चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में महिला चिकित्सक- डॉ.अनुश्रीयम कीर्ति

 भारत के स्वास्थ्य व्यवस्था कुल मान्य सात चिकित्सा पद्धतियाँ है।एलौपैथी के अलावे 6 चिकित्सा पद्धतियों को आयुष(AYUSH) के रुप में जाना जाता है जिसमें आयुर्वेद, योग, यूनानी,सिद्धा,होम्योपैथी व सोवारिंग्पा है।ऐलोपैथी की तरह यूनानी और होम्योपथी पश्चिम दुनियाँ में विकसित हुई।आयुर्वेद योगा,सिद्धा,सोवारिंग्पा भारतीय मूल की चिकित्सा पद्धतियाँ है।जिसमें सबसे अधिक प्रसारित-प्रतारित आयुर्वेद ही है।


चिकित्सा विज्ञान इतिहास में महिला चिकित्सक 

                                                                          डॉ.अनुश्रीयम कीर्ति

भारत के स्वास्थ्य व्यवस्था कुल मान्य सात चिकित्सा पद्धतियाँ है।एलौपैथी के अलावे 6 चिकित्सा पद्धतियों को आयुष(AYUSH) के रुप में जाना जाता है जिसमें आयुर्वेदयोगयूनानी,सिद्धा,होम्योपैथी व सोवारिंग्पा है।ऐलोपैथी की तरह यूनानी और होम्योपैथी पश्चिम दुनिया में विकसित हुई।आयुर्वेद योगा,सिद्धा,सोवारिंग्पा भारतीय मूल की चिकित्सा पद्धतियाँ है।जिसमें सबसे अधिक प्रसारित-प्रतारित आयुर्वेद ही है।

आयुर्वेद के पास विपुल साहित्य का भंडार है।अनेक ऋषियों-आचार्यो की चर्चा है,जिनके द्वारा रचे गये ग्रंथ है,परन्तु यहाँ यह तथ्य़ आश्चर्य जनक लगता है कि महिला आचार्यो, चिकित्सको की संख्या नगण्य सी है।इतिहास में गहराई से झाँकने पर मात्र एक महिला चिकित्सक सम्राट अशोक की माँ सुभद्रांगी का नाम मिलता है,पर उनके द्वारा लिखित न कोई साहित्य है न आयुर्वेद साहित्य में उनका उल्लेख है।

तमिल चिकित्सा विज्ञान सिद्धा में माँ पार्वती का उल्लेख है,जिसके अनुसार महादेव शिव ने माँ पार्वती को सबसे सिद्धा चिकित्सा का उपदेश दिया जा,आगे चलकर महर्षि अगस्त्य की शिष्या उर्वशी चिकित्सा आचार्या है,परन्तु इनका भी कोई ग्रंथ नहीं हैं।मध्य भारत के गोंड़-भील आदिवासी आदिवासी समुदाय में माँ शीतला को रोग रक्षिणी देवी के रुप में पूजा की जाती है।

बौद्ध कालीन आयुर्वेद एवं तिब्बती चिकित्सा सोवारिंग्वा में अमृता देवी और मंजुश्री नामक कुशल चिकित्सकों का उल्लेख हैं। जिन्हें सोवोरिंग्पा के जनक मेल-ला बुद्ध नें चिकित्सा विज्ञान का उपदेश दिया था,पर इनके द्वारा लिखित कोई ग्रंथ नही है।जबकि एक सत्य है प्रसव विशेषज्ञ के रूप में हर गाँव-कबीले में महिला विशेषज्ञ हुआ करती थी।लोकगीतों और लोककथाओं में अपरिष्कृत इतिहास होता है।भोजपुरी में सोहर गीत में बेटे के जन्म के समय गायी जाने वाली गीत है।मेरी माँ अब भगवान राम के जन्म का सोहर गीत गाती कभी-कभी गा देती है इसे पारिश्रमिक के रुप में सोने की असर्फियाँ देने का भी वर्णन है ।जिसमें सोने के हँसिये से भगवान राम का नार(नाल) चमइन द्वारा काटने का वर्णन है।जन्म के इस महत्वपूर्ण कार्य को आज चिकित्सक करते है।प्राचीन काल की बात नहीं अभी 30-40 साल पहले तक हमारे गाँव में फसल काटने वाली लोहे की हँसिये को आग में गर्म कर नाल काटा जाता था,संभव है आज भी यह प्रथा किसी अविकसित इलाके में हो,पर यह खेदजनक है कि हमारी अमानवीय व मूँढ समाज में परम्परागत रूप से इस महत्वपूर्ण चिकित्सकीय कार्य को करने वाली महिलाओं को अछूत कह दिया गया।उन्हे पारिश्रमिक के रूप में इतना भी नही दिया जाता था कि उसका सम्मानपूर्वक जीवन यापन हो सके।इस नकारात्मक प्रवृत्ति के कारण स्त्रीरोग व प्रसव कार्य करने में प्रबुद्ध लोग पीछे हट गये।महिला चिकित्सकों ने इसे पेशे के रूप में अपनाना बन्द कर दी।हमारे गाँव मे चमइन के अलाव एक मुस्लिम महिला थी जो गुलाबी बुआ के नाम से प्रसिद्ध थी,उन्होने अपने जीवन काल में आप-पास के गाँवो की लगभग 20 हजार आबादी की तीन पीढीयों का सुरक्षित प्रसव कराया होगा।चिकित्सा सुविधाओं के बढने के पश्चात लगभग 1980 से स्थानीय ग्रामीण चिकित्सकों से सहयोग का आदान-प्रदान भी करने लगी थी।

पर आयुर्वेद के आधुनिक काल में मा.आचार्या प्रेमवती तिवारी ने स्त्रीरोग विज्ञान पर विशद ग्रंथ लिख कर इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात किया।आज विश्व में आयुर्वेदीय स्त्रीरोग विज्ञान सभी आचार्यायें माननीया प्रेमवती तिवारी की ही शिष्यायें हैं।आज वर्तमान में यह देखने में आ रहा है कि आयुर्वेद के शिक्षण से लेकर चिकित्सा और छात्राओं के रुप में स्त्रीरोग विज्ञान ही नहीं प्रत्येक रोगाधिकार में पुरुष चिकित्सकों समानान्तर स्त्रीयों की संख्या हो रही है।इसलिए यह कहा जा सकता है कि आयुर्वेद में स्त्री वैद्यो का यह स्वर्णकाल है,जबकि यह भी सत्य है कि अभी आयुर्वेद विधा को अभी पूर्णतःअपनाने का कार्य शेष है।


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