अचल पुलस्तेय का यह काव्य संग्रह 2018 में प्रकाशित हुआ और यह उनके पहले संग्रह "लोकतंत्र और नदी" की सफलताओं के बाद आया। लेखक की कविता का मूल उद्देश्य देश-समाज में व्याप्त विडंबनाओं, असमानताओं और जटिलताओं को सहज, परंतु तीव्र भाषा में उजागर करना है। उनका मानना है कि कविताएँ केवल शिल्प या सौंदर्य का माध्यम नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति की नयी तकनीक हैं, जो सामाजिक यथार्थ को सीधे प्रभावित करती हैं।
काव्य-संग्रह का विषय और रूपक
संग्रह का मुख्य रूपक रेलगाड़ी है, जो कवि के अनुसार भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण लोकतंत्र का प्रतिबिंब है। इस रूपक में रेलगाड़ी के विभिन्न डिब्बों को समाज की वर्ग व्यवस्था, आर्थिक असमानताओं और राजनीतिक स्थितियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जनरल डिब्बे से लेकर एसी डिब्बे तक, हर डिब्बा और उसमें बैठे लोग देश की सामाजिक-आर्थिक विविधताओं को दर्शाते हैं।
रेलगाड़ी की चलने की गति, उसकी
दुर्घटनाएँ, स्टेशन पर भीड़-भाड़,
टिकट व्यवस्था और यात्रियों के व्यवहार
के माध्यम से देश की राजनीतिक, सामाजिक,
आर्थिक और सांस्कृतिक दशा को गहराई से
समझाया गया है। यही रूपक इस संग्रह की सबसे बड़ी ताकत है, जो सहजता से जटिल राजनीतिक चिंतन को आमजन की भाषा में
अनुवाद करता है।
भाषा और शैली
अचल पुलस्तेय की भाषा सरल, सहज और जन-उन्मुख है। वे जटिल राजनीतिक-आर्थिक
विषयों को भी सहज भाषा में प्रस्तुत करते हैं, जिससे हर वर्ग का पाठक जुड़ाव महसूस करता है। उनकी
कविताओं में कहीं-कहीं तीव्र व्यंग्य और आलोचनात्मक दृष्टि है, लेकिन वे अतिशयोक्ति या कटुता से बचते हैं। इस
प्रकार उनकी कविताएँ गंभीर विषयों को भी बिना बोझिलता के सशक्त तरीके से प्रस्तुत
करती हैं।
मुख्य कविताओं और विषयों का सार
"लोकतंत्र और रेलगाड़ी"
संग्रह की शीर्ष कविता है, जो रेलगाड़ी को लोकतंत्र का रूपक बनाकर इसकी
विभिन्न अवस्थाओं—चलना, रुकना,
दुविधाएँ, यात्री वर्गीकरण, सामाजिक असमानता—को बखूबी उजागर करती है। यह कविता देश
के लोकतंत्र की विविधता, उसमें
छुपे विसंगतियों और उसकी यथार्थताओं को दर्शाती है।
"रेलयात्री"
इस कविता में जीवन की रेलयात्रा की
रूपकात्मक व्याख्या है, जिसमें
जीवन के सफर में मिलने-जुलने, अलग
होने और अकेलेपन की पीड़ा को संवेदनशील तरीके से चित्रित किया गया है।
"विकास की रेलगाड़ी"
यहां विकास की धीमी, कष्टपूर्ण प्रक्रिया की चर्चा है। कवि कहते
हैं कि विकास तो हो रहा है परन्तु भ्रष्टाचार, अक्षमता और सामाजिक विसंगतियाँ अभी भी बाधा हैं।
"विज्ञान और अंधविश्वास"
विज्ञान की प्रगति और उसके साथ बढ़ते
सामाजिक-मानवीय संकटों की आलोचना की गई है। यहाँ विज्ञान को एक नए अंधविश्वास के
रूप में देखा गया है जो इंसानी संवेदनाओं को दबा देता है।
"हिन्दी दिवस"
इस कविता में हिंदी भाषा की वर्तमान
स्थिति पर व्यंग्यात्मक दृष्टि है। कवि हिंदी के राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व को
समझते हुए उसकी वास्तविक स्थिति और उससे जुड़े विरोधाभासों को उजागर करते हैं।
"अमीर और सभ्य"
इस कविता में औपनिवेशिकता और विकास के
नाम पर हुई सामाजिक विसंगतियों को दिखाया गया है। जहां संसाधनों और प्राकृतिक
धरोहरों से वंचित होकर भी लोग "सभ्य" बनने के आडम्बर में खुद को खो देते
हैं।
"लोकतंत्र का सच"
लोकतंत्र की वास्तविकता और जनता की
असहायता को अभिव्यक्त करती यह कविता शक्तिशाली है। यह बताती है कि चुनाव के बाद
सत्ता का नियंत्रण किस प्रकार जनता से छिन जाता है और कैसे बुद्धिजीवी एवं राजनेता
जनता की उम्मीदों को धोखा देते हैं।
"युद्ध के गीत"
युद्ध की क्रूरता, उसमें शामिल सैनिकों की पीड़ा और सत्ता के
भड़काने वालों के द्वैत चरित्र का मार्मिक चित्रण करती है।
सामाजिक और राजनीतिक प्रतिबिंब
कविताएँ सीधे-सीधे देश की राजनीति,
सामाजिक असमानता, आर्थिक विषमता, भ्रष्टाचार, धार्मिक कट्टरता, भाषा-संस्कृति
की राजनीति आदि पर कटाक्ष करती हैं। वे आम आदमी की दयनीय स्थिति से लेकर सत्ता के
ऊंचे शिखरों तक सबको अपने दर्पण में दर्शाती हैं।
संग्रह की समग्र भूमिका
यह संग्रह न केवल एक साहित्यिक कृति है,
बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है। यह
पाठक को सोचने, सवाल उठाने और
बदलाव के लिए प्रेरित करता है। कवि की सोच में गंभीरता है, लेकिन वह निराशावादी नहीं है; वे चाहते हैं कि उनकी कविताएँ समाज में बदलाव का बीज
बोएं।
निष्कर्ष
अचल
पुलस्तेय का "लोकतंत्र और रेलगाड़ी" आधुनिक भारतीय काव्य जगत में एक
महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह संग्रह लोकतंत्र की जटिलताओं को समझने का एक
व्यावहारिक और भावुक प्रयास है, जो देश
के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करता है। भाषा और
शैली की सहजता के कारण यह काव्य संग्रह व्यापक पाठकवर्ग तक प्रभावी ढंग से पहुंचता
है। यह संग्रह समकालीन भारतीय समाज की गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है और सामाजिक
चेतना के विकास में सहायक है।
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