करा ( कंकड़), सिकता, चट्टाने, औषधियाँ, वीरुध, तृण, अब्र, विद्युत, वर्षा आदि उच्छिष्ट में हैं। राद्धि , प्राप्ति, समाप्ति, व्याप्ति, महत्व
को बढ़ाती हैं। अत्याप्ति भी उच्छिष्ट में है, भूति
भी इसमें निहित है। जो कुछ प्राणों से प्राणवन्त है, जो
चक्षुओ द्वारा दिखाई देता है, वह
सब उच्छिष्ट से उत्पन्न हुआ, सारे
देवता उस में निहित हैं। ऋच, साम, छन्द, पुराण, यजु के साथ उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए हैं, सारे देवता उस में निहित हैं। प्राण, अपान, चक्षु, श्रोत, अक्षिति
व क्षिति सभी उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए हैं, सारे
देवता उस में निहित हैं। आनन्द, मोद, प्रमोद, अभिमोद, जो कुछ हैं वे सब उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए हैं,सारे देवता उस में निहित हैं। देवता, पितर, मनुष्य, गन्धर्व और अप्सराएँ भी उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए
हैं,सारे देवता उस में निहित हैं।- अथर्ववेद-11.7.1-27।
इस स्तुति पर ध्यान दे तो यह स्पष्ट हैं कि
इसमें तथ्यात्मकता की अपेक्षा भावनात्मकता अधिक है। यहाँ उच्छिष्ट से सब कुछ
उत्पन्न मानते हुए उसकी महिमा को महामण्डित करने का प्रयास दिखाई देता है। ऐसा
करने के दो कारण हो सकते हैं-
1- गहन भक्ति, 2-अपने
को गिरने न देना का प्रयत्न।
अधिकतर देव प्रार्थनाओं में उनके बल व महत्व की
प्रशंसा होती है। इस प्रशंसाओं में अतिशयोक्ति होना कोई अनहोनी बात नहीं है।
किन्तु जब अपने अस्तित्व के प्रति खतरा महसूस होता है तब भी आदमी सभी अच्छाइयों का
श्रेय अपने ऊपर लेना चाहता है। इतना तो माना जा सकता है कि अथर्ववेद काल में
उच्छिष्टों का स्थान समाज में सुदृढ़ था, विशेषतया
लोक से जुड़े समाज में उन्हें गलत निगाहों से नहीं देखा जाता था। फिर भी उन्हें
अभिजात्य बनते वर्गों की ओर से कुछ न कुछ अवहेलना तो अवश्य मिलती होगी तभी ऋग्वेद
में उच्छिष्ट को वह स्थान नहीं दिया गया है जो अथर्ववेद में दिया गया है। लेकिन
अथर्ववेद इक्कीसवें काण्ड में गणेभ्यों के
लिए स्वाहा सूक्त में श्रुद्रों के लिए स्वाहा मंत्र भी आया है। इससे यह जरूर पता
चलता है कि उच्छिष्ट को वरेण्य समाज ने संदिग्ध दृष्टि से ही देखा है। संभवतः यही
कारण है कि गणों को अपने नायक उच्छिष्ट की उसी तरह से स्तुति करने की जरूरत महसूस हुई
जिस तरह की स्तुति इन्द्र,
वरुण आदि अभिजात्य नायकों की होती रही। ध्यातव्य
है कि उच्छिष्ट की स्तुति में गीतात्मकता अधिक है जो इस बात का द्यौतक है कि इसे
सामूहिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रयुक्त किया गया था। इससे उन वर्गों को मानसिक संबल तो मिला जो समाज में अपनी स्थिति
के स्खलन के प्रति चिन्तित थे। ऐसा भी हो सकता है कि यह उच्छिष्ट कबीले के गणपति
की प्रशंसा में गायी गई सामूहिक प्रार्थना हो । इस सूक्त के अन्तिम पाँच मंत्रों
में अन्तिम पद में प्राप्त है।
यच्च प्राणति प्राणेन यच्च पश्यति चक्षुषा।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा
दिविश्रितः।। अथर्व. 11.7.23।
ऋचः सामानि च्छन्दांसि पुराणयजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा
दिविश्रितः।। अथर्व. 11.7.24
प्राणापानौ चक्षुः श्रोतमक्षितिश्च क्षितिश्च
या।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः।।
अथर्व. 11.7.25
आनन्दाः मोदाः प्रमुदोच्भिमोदमुदश्च ये।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा
दिविश्रितः।। अथर्व. 11.7.26
देवाः पितरो मनुष्या गन्धर्वाप्सरसश्च ये।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा
दिविश्रितः।। अथर्व. 11.7.27
इन मंत्रों की गीतात्मकता लोक गीतों की
प्रवृत्ति के अधिक निकट है, जिसमें हर पंक्ति के बाद टेक को दुहराया जाता है।
उच्छिष्ट के उल्लेख में गणपति का हस्तिमुख से कोई सम्बन्ध नहीं दिखता है। किन्तु बाद में गणपति को
हस्तिमुख मानने की कल्पना का जो विस्तार हुआ है, उससे
यह अन्दाज लगाया जा सकता है कि वैदिक काल में कुछ गणों का चिह्न या टोटम हाथी रहा
होगा । वही टोटम पौराणिक युग में गणपति के सिर के रूप में स्थापित हो गया।
उच्छिष्टों के बारे में एक और कल्पना की जा सकती है कि इन्ही गणों के अनुयायियों
में से कुछ बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भी बने, किन्तु
इस कल्पना को पुष्ट करने के लिए अन्वेषण की आवश्यकता है।
अब इस बात पर भी चर्चा करना आवश्यक है कि
ऋग्वैदिक ऋषियों द्वारा उपेक्षित उच्छिष्ट समाज को अथर्ववैदिक ऋषियों ने वही स्थान
देने का प्रयास किया जो ऋग्वेद में इन्द्र , वरुण
या अग्नि का था। निसन्देह उच्छिष्ट उनका नायक था, अतः
उनके प्रयास को उचित भी माना जा सकता है। यह भी संभावना है कि उच्छिष्ट के महत्व
को कम करने के उद्देश्य से ऋग्वेद में कालान्तर में पुरुष सूक्त जोड़ दिया गया।
उच्छिष्ट से ऊपर परम पुरुष की कल्पना ने दो काम किए, एक
तो जो जनजातियाँ संभ्रान्त वर्ग की दृष्टि से निम्न थीं, उन्हे बकायदा समाज के निम्नतम स्थान पर स्थापित
कर दिया, जो निसन्देह वेदों के परवर्ती काल की कल्पना थी।
इस दृष्टि से उच्छिष्ट पर अध्ययन सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था। दूसरी
महत्वपूर्ण बात यह है कि उच्छिष्ट का परवर्ती रूप समाज के सभी वर्गों द्वारा न
केवल स्वीकृत हुआ अपितु समाज ने से उच्चतम स्थान भी दे दिया। पुराणों ने गणपति को
न केवल विघ्ननाशक स्थापित किया अपितु देवताओं में सर्वप्रथम स्थान दिया। सोचना यह
है कि यह विचित्र क्यो घटित हुआ? समाजविज्ञान
के अध्ययन से यह मालूम होता है कि हर काल में प्रभुत्वशाली वर्ग ने कमजोर वर्ग पर
शासन करने के उद्देश्य से उन्हें न केवल शारीरिक दृष्टि से अधीन बनाया अपितु भावनात्मक
स्तर पर भी आधीन बनाने की कोशिश की। इसका सबसे अच्छा उदाहरण देवताओं के
उत्थान व पतन से संबन्धित कथाएँ हैं। ऋग्वेद का इन्द्र अथर्ववेद काल में ही अपना
महत्व खो बैठा था,
पुराण काल तक पहुँचते-पहुँचते तो उसका सामाजिक
स्तर काफी गिर चला था। लोक से जुड़े कृष्ण ने इन्द्र का सामूहिक बहिष्कार किया।
किन्तु कुछ देवता बहिष्कृत समाज से उठ कर अभिजात्य समाज में स्थान पा गए। शिव व
गणेश इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। उच्छिष्ट गणपति का एक रूप बन गए । धीमे-धीमे ये
देवता जिस वर्ग की थाती थे,
उसी से अलग कर दिए गए । यह सामाजिक अपहरण
क्रिया सतत चलती है। आज तक चल रही है।
केरल में तैय्यम नामक धार्मिक अनुष्ठान पूर्णतया
निम्न कामगार वर्ग की थाती थी । निम्न वर्ग के लोग तैय्यम के द्वारा अपने अराधक से
सम्बन्ध स्थापित करते थे,
उन्हीं के समाज का एक व्यक्ति देवता का रूप धारण
करता है। यह धार्मिक अनुष्ठान पूरी तरह वर्ग विशेष से सम्बन्धित था, कालान्तर में विशिष्ट या अभिजात्य कहलाने वाले
वर्ग ने इसे न केवल सामाजिक स्वीकृति दे दी, अपितु
अपने मन्दिरों में इसका आयोजन भी करवाना शुरु कर दिया। आज यह बिना किसी वर्गीय
मतभेद के सभी समुदायों द्वारा मनाया जाता है। संभव है कि कालान्तर में यह विशिष्ट
वर्ग की थाती बन जाए । यह सामाजिक आरोपण अनेक भावानात्मक स्तर पर होता रहता है।
संक्षेप
में कहा जा सकता है कि उच्छिष्ट जो आदिवासी कबीलों का नायक था उसे लम्बे काल में
कई स्तरों से गुजरना पड़ा । आरंभिक वैशिष्ट्य को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना
पड़ा, पुनः स्थापित होते -होते वह अपने असली रूप और
पहचान को खोता हुआ लुप्तावस्था में पहुँचने लगा । किन्तु जिन्दगी से जुड़े लोक ने
उसे अपने में जीवित रखा परिणामतया वह समाज में पुनः स्थापित हो गया, इस बार उसे
सभी वर्गों की स्वीकृति मिली। यही लोक की विजय है।
।गणानान्त्वा गणपति हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणाः ब्रह्मणस्पपत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्।। ऋग्वेद- म. 2। 23। 1।
आङ्गिरसानामाद्यैः पञ्चानुवाकैः स्वाहा।।1।।
।। षष्ठाय स्वाहा।।2।।, सप्तमाष्टमाभ्यां स्वाहा ।।3।। नीलनखेभ्यः स्वाहा।।4।। हरितेभ्यः स्वाहा।। 5।।..... गणेभ्यः स्वाहा।।16।। महागणेभ्यः स्वाहा।।17।। अथर्ववेद 21 काण्ड का 22वाँ सूक्त।
संदर्भ-
अथर्ववेद
मनुस्मृति
उशना स्मृति
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