बासंतिक
नवरात्रि शुरू हो रहा है। जिसमें सामान्यतः लोग व्रत रखते हैं। व्रत में क्या
खायें,क्या न खायें की दुविधा बनी रहती है,आज सोसल मीडिया-एआई के दौर में
स्वयंभू धर्मार्चायों की वजह से यह दुविधा कुछ ज्यादा ही हो गयी है। हालत यह है कि
व्रत का एक पूरा बाजार खड़ा हो गया है। जबकि भारतीय पर्व और व्रत का आहार-विहार देश-काल
के अनुसार निर्धारित था। जिस क्षेत्र में जो द्रव्य जिस मौसम के अनुकूल होता है,उसी
का सेवन करने की परम्परा रही है। लेकिन आज हर तरह के जलवायु वाले क्षेत्र में एक
ही माडल प्रचारित किया जा रहा है, जिसका परिणाम व्रत के बाद बीमार होने के रूप में
आ रहा है। खास कर सोडियम-पोटैशियम की कमी के कारण स्नायु दुर्बलता,पेट और मूत्र
संबंधित परेशानियाँ देखने को मिलती हैं।
वास्तव
में नवरात्रि प्रकृति के स्वभाव में परिवर्तन के साथ स्वयं को समायोजित करने का
पर्व है। सभ्यता के शुरुआती दौर में यह फसली त्यौहार था, फसल बोने-पकने के उत्सव
के रूप में मनाया जाता था। जिसका अवशेष आज भी आदिवासी इलाकों में देखा जा सकता है।
सभ्यता आगे बढ़ी, प्रकृति की गति को पहचानने के लिए काल गणना का विकास हुआ ।
धरती
पर जीवन का कारण ताप और शीत है। ताप(अग्नि) का कारक सूर्य तथा शीत(जल) का चन्द्रमा
है। ताप व शीत के संयोग से वायु की उत्पत्ति हुई। जिससे धरती पर जीवन संभव हुआ । पृथ्वी
के सूर्य तथा चन्द्र की परिक्रमा के कारण भिन्न-भिन्न समय पर, भिन्न-भिन्न कोणों
से, भिन्न-भिन्न प्रभाव वाली सूर्य-चन्द्र की किरणें पृथ्वी पर पड़ती हैं। जिससे
पृथ्वी के भिन्न-भिन्न हिस्सों में, विभिन्न प्रकार का पर्यावरण व उसके अनुसार
जीव-जन्तु, वनस्पतियों का जीवन तंत्र विकसित, रूपान्तरित, परिवर्तित होता रहता है।
धरती के विभिन्न क्षेत्रों में विविध रूप-रंग के मानव व जीव-जन्तु,वनस्पतियों की
उत्पत्ति होती है। इसी आधार पर मानव की जीवनशैली विकसित होती है। किसी क्षेत्र की विशेष जीवन शैली ही
संस्कृति कहलाती है। इस प्रक्रिया को यह भी कह सकते हैं कि प्रकृति के सीमांकन और
नामांकन को संस्कृति कहते हैं। यही पर्वों-त्यौहारों का मूल आधार है।
पर्व शब्द का तात्पर्य ही है संधि, अर्थात ऋतु संधि काल को ही पर्व कहा गया।
आइये
अब पर्वों के निर्धारण का गणित समझते हैं। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते समय अपने
अक्ष पर 23.4 अंश झुकी रहती है। यह झुकाव क्रमशः उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव की ओर 6-6 महीने
का होता है।इस अयन कहते है, एक साल में उत्तरायन-दक्षिणायन दो अयन होते हैं। अर्थात
पृथ्वी के 365अंश के परिक्रमण पथ को 360 अंश मानकर 180-180 अंश के दो भागों में बाँटा
जाय, तो प्रत्येक अयन 180-180 दिन का होता है । पृथ्वी के अक्षीय झुकाव के कारण
उत्तरायन काल में दिन बड़े, रातें छोटी तथा दक्षिणायन काल में दिन छोटे व रातें
बड़ी होती है । प्रत्येक अयन को 60-60 अंश (2 माह) के 3-3 ऋतुओं में बाँटा गया है । दक्षिणायन काल की
वर्षा,शरद,हेमंत ऋतुओं में नमी(शीत) क्रमशः बढ़ती है। ये चन्द्र से प्रभावित रहती
है, इसलिए इन ऋतुओं का स्वामी चन्द्रमा होता है । उत्तरायण काल की तीन ऋतुओं
शिशिर, बसंत,ग्रीष्म कहते हैं,जिनका स्वामी सूर्य होता है । इन ऋतुओं में
क्रमशःनमी घटती है तथा ताप(गर्मी) बढ़ता है। शीत-ताप के बढ़ने-घटने से वायुमंडल की
स्वरूप व स्वभाव में बदलाव होता है, जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जीव जगत पर पड़ता है । देश-काल
के अनुसार विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के अंकुरण व नष्ट होने की प्रक्रिया चलती
रहती है। विभिन्न जन्तुओं व वनस्पतियों के जन्म व मृत्यु की घटनायें होती हैं। इस
तरह धरती की जैव विविधता के चक्र का निर्माण होता है । प्रकृति के इस तीव्र बदलाव
से समायोजन के अभाव में मनुष्य अनेक रोगों के चपेट में आ जाता है । जिससे बचने के
लिए आयुर्वेद में ऋतुचर्या बतायी गयी है। ऋतुओं के बदलाव
में एक बिन्दु ऐसा भी आता है, जब ठंडक-गर्मी का परिवर्तन तेजी से महसूस होने लगता
है । इस स्थिति को निश्चित करने के लिए पृथ्वी परिक्रमण पथ को 90-90 अंश पर देखा
गया है, इसे ही नवरात्रि कहा गया है। वर्ष
में चार नवरात्रि होते है। जो क्रमशः चैत्र शुक्ल,अषाढ़ शुक्ल आश्विनशुक्ल,माघ
शुक्ल में पड़ते हैं ।
सामान्यतःआश्विन व चैत्र नवरात्रि ही विशेष रूप प्रचलित
हैं। चैत्र से तेज गर्मी,अषाढ़ से वर्षा,आश्विन से ठंडक माघ से सुखद गर्मी की
शुरुआत होती है। यह काल ऋतुओं का संक्रमण काल होता है, यही ऋतु संधि काल है । इसीलिए
नवरात्रि को पर्व कहा गया है। इस समय तापक्रम तेजी से बदल रहा होता है। जो पृथ्वी का सर्जनात्मक काल होता है।
अनेक वनस्पतियों जन्तुओं के प्रजनन हेतु अनुकूल समय होता है। इस स्थिति से मानव
शरीर का प्रकृति के बदलाव से समायोजित न होने के कारण रोगों के संक्रमण की अधिक
संभावना होती है। इसलिए नवरात्र काल में उपवास, व्रत, संयम और सफाई का पालन करते
हुए, प्रकृति पूजा और ध्यान की परम्परा का विकासित
हुई है
।
भारतीय
सभ्यता में प्रकृति को माँ के रूप में देखा गया है। इसी अवधारणा से मातृ पूजा का
विकास हुआ। शुरुआती समय में देवियों का वास नीम,सिहोर, पतयुग, महानींब आदि
पेड़ों पर मानकर पूजा जाता था। आज भी अविकसित ग्रामीण इलाकों में यह देखा जा सकता
है। लेकिन अब विकास के दौर में पेड़ों को काट मंदिर और मूर्तियाँ बनने लगी है।
प्रकृति पूजा, विकृति पूजा में बदलने लगी है। आज भी प्राचीन मंदिरों में मूर्तियाँ
नहीं है,प्राकृतिक संरचनाओं की पूजा की जाती है। आगे चलकर स्थानीय मान्यतायें, कथायें
विकसित हुई, प्रकृति को विभिन्न देवियों के रूप में पूजा जाने लगा।
कालान्तर
में यह विचार इतना प्रबल हुआ कि शाक्त नाम से एक धार्मिक सम्प्रदाय ही बन गया ।
परन्तु इसके मूल में प्रकृति के परिवर्तन से देह को समायोजित करने के लिए
व्रत,उपवास,संयम की परम्परा बनी रही । नवरात्रि मूलतः शाक्त सम्प्रदाय का पर्व है।
जिसे विभिन्न प्रदेशों में विविध रूप में बनाया जाता है। कहीं व्रत रखा जाता है, तो
कहीं बलि दी जाती है, कहीं नृत्य गान के साथ यह पर्व मनाया जाता है। कौल, अघोर, कापालिक
आदि सम्प्रदायों में बिना मद्य-मांस के शक्ति उपासना ही नहीं होती है । समय आगे
बढ़ा तो सनातन के शाक्त,शैव,वैष्णव,गाणपत्य,शौर्य सम्प्रदाय आपस में अन्तर्भुक्त
हो गये,जबकि सभी सम्प्रदायों की आचार संहितायें एक दूसरे की विपरीत भी थी। नवरात्रि
या पर्वों को मनाने में विविधता का यही कारण है।अब बात
शास्त्रों की करें तो सभी सम्प्रदायों के शास्त्रों में व्रत-उपवास के आचार-
व्यवहार में मतभेद है। बात नवरात्रि के संदर्भ में हो रही तो, यह मूलतःशाक्त
सम्प्रदाय का पर्व है। शाक्त ग्रंथों में व्रत, पूजा, साधना, उपासना की विधियों
में देश-काल के अनुसार विविधता है।
इसलिए व्रत में खाने-पीने को लेकर कोई स्पष्ट निर्देश
नहीं है। इसका कारण देश-काल है, जिस इलाके में जो चीजें उपलब्ध होती है, उन्हीं का
सेवन करने की परम्परा है। कुछ ग्रंथों के अनुसार एक दिन से अधिक समय के व्रत में
कोई स्पष्ट नियम नहीं है, देश-काल, शारीरिक क्षमता और परम्पराओं के अनुसार व्रत
रखना चाहिए। बहुत सारे ऐसे सम्प्रदाय भी हैं जो व्रत न रख कर साधनायें करते हैं,जो
नवरात्रि में आमिष द्रव्यों से भी भोग लगाकर सेवन करते हैं। कुछ लोग दिन में व्रत
रख कर शाम को पूजा करने के बाद सामान्य भोजन कर लेते हैं, कुछ लोग रात्रि में व्रत
रखकर सुबह भोजन कर लेते हैं। परन्तु कुछ लोग पूरे नौ दिनों तक व्रत रखते हैं।
हालाँकि
शाक्त परम्परा के अनुसार सात दिन ही व्रत का होता है, अष्टमी की रात में देवी को
पूड़ी-हलवा चढ़ाकर, प्रसाद ग्रहण करने का विधान भी है। नवमी को बलि व हवन करने का विधान है।
अभी
अधिक नहीं, बस तीस-चालीस साल पहले बासंतिक नवरात्रि में शीतला की पूजा की जाती है।
गाँवों में आज भी बासंतिक नवरात्रि में शीतला की ही पूजा की जाती है।शीतला पूजा की
परम्परा के अनुसार नवरात्रि क्या, चैत्र
मास में हल्दी,तैल, घी, मशाले,गरिष्ठ भोज्य वर्जित होते थे। पर आज मीडिया के कथित
धर्म विशेषज्ञों के कारण बासंतिक नवरात्रि को नवदुर्गा की पूजा बना दिया गया है। मध्य
भारत के आदिवासी लोग शीतला को सभी रोगों को ठीक करने वाली चिकित्सक देवी माना जाता
है, इसके विपरीत उत्तर भारत शीतला को देवी मानते हुए भी चेचक रोग मान लिया गया।
लोक पूजित यही शीतला, पुराणों में सप्त मातृका हो जाती है। शक्ति उपासना परम्परा
में दुर्गा पूजा मूलतः बंगाल की परम्परा है, अन्यथा पूरे देश में शीतला, काली, माया,
सप्त मातृका, दस महाविद्या व कुलदेवियों की पूजा होती है।
फिलहाल इस सामाजिक संक्रमण काल में आजकल पूरे नौ
दिन के व्रत की परम्परा बन गयी है। इसलिए ऐसे लोगों को लिए खान-पान की जानकारी
आवश्यक है। खास कर शहरी व समृद्ध लोगों को इसकी अधिक जरूरत है, क्योंकि वे
नवरात्रि में बाजार निर्देशित उपलब्ध फल, देशी घी में बने लजीज व्यंजनों का कुछ
अधिक ही प्रयोग करते हैं,जैसे सिंघाड़े का आटा, साबूदाना, तीनी चावल की खीर, घी
में बना हलवा,घी में भुना मखाना, बाकला के आटे के पकौडे आदि । पुराने समय में ये
स्थानीय चीजे थी,जिस इलके में जो उगता था उसी का प्रयोग किया जाता था। अब बाजार ने
सब जगह, सब चीजें पहुँचा दिया है। इसलिए प्रकृति के अनुकूल हो या प्रतिकूल,बाजार
में उपलब्ध सभी वस्तुओं को खाने लगे हैं।
परन्तु
यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि यह बासंतिक नवरात्रि है, इसलिए इस व्रत में
आयुर्वेदीय बसंत ऋतुचर्या का पालन करना स्वस्थ रख सकता है। प्रसिद्ध शाक्त ग्रंथ कंकाल
मालिनी तंत्र में माँ पार्वती के प्रश्न का उत्तर देते हुए महादेव शिव कहते हैं कि
देह है तभी धर्म है,इसलिए यत्न करके देह
के स्वास्थ्य की रक्षा करनी चाहिए । बालक,वृद्ध,रोगी को व्रत-उपवास न कर स्वस्थ
रहने के का यत्न करना चाहिए ।
आयुर्वेद
के अनुसार शीत काल में शरीर में जल तत्व (रसधातु) संचित हो जाता है,जो सूर्य का
ताप बढ़ने से बसंत ऋतु में तरल होने लगता है। पाचन शक्ति कमजोर होने लगती है,जिससे
फ्लू, श्वास संबंधित रोग ,खाँसी, बुखार, कफज ज्वर आदि विकारों की संभावना होती है।
इससे कफ प्रकृति को लोग अधिक प्रभावित होते है, वात प्रकृति लोग कम तथा पित्त
प्रकृति को लोग नाम मात्र के प्रभावित होते है। मेटाबोलिज्म अर्थात पाचन प्रक्रिया
कमजोर होने के कारण इम्यूनिटी कमजोर हो
जाती है।जिससे रोगों के संक्रमण की संभावना अधिक होती है। इस स्थिति में लंघन
अर्थात भोजन न करना लाभदायक होता है। संभवतः इसी उद्देश्य से नवरात्रि व्रत की
परम्परा विकसित हुई होगी। जिसमें लघु अर्थात सुपाच्य आहार लेना चाहिए। कोई भी आहार
इतना ही लेना चाहिए कि डकार न आये या पेट में भारीपन महसूस न हो। अम्लीय, खट्टे, अधिक
मीठे, ठंडे, फ्रिज में रखी गयी सामग्री नहीं लेनी चाहिए।
व्रत
के समय मीठे फल जैसे सेब, अनार, केला, मेवे आदि उतना ही लेना चाहिए जितने से पेट
भारी न हो। कंद में आलू, कंद,उबाल कर सैंधा नमक,जवाखार के साथ अल्प मात्रा में लेना
चाहिए। शालि चावल की खीर, खिचड़ी, सिंघाड़े के आटे का बिना घी का हलवा,मखाना,परवल,काली
मिर्च,जीरा,सौंफ,दूध,दही नारियल का पानी आदि लाभदायक होता है। यहाँ यह ध्यान रखना
आवश्यक है कि कोई भी द्रव्य लगातार नहीं लेना नहीं लेना चाहिए। नौ दिनों के व्रत में
आहार में विविधता होनी चाहिए। इससे शरीर में सारे तत्वों आपूर्ति होती रहती है। पूजा
व ध्यान के लिए शरीर का हल्का व स्वस्थ रहना आवश्यक है। विशेष बात यह है कि जिस
क्षेत्र में आप रह रहे हैं, उस क्षेत्र की पुरानी परम्पराओं का पालन करना
चाहिए,क्योंकि पुरानी परम्परायें प्रकृति के अनुसार विकसित हुई होती हैं।
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