शाक्त सम्प्रदाय ही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जो सैंधव सभ्यता से लेकर शास्त्र के बजाय लोकपरम्परा में आज तक लोकप्रिय है।बिहार से निकल कर छठी पूजा अब राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ चुका है। 40 साल पहले के इस विशुद्ध लोक पर्व को अब विद्वत जनों द्वारा सूर्योपासना निश्चित कर दिया गया है पर इसके बावजूद लोक में छठी मैया की ही पूजा होती है। इस पूजा में सूर्य को अर्ध्य देने के कारण सूर्योपासना का भ्रम होना स्वभाविक ही है।
इस क्रम में आने वाले दिनों में यह पर्व मात्र सूर्योपासना
पर्व ही रह जायेगा। आज भी विद्वानों के समुदाय के लिये यह है ही, जबकि सूर्य का
कार्तिक शुक्ल षष्टी तिथि से किसी संबंध का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। परन्तु
लोकविश्वास इतना प्रबल होता है कि वह तमाम वाद-विवादों, क्रान्तियों,
परिभाषाओं के बावजूद अपनी मौलिकता को बनाये रखती है।
इसी संस्कृति मंत्र की भी कोई जरूरत नहीं होती है, लोकगीत ही मंत्र
की तरह प्रयुक्त होते हैं। पूजन सामग्री या पूजन विधि सब लोक परम्परा द्वारा
निर्धारित है, न कि किसी शास्त्र के अनुसार। यही वह कारण भी है, जो इस पर्व को
खासकर महिलाओं व अवर्ण जातियों में लोकप्रिय करता जा रहा है। भारत की उपासना
पद्धतियों में शाक्त सम्प्रदाय ही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जो सैंधव सभ्यता
से लेकर आज तक शास्त्र के बजाय लोकपरम्परा में लोकप्रिय है।
छठ उपासना इसी परम्परा का पर्व है। शक्ति उपासना मूलतः दश महाविद्याओं के उपासना पर आधारित है, जो प्राचीनतम् व मौलिक शक्तियाँ हैं, जिन्हें क्रमशः 1.काली 2.तारा 3.भुवनेश्वरी 4.त्रिपुरसुन्दरी 5.त्रिपुरभैरवी 6.छिन्नमस्ता 7.धूमावती 8.बगलामुखी 9.मातंगी 10.कमला कहा गया है। ये शक्तियाँ प्रथम शक्ति काली की ही काल भेद है।
उपासक स्वयं अपनी रीति-नीति, श्रद्धा-विश्वास के अनुसार पूजा कर लेता है। इस लोक परम्परा के उपासना पद्धति पर अभिजात विद्वानों द्वारा अंधविश्वास कहकर आलोचना भी की जाती है, पर लोक है कि मानता नहीं। अपने विश्वास व आस्था को सैधव काल से लेकर आज तक सामयिक बदलाओं के साथ टिका हुआ है।छठ उपासना इसी परम्परा का पर्व है। शक्ति उपासना मूलतः दश महाविद्याओं के उपासना पर आधारित है, जो प्राचीनतम् व मौलिक शक्तियाँ हैं, जिन्हें क्रमशः 1.काली 2.तारा 3.भुवनेश्वरी 4.त्रिपुरसुन्दरी 5.त्रिपुरभैरवी 6.छिन्नमस्ता 7.धूमावती 8.बगलामुखी 9.मातंगी 10.कमला कहा गया है। ये शक्तियाँ प्रथम शक्ति काली की ही काल भेद है।
इसके बावजूद निश्चित क्षेत्रों; बंगाल, बिहार, उड़िसा, असम, काली पूजा व छठ पूजा परम्पराओं मे जीवित है, जो समय के साथ आज विस्तार की ओर अग्रसर है।
छठ मईया को सूर्य पूजा कहते रहो, विवेचना-आलोचना
करते रहो पर लोकमानस को कोई फर्क नहीं पड़ता, वह अपनी
उत्सवधर्मिता बनाये रखेगा, छठ मईया के गीत गा गा कर प्रकृति ने जो कुछ उसे दिया है,
उसे प्रकृति को समर्पित करता रहेगा, अनिश्चित जीवन में जीजिविषा बनाये रखेगा,
आनन्दित होने के कुछ क्षण खोज ही लेगा। पर अरुणाचल प्रदेश की आपातानी जनजाति
के लोग सूर्य को माँ ही कहते है, चन्द्रमा को पिता उनकी भाषा में सूरज दोन्यी (माँ) चन्द्रमा
(पोलो) पिता है। बात पते की है, धरती पर जीवन सूरज से ही प्रसवित है माँ है छठि मईया है।
बिहार का यह विश्वास अब अखिल भारतीय ही नही वैश्वविक होने की ओर है …छठि मईया की
जय हो !!!
#छठव्रत,

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