चीन-भारत की बन्द खिड़कियां खोलती- रति सक्सेना की यात्रिकी -चाप स्टिक बनाम बुद्धा” -अचल पुलस्तेय*

 चापस्टिक बनाम बुद्धा के अनुसारसंस्कृति, परम्परासाहित्यसमाज, राजनीति के मामले में चीन और भारत में गहरी समानतायें हैं। यह बिडम्बना है कि सन् 1962 के युद्ध के बाद हमारे मन में चीन के प्रति इतनी कटुता बैठ गयी कि हम चीन के बारे में जानने-सोचने से आज भी चूक रहे हैं। जबकि व्यापार के सारे रास्ते इस तरह खोल दिये गये हैं कि शायद ही कोई भारतीय परिवार ऐसा होगा, जिसके घर में कोई चीनी उत्पाद नहीं होगा, पर सांस्कृतिक-साहित्यिक, सामाजिक रिश्तों की खिड़कियाँ आज भी मजबूती से बन्द हैं।  

विविध संस्कृतियों-सभ्यताओं को जानने-समझने में यात्राओं की महत्व पूर्ण भूमिका रही है। परन्तु आज सूचना क्रांति के दौर में देश-दुनिया की संस्कृतियों-सभ्यताओं को जानने-समझने के बहुत सारे माध्यम उपलब्ध है,फिर भी वे एक कवि-लेखक की यात्रा का विकल्प नहीं बन सकती है। क्योंकि कवि-लेखक की संवेदनशील दृष्टि उन कोनों में भी चली जाती है,जिसे सत्ता या समाज द्वारा छिपाने की कोशिश की जाती है।

वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय कवि, विचारक रति सक्सेना की चीन यात्रिकी चाप स्टिक बनाम बुद्धापढ़ने के बाद तो मुझे ऐसा ही लग रहा है ।
लेखक-रति सक्सेना

रति जी ने अपनी चीन यात्राओं में चीनी सभ्यता-संस्कृति को इतनी गहराई से देखा-समझा है कि उनकी यात्रिकी “चापस्टिक बनाम बुद्धा”  दशकों से बन्द चीनी-भारतीय संस्कृति-सभ्यता की अनेक खिड़कियाँ खोल देती है। डा.रति तीन इन्टरनेशनल पोयेट्री फेस्टीवल्स (सन् 2014/16/18)  में भाग लेने किए चीन गयीं थी,परन्तु यत्र-तत्र भ्रमण करते हुए उनकी पैनी नजर से चीनी सभ्यता-संस्कृति से भारतीय रिश्ते नहीं छुप सके।

चापस्टिक बनाम बुद्धा के अनुसार संस्कृति, परम्परा, साहित्य, समाज, राजनीति के मामले में चीन और भारत में गहरी समानतायें हैं। यह बिडम्बना है कि सन् 1962 के युद्ध के बाद हमारे मन में चीन के प्रति इतनी कटुता बैठ गयी कि हम चीन के बारे में जानने-सोचने से आज भी चूक रहे हैं। जबकि व्यापार के सारे रास्ते इस तरह खोल दिये गये हैं कि शायद ही कोई भारतीय परिवार ऐसा होगा, जिसके घर में कोई चीनी उत्पाद नहीं होगा, पर सांस्कृतिक-साहित्यिक, सामाजिक रिश्तों की खिड़कियाँ आज भी मजबूती से बन्द हैं।  

रति जी यह महसूस करती हैं कि पूरी दुनिया के मनुष्यों व शासकों की यह आम प्रवृत्ति होती है, कि जो वास्तव में होता नहीं है वही दिखाने की कोशिश की जाती है।

आमंत्रित कवियों को शानदार शहर के शानदार होटल में सारी सुख सुविधायें दी जाती हैं,सजाया गया शहर,एडिटेड संस्कृति-सभ्यता का दर्शन कराया जाता है,पर सड़क पर निकलते ही असली स्क्रीप्ट सामने आ जाती है। वास्तविक चीनी उसी तरह दिखते हैं, जैसे भारत में गाँव-गरीब,स्लम के लोग दिखते हैं। फर्क यह है कि भारत के शहरों में अट्टालिकाओं के आस-पास गंदे नालों के किनारे झुग्गियों के रूप में काम करने वालों के बसेरे होते हैं, पर चीन में ये लोग सुबह आकर, शाम को अपने गाँव लौट जाते हैं। चीनी वैभव रात में उन्हीं श्रमिकों को शरण नहीं दे पाता है, जिनके श्रम पर वह खड़ा है।

चीन-भारत की संस्कृति-समाज और प्रवृत्ति में भाषा के अलावा कोई खास फर्क नहीं है। वहाँ भी गाँव अतीत के दुर्भिक्ष को जी रहे हैं, यहाँ भी । वहाँ भी शहर समृद्धि, ऐश्वर्य से सजे हैं, यहाँ भी । वहाँ भी आम आदमी जीने की जद्दो-जहद में फँसा है यहाँ भी । वहाँ का उच्च मध्यम वर्ग भी अपने बच्चों के अमेरिका भेजने को बेताब है यहाँ का भी। चीनी समृद्ध वर्ग भी सदियों से भूक्खडपन में बहुत कुछ खा लेना चाहता है, भारतीय समृद्ध वर्ग भी खा लेना चाहता है।

चीन में भी आदिवासियों को सजावट के लिए यूज किया जाता है भारत में भी । चीनी आदिवासियों की जमीनें भी वैभव-विकास के लिए छीनी जा रहीं हैं तो भारतीय आदिवासियों की भी छीनी जा रही हैं।

गोरी चमड़ी के अंग्रेजी लोगों के प्रति जितना आकर्षित हम भारतीय होते हैं उतना ही चीनी भी होते हैं। वहाँ के लेखक भी नोबेल,आस्कर,बुकर के लिए लालयित रहते हैं यहाँ के लेखक भी। सवाल भाषाई फर्क का है तो वह भारत के विभिन्न प्रदेशों में मिल जाता है। शायद इसी समानता की वजह से दोनों देशों की सभ्यताओं- संस्कृतियों के पूर्वी सभ्यता- संस्कृति माना जाता है।

यह किताब चीन-भारत में जहाँ इतनी गहरी समानतायें बताती हैं, वहाँ हम चीन को बस अतीत के अफीमचियों,वर्तमान में कम्युनिस्ट तानाशाही और सस्ते सामान के निर्यातक के रूप जानते हैं ।

तीसरी यात्रा में रति जी चीन के युन्नान प्रांत जाती है, जहाँ डेल वैली में ले जूयीजनजाति के 600 साल पुराने गाँव में ठहराया जाता है। इस गाँव को धरोहर के रूप में संरक्षित किया जा रहा है। जिसके के लिए सरकार के साथ कलाकार, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, छोटे कारोबारी भी भागीदारी कर रहे हैं। ढहती-गिरती दीवारों को पुराने मटेरियल से, पुरानी शैली में बनाया गया है, अभी भी बनाया जा रहा है। दुनिया के साहित्यकारों, विचारकों, कलाकारों के कार्यक्रम अक्सर यहीं आयोजित होते हैं। प्राचीन शैली में बिना किसी नौकर के घर के ही लोग या यानि छात्र-छात्रायें झाड़ू-पोछा,खाना बनाने, खिलाने का काम करते हैं। खपरैल, मिट्टी, घास बाँस के बने घरों की शैली बिल्कुल भारतीय है। इस मामले में हम बेहद लापरवाह है, हम तो विकास के लिए इतने आतुर है,जितना जल्द हो सकता है उतना जल्द प्राचीन धरोहरों, गाँवों को मिटा देना चाहते हैं। हम मंदिरों, ऐतिहासिक भवनों को भी नहीं बदल दे रहे हैं। भाषा के अलावा यह नीतिगत फर्क है चीन और भारत में ।

चीन के आदिवासियों के संदर्भ में एक खास बात यह भी है कि वे बौद्ध होने के बावजूद परम्परागत ताओ धर्म व देवी-देवताओं को अपनाये हुए हैं। यह प्रवृत्ति भारत के पूर्वोत्तर की जनजातियों में देखा जाता है,जो ईसाई होने के बावजूद अपनी पुरानी परम्पराओं-पर्वों को नहीं छोड़े  हैं।

आदिवासियों के इस प्रवृत्ति को जानकर मुझे यह समझ में आया कि  चीनी मूल के अहोम, बोडो, कोच राजा-प्रजा ने कैसे इतनी सहजता से शैव-शाक्त परम्परा को अपना लिया । कारण स्पष्ट है,शिव-शक्ति,गणेश, विष्णु, तारा जैसे देवता चीन के प्राचीन धर्म ताओ में भी हैं। इसी लिए ये जातियाँ  आसानी भारतीय परम्परा में रच-बस गयी ।

 एक सांस्कृतिक अध्ययन यात्रा कुरुना से कामाख्याके दौरान  मुझे अहोम, बोडो, कोच आदि आदिम जातियों से मिलने का अवसर मिला, जिससे पता चला कि वे चीनी मूल के युन्नान मोंग माओं लुंग आदिम  कबीले से हैं, उनका प्राचीन धर्म ताओ है । आज शिव-शक्ति के उपासक बन जाने के बाद भी ताओ परम्परा को नहीं छोड़ पाये  हैं। इसका कारण चीन की ताओ और भारत की शैव-शाक्त परम्परा में मौलिक समानतायें हैं।

 यह किताब चीनी संस्कृति-समाज और परम्पराओं के उन गुप्त दरवाजों खिड़कियों को खोल देती है, जिससे झाँकने पर लगता है चीनी-भारतीय संस्कृतियाँ मौसेरी बहने हैं।

यहाँ भारत के संदर्भ में खेदजनक पहलू यह है कि चीन की कम्युनिस्ट तानाशाही सत्ता अपने आदिवासी परम्पराओं, वास्तु, जीवन शैली को सहेज कर संरक्षित कर रही है और हमारी लोकतांत्रिक सत्ता आदिवासी संस्कृति, परम्पराओं, वास्तु, जीवनशैली को खत्म करने आमदा है। मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, उड़िसा आदि खनिज व वनसम्पदा से समृद्ध राज्यों में औद्योगीकरण  के बहाने आदिवासी गाँवों को उजाड़ कर आधुनिक मकानों में बसाया जाता है या  स्वतंत्र, समृद्ध गाँवों की छीन कर शहरी लेबर बनने को विवश किया जा रहा हैं,जहाँ वे अपनी संस्कृति-परम्परा से दूर हो रहे हैं।

रति जी का यह यात्रावृतांत चीन के अलावा अन्य देशों से आये साहित्यकारों और उनकी प्रवृत्तियों से भी परिचित कराती है, जिसे पढ़कर लगता है कि पूरी दुनिया के लेखक समुदाय की प्रवृत्तियाँ और समस्यायें एक जैसी होती हैं।

"चाप स्टिक बनाम बुद्धा" के अंतिम चैप्टर में एक महिला कवि हम्बूदियार के बारे में रति लिखती हैं- "बेहतरीन चीनी कवि हैं,उतनी ही बेहतरीन योग प्रशिक्षक के साथ प्राचीन चीनी चिकित्सक भी हैं। पूर्णतःशाकाहारी बुद्ध धर्म की अनुयायी हैं। यिन-यान सिद्धांत के अनुसार चिकित्सा करती हैं। "

हम्बूदियार के बारे में जान कर मुझे लगा कि मैं भारत का हम्बूदियार हूँ,बस जेंडर का ही तो फर्क है। आयुर्वेद चिकित्सक होकर साहित्य, संस्कृति, कविता कहानी में मैं भी टांग अड़ा रखा हूँ। भारत में ऐसे लोगों को प्रकाशक-समीक्षक, सम्पादक साहित्य का विजातीय पदार्थ मानते हैं। इसका सबसे अच्छी नजीर खुद रति जी हैं,जिनकी किताबें विदेशों में छपने के बाद भारतीय प्रकाशकों नजर में आयी, फिर भी नामचीन प्रकाशकों की नजर आज भी नहीं पड़ सकी है ।

यहाँ बात योग प्रशिक्षक, प्राचीन विधा की चिकित्सक हम्बूदियार की हो रही थी। एक संवेदनशील चिकित्सक के अंतस में निश्चित ही एक साहित्यकार बैठा होता है, क्योंकि  देह के स्वास्थ्य़ के लिए जितना जरूरी चिकित्सा विज्ञान है,मन के स्वास्थ्य के लिए उतना ही जरूरी साहित्य है। हाँ, यदि विशुद्ध व्यावसायिक चिकित्सक है तो ऐसा बिल्कुल संभव नहीं है। आज चिकित्सा के व्यावसायिकरण का ही परिणाम है कि देह की चिकित्सा कराते-कराते आदमी का मन बीमार हो जाता है। फिलहाल बात चीनी चिकित्सा की करते हैं,क्योंकि चीनी चिकित्सा पद्धति, भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद जैसी ही है। दोनों चिकित्सा पद्धतियाँ देह,मन और प्रकृति तीनों के संतुलन को ही वास्तविक स्वास्थ्य मानती हैं।

उधर यिन-यान चीन के प्राचीनतम धर्म "ताओ" दर्शन का आधार है। " भारत के पूर्वोत्तर की नागा,कूकी,मिसी,अहोम आदि जनजातियाँ आज भी ताओ धर्म को उसी तरह मानती हैं,जैसे उत्तर भारत में आदिम, पिछड़ी, दलित जातियाँ अपने लोक देवी-देवताओं के साथ ही वैदिक-पौराणिक धर्मों को भी मानते हैं। हालाँकि भारत सरकार व अध्येताओं के नजर अभी तक भारतीय ताओ धर्म नहीं पड़ सकी है।  

ताओ धर्म के यिन-यान दर्शन के अनुसार पूरा ब्रह्माण्ड और जीव जगत यिन-यान से बना है। यिन-यान के असंतुलन से रोग होता है,उसे संतुलित करने के उपाय ही चिकित्सा है । यिन-यान का संतुलन ही स्वास्थ्य है । ली सी जडं को इस चिकित्सा विधा का जनक माना जाता है।

इधर भारत के शाक्तों-तांत्रिकों ने यिन-यान सिद्धात को शिव-शक्ति कहा है,जिनसे ब्रह्माण्ड का सृजन हुआ,वही कुंडलिनी के रूप में हर देह में व्याप्त हैं,जिनका असंतुलन ही व्याधि है,संतुलन ही स्वास्थ्य है। इस विषय पर मैंने अपनी किताब "श्रीविद्याचक्रर्चन महायाग" में विस्तृत प्रकाश डाला है। इसे ही आज के वैज्ञानिक मेटा फिजिक्स,क्वांटम फिजिक्स. बिगबैंग थ्योरी के रूप में देख रहे हैं। यिन-यान सूत्र को वृहदारण्यक उपनिषद् में यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे के रुप व्यक्त किया गया,जो भारतीय चिकित्सा विधा आयुर्वेद का आधारभूत सूत्र है।

आगे रति जी लिखती है कि " हम्बूदियार की चिकित्सा विधा को चीनी में "पिनयिन ज्यु" तथा अंग्रेजी में मोक्सीबुशन कहा जाता है। जिसमें Mugwort नामक वनौषधि का धूवां देकर चिकित्सा की जाती है। मुगवर्ट का बाटनीकल नाम अर्टेमिसिया वल्गेरिस है। जिसे भारत में दवना या दमनक कहा जाता है। इसकी पत्तियाँ सुगंधित होती है,अनेक लोक देवी गीतों में दवना को देवी प्रिय कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार यह दीपन, पाचक, एण्टीस्पाजमोडिक, आर्तव -जनक, ब्रणनाशक है।

कवि चिकित्सक हम्बूदियार कहती है कि योग देह की प्राकृतिक स्वभाविक स्थिति में लाने की विधा है। जिसे भारत में एक्सर साइज बना दिया गया है। यही बात तो भारत में तंत्र की लोक साधिका नैना जोगिन भी कहती है।  रति जी की यह किताब चीनी सभ्यता, परम्परा, राजनीति, समाज,अर्थ, विज्ञान को समझने के अनेक द्वार खोलती है।

इस तरह मुझे लगता है, चीन और भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक, दार्शनिक रिश्तों को समझने के लिए रति सक्सेना की चाप स्टिक बनाम बुद्धा पढ़नी जरूरी है।

किताब- चापस्टिक बनाम बुद्धा लेखक-रति सक्सेना,
प्रकाशक-न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली
मूल्य-225
(* समीक्षक-कवि,कथाकर,लेखक,समीक्षक,विचारक
स्तम्भकार हैं।)

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