नवरात्र का संबंध मूलतः ऋतु परिवर्तन और कृषि चक्र से रहा है। शरदीय नवरात्र को अक्सर शारदीय कहा जाता है, पर वास्तव में यह शरद ऋतु की शुरुआत का पर्व है। जब काल गणना की वैज्ञानिक विधियाँ विकसित नहीं हुई थीं, तब ऋतु परिवर्तन की पहचान पेड़ों में फूल आने और खेतों में फसल के बोने-पकने से की जाती थी। यही संक्रमण काल नवरात्र कहलाया। ऋतु चक्र को चार नवरात्रियों में बाँटा गया—माघ में सरसों के फूल के साथ बसंत का आगमन, चैत्र में पलाश के फूल से ग्रीष्म की शुरुआत, आषाढ़ में कदम्ब के फूल के साथ वर्षा का आरंभ और आश्विन में कुश-कास के फूलों के साथ शरद का प्रवेश। ये सभी नवरात्रियाँ खेती, कटाई और नयी फसल के उत्सव से जुड़ी थीं।
आदिम समाज मातृप्रधान था और धरती को भी माँ माना जाता था, क्योंकि वही अन्न देती थी। विवाह संस्था सुदृढ़ नहीं थी, कुलदेवी ही सबसे बड़ी संरक्षिका थी। नयी फसल का अन्न सबसे पहले कुलदेवी को अर्पित किया जाता था। नवरात्र के अनुष्ठान इस मातृपूजा के ही रूप थे। आज से मात्र तीन-चार दशक पहले तक गाँवों में पूजा के लिए खेत में उपजे अन्न और फूल ही प्रयुक्त होते थे। शरदीय नवरात्र में नये धान के लड्डू, बेल फल और कुमुदिनी के फूल विशेष होते थे। बाजार से पूजा सामग्री लाने की परंपरा अपेक्षाकृत नई है। हालांकि असम, मणिपुर, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे आदिवासी क्षेत्रों में आज भी त्यौहार पारंपरिक रूप से मनाया जाता है।
समय के साथ लोक परंपराएँ शास्त्र में रूपांतरित हुईं। शक्ति उपासना में लोक देवियाँ—काली, तारा, कामाख्या, सिरिया—शास्त्रीय रूप ग्रहण कर पूरी एक धार्मिक धारा बन गईं। धीरे-धीरे वैदिक और अवैदिक सम्प्रदाय—सौर्य, गाणपत्य, वैष्णव, शैव, शाक्त—एक साथ मिलकर आज के सनातन धर्म का हिस्सा बने। वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे लोकशास्त्री मानते हैं कि मातृपूजा मूलतः निषाद, कोल, भील, किरात, गोंड, कोच और मीजो जैसे समुदायों की परंपरा थी, जो आगे चलकर वैदिक संस्कृति में अंतर्भुक्त हो गई। यही कारण है कि वेदों में देवियों के लिए बहुत कम सूक्त मिलते हैं, जबकि पुराणों में दुर्गा-महात्म्य जैसे ग्रंथ विस्तृत रूप में रचे गए।
दुर्गा पूजा का इतिहास भी इसी क्रम का हिस्सा है। 15वीं से 18वीं शताब्दी तक पूजा बिना मूर्तियों के होती थी। लोक में काली, तारा, चंडी की उपासना प्रचलित रही। बंगाल के राजा कांग्शनारायण ने 1580 में दीनाजपुर में भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन किया। 1757 में प्लासी युद्ध के बाद राजा नवकृष्ण देब ने शोभाबाजार राजबाड़ी में पूजा की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि यह आयोजन अंग्रेजों की जीत और नये राजनीतिक समीकरणों के अनुरूप था। 1770 में भयानक अकाल पड़ा, तब अंग्रेज अधिकारियों ने जमींदारों और सामंतों को सार्वजनिक रूप से पूजा आयोजित करने और जनता को अनाज उपलब्ध कराने का निर्देश दिया। यही वह समय था जब दुर्गा पूजा बारोवारी या सामूहिक रूप में आयी। 1790 में हुगली के गुर्णी गाँव में बारोवारी पूजा का पहला ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है। 1830 के दशक में कोलकाता में मंडली आधारित सार्वजनिक पूजा की शुरुआत हुई।
बीसवीं शताब्दी में दुर्गा पूजा राष्ट्रीय आंदोलन और जनचेतना का माध्यम बनी। स्वतंत्रता संग्राम में इसने जनभावनाओं को संगठित करने का कार्य किया। आगे चलकर पूजा समितियों ने थीम आधारित पंडाल, भव्य मूर्तियाँ और कलात्मक प्रस्तुति की परंपरा शुरू की। आज दुर्गा पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि संस्कृति, कला, समाज और राजनीति का संगम है, जिसे बाजार ने भी पूरी तरह अपने में समाहित कर लिया है।
इस प्रकार दुर्गा पूजा की यात्रा आदिम मातृपूजा और कृषि उत्सव से शुरू होकर शास्त्रबद्ध अनुष्ठान, राजदरबारों के आयोजन, सार्वजनिक सामूहिक पर्व और आधुनिक विश्व-स्तरीय सांस्कृतिक महोत्सव तक पहुँचती है। यह निरंतरता ही सनातन की वास्तविक परिभाषा है—परिवर्तन, परिमार्जन और परंपरा का संगम।
संदर्भ
मार्कण्डेय पुराण – दुर्गा सप्तशती
कृतिवास रामायण – अकाल बोधन की कथा
अग्रवाल, वासुदेव शरण (1952). भारतीय संस्कृति के स्वरूप
राय, निहाररंजन (1949). बांगालेर इतिहास
दत्त, रमेशचंद्र (1902). The Economic History of India
सेन, सुकुमार (1960). History of Bengali Literature
चटर्जी, रंजन (2011). History of Durga Puja in Bengal, कलकत्ता विश्वविद्यालय
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की शोध रिपोर्ट्स

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