Issue-32 Vol.1II, Jul.-Sep.2025 pp.18-37 Paper 32-E/D32/349 अथर्ववेद के प्रेम गीत-एक अध्ययन

Issue-32 Vol.1II, Jul.-Sep.2025 pp.18-37 Paper 32-E/D32/349 

अथर्ववेद के प्रेम गीत-एक अध्ययन

 

डा. रति सक्सेना

 

के. पी. 9/ 624, वैजयन्त, चेट्टिकुन्नु, मेडिकल कॉलेज पो. ऑ तिरुवनन्तपुरम्-695011


सारांश

इस शोध लेख में डॉ. रति सक्सेना ने अथर्ववेद के मानवीय और भावनात्मक पक्ष को उजागर किया है। प्रायः वेदों को केवल यज्ञ, कर्मकाण्ड या अध्यात्म का ग्रंथ माना गया है, परंतु लेखिका यह सिद्ध करती हैं कि अथर्ववेद में प्रेम, कामना और लोकजीवन की सहज भावनाएँ अत्यंत सजीव रूप में व्यक्त हुई हैं।

उनके अनुसार जैसे-जैसे मानव सभ्यता आगे बढ़ी, वह अपनी मूलभूत प्राकृतिक भावनाओं से कटती गई — और प्रेम जैसी सहज अनुभूति को भी नैतिकता और धर्म के जाल में बाँध दिया गया। परंतु अथर्ववेद में यह प्रेम निर्भीक, स्वाभाविक और लोकधर्मी रूप में प्रकट होता है।

पाश्चात्य विद्वानों (जैसे ब्लूमफील्ड) ने इन प्रेम गीतों को अभिचारक मंत्र — अर्थात् जादू या तंत्र-मंत्र — माना, किंतु डॉ. सक्सेना के मत में यह व्याख्या भारतीय परंपरा के प्रतिकूल है। भारतीय दृष्टि में जब कोई व्यक्ति अपने प्रेम की प्राप्ति के लिए वनस्पतियों, पक्षियों, देवताओं या प्रकृति शक्तियों से प्रार्थना करता है, तो वह जादू नहीं, बल्कि लोक संस्कृति की सहज अभिव्यक्ति होती है।

लेखिका ने अथर्ववेद के ग्यारह प्रमुख प्रेम गीतों का विश्लेषण किया है, जिनमें आकर्षण, वियोग, ईर्ष्या, क्रोध, पुनर्मिलन और संतोष — सभी अवस्थाएँ व्यक्त होती हैं। इन गीतों में भाषा और प्रतीक अत्यंत काव्यात्मक और मानवीय हैं।

विशेष बात यह है कि इनमें स्त्री का स्वर प्रखरता से उभरता है — वह प्रेम में आकांक्षी भी है, क्रोधित भी, और आशीर्वाद देने वाली भी।

लेख का निष्कर्ष यह है कि अथर्ववेद केवल कर्मकाण्ड या अध्यात्म का नहीं, बल्कि मानव जीवन और प्रेम का भी महाग्रंथ है। यहाँ काम और अध्यात्म, देह और आत्मा — दोनों का अद्भुत संगम है। प्रेम को यहाँ शक्ति और जीवन ऊर्जा के रूप में देखा गया है, जो मानव अस्तित्व का मूल है।

मुख्य शब्द: अथर्ववेद, प्रेम गीत, अभिचार, लोकसंस्कृति, वेदों में प्रेम, स्त्री स्वर, वैदिक काव्य

 


Abstract

This paper explores the human and emotional dimension of the Atharvaveda, a text often confined within the boundaries of ritualism and spirituality. Dr. Rati Saxena argues that as human civilization advanced, it distanced itself from its natural emotions — love being the most essential among them. The Atharvaveda preserves the raw and spontaneous expression of love that reflects the life of the common people (loka).

Contrary to the Western Indological view which classifies these verses as abhichārika mantras (sorcery or charms), Saxena interprets them as manifestations of natural affection and desire. Through the invocation of herbs, birds, and natural elements, these hymns articulate the universal human longing for union and emotional harmony.

Her analysis of eleven key hymns (1.34, 2.30, 3.25, 6.8, 6.9, 6.42, 6.102, 6.130, 6.131, 6.132, etc.) reveals the diversity of emotions — attraction, yearning, jealousy, reconciliation, and fulfillment. In these love songs, the woman often emerges as the emotional center — passionate, assertive, and spiritually potent.

The study concludes that the Atharvaveda is not merely a text of rituals and spells but a profound poetic record of human emotions. It bridges the sacred and the sensual, the divine and the earthly, offering a holistic understanding of prema (love) as both spiritual force and life energy.

Keywords: Atharvaveda, Love Hymns, Abhichar, Loka, Erotic Spirituality, Vedic Poetry, Rati Saxena


 

आदमी जैसे-जैसे संस्कृति की ओर उन्मुख होता है, वैसे- वैसे प्रकृति से कटता हुआ कृत्रिमता की ओर बढ़ता जाता है। सांस्कृतिक कृत्रिमता उसकी प्राकृतिक भावनाओं को या तो कटघरे में खड़ी कर देती है, या फिर छाँट कर ऐसा रूप दे देती है कि असलीयत को पहचानने में वक़्त लग जाए। स्त्री-पुरुष के प्यार को भी इसी तरह की परीक्षाओं से गुजरना पड़ा है। प्रकृति ने स्त्री-पुरुष के जोड़े को बनाया ही इसलिए कि उनके प्रेम युक्त संयोग से सृष्टि सामंजस्य के मूल में संवर्धित हो। इस प्रेम की अभिव्यक्ति उतनी ही प्राकृतिक है जितनी कि इसकी उपस्थिति।

अक्सर होता यह है कि प्रेम को गंभीरता से अलग करने की कोशिश की जाती है। विशेष रूप

 से दर्शन और धर्म इस विषय से या तो कतराते हैं या फिर इस तरह से मंडित कर देते हैं कि स्वाभाविक भावनाए आडंबर में छिप जाती हैं। यह स्थिति किसी स्थान विशेष तक सीमित नहीं रही। विश्व की अधिकतर तथाकथित संस्कृतियों ने प्रेम के सन्दर्भ में यही रुख अपनाया है। भारतीय दर्शन के स्रोत माने जाने वाले वेद व उपनिषद ग्रन्थों के प्रति भी यही मानसिकता रही है। वेदों को अध्यात्म व दर्शन से इतना अधिक जोड़ कर देखा गया कि उनमें प्रेम जैसे लौकिक भाव की कल्पना भी दुरूह हो गई। अनेक स्थानों पर तो जानबूझ कर आँखे मूंदने की प्रवृत्ति देखी गई। अथर्ववेद में लौकिक तत्व विशेष रूप से उभरते दिखाई दिए तो  उन्हे अभिचारक मंत्रों की श्रेणी में रखा गया। जहा भारतीय विद्वानों ने लोक तत्व को तोड़-मरोड़ कर दार्शनिक बनाने की कोशिश की वहीं पाश्चात्य विद्वानों ने उनके लोकतत्व को नकारते हुए अभिचाटक की श्रेणी में रखते हुए लोक दर्शन को ही चुनौती दे दी। ध्यातव्य है कि कोई भी साहित्य अपने समय के लोक से बिल्कुल कट कर नहीं रह सकता। यह भी निर्विवाद सत्य है कि लोक में ही सकल लोक समाहित है। अतः लोकाचारों या लोक अभिव्यक्तियों को नकार कर किसी भी समय के साहित्य से जुड़ना संभव ही नहीं है।

लोक में स्त्री-पुरुष के प्रेम को सम्माननीय दृष्टि से देखा गया है। विशुद्ध प्रेम से सम्बन्धित समस्त गाथाए लोक जीवन से ही उभर कर आई हैं जबकि अभिजात्य प्रेम इतना संकुचित होता है कि अभिव्यक्ति को आकाश ही नहीं मिल पाता है। वेदों को लोक से काट कर देखने की प्रवृत्ति अपने भूत के प्रति अन्याय है। यही नहीं प्रकृत भावनाओं को अभिचार से जोड़ना भी भारी भूल है। अथर्ववेद में अनेक सूक्त मिलते हैं जिन्हे बड़ी आसानी से लोक प्रेम गीत माना जा सकता है। लोक प्रेम गीतों की भी अनेक श्रेणिया हैं, कुछ में प्रेम की सीधे-सीधे अभिव्यक्ति होती है, कुछ प्रेम को पाने की कामना लिए होते हैं तो कुछ प्रेम को बनाए रखने के लिए सन्नद्ध होते हैं। अथर्ववेद के प्रेम गीतों में ये सभी श्रेणिया दिखाई देती हैं। विशिष्ट बात यह है कि ब्लूमफील्ड आदि पाश्चात्य विद्वानों ने इन्हे अभिचार मंत्रों की श्रेणी में रखा है। उनका अनुकरण करते हुए अनेक विद्वानों ने वैदिक लोक की गहन भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की है

सच पूछा जाए तो प्रेम स्वयं में अभिचारक भाव है। न केवल मानव समाज में अपितु पशु-पक्षियों में भी प्रेम प्राप्ति के लिए पूर्ण समर्पण व विशिष्ट विभाव की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। पंछियों का नृत्य, पशुओं के वीरकर्म इसी श्रेणी में आते हैं। स्वाभाविक ही तो है, यह स्वाभाविक बन्धन तो है नहीं, यहाँ हर प्राणी को अपने-अपने सहयोगी चुनने की काफी हद तक स्वतंत्रता है। अतः इस दिशा में अपने मानसिक व शारीरिक शक्तियों के संयोग से विशेष उपक्रम की अपेक्षा भी मानी जा सकती है। प्रेमी अपने प्रेम को पाने के लिए आत्मशक्ति को संयोजित करने के साथ-साथ परिवेश से भी सामंजस्य की कामना करता है, यही कामना प्रेम गीतों के रूप में फूट पड़ती है। अब प्रेम गीतो के बारे में सोचा जाए तो ऋग्वेद व अथर्ववेद में प्राप्त यमी द्वारा यम के लिए आह्वान तथा यम का संवाद प्रेम गीत से कम नहीं है, किन्तु इनमें अभिजात्य मानसिकता हावी होती दिखाई देती है, क्यों कि यम के द्वारा ऋत का हवाला दिया गया है। यही नहीं रक्त बंध सम्बन्ध होने के कारण इस प्रेम भावना पर सवाल भी उठ सकता है। सोम व सावित्री के विवाह मंत्रों में प्रेम का संस्कृत व संयत रूप परिलक्षित होता है। भाषा लालित्य की दृष्टि से ये उत्तम साहित्य माना जा सकता है, किन्तु जब हम प्रेम गीतों की बात करते हैं तो उत्कटता की प्रतीक्षा करते हैं, ऐसी उत्कट भावना जो सब कुछ भुला कर बस प्रेम को केन्द्र में रखे। यह उत्कटता लोक गीतो की विशेषता है। वैदिक साहित्य में अथर्ववेद के अनेक मंत्रों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। इन प्रेम गीतों को ब्लूमफील्ड ने अभिचारक मंत्रों की श्रेणी में रखा है। संभवतः इस लिए कि अधिकतर गीतों में प्रेम की प्राप्ति के लिए जड़ी-बूटियों या देवी देवताओं की सहायता की अपेक्षा की गई है। यदि भारतीय लोक गीतों की शैली को देखा जाए तो इस तरह की अभिव्यक्ति विचित्र नहीं है। प्रेम के लिए टोने -टोटके करना लोक शैली है, जादूगरी नहीं। उत्तर भारत के गाँवों में विवाह के अवसर पर आज भी कई ऐसे गीत गाए जाते हैं जिनमें प्रेम की पूर्ण प्राप्ति के लिए विभिन्न टोनों का उल्लेख होता है। कभी-कभी तो ये भावनाए अकल्पनीय लगती हैं- उदाहरण के लिए मैंने अपने बचपन में विवाह के अवसर पर एक लोकगीत कई बार सुना जिसकी एक पंक्ति मुझे याद है- " टोना आज करू री, टोना कल करू री, कौए की जीभ, उड़ते कबूतर के पंख सिरहाने रखू जी," ध्यातव्य है कि इन गीतों में कर्म की अपेक्षा शब्दशक्ति पर बल दिया गया है। प्रेम गीतों में शब्दशक्ति ही अभिचारपरकता बन जाती है। किसी पारीवारिक स्त्री के लिए कौए की जीभ व उड़ते कबूतर के पंख पाना इतना आसान तो नहीं है, किन्तु शब्द शक्ति से इस अकल्पनीय को कल्पनीय बनाया जा सकता है। यही विशेषता आदीवासियों के लोक व्यवहार की है। अथर्ववेद के प्रेम गीतों में भी प्रेमी अपने परिवेश को अपनी भावनाओं में शामिल करना चाहता है, इसलिए वनस्पतिया, लोकदेवता आदि सभी उसकी अभिव्यक्ति में सहायक बन जाते हैं। यही कारण है कि वनस्पतियों या देवों को लक्षित गीत भी प्रेम अभिव्यक्ति में सहायक हैं। इसलिए जब वैदिक जन प्रिया के पाने के लिए मधुर वनस्पति का आह्वान यह सोच कर करता है कि उसका व्यक्तित्व इतना मधुर बन जाए कि प्रिया उससे तनिक भी दूरी सहन न कर पाए तो यहा प्रेमी की प्रेम भावना वनस्पति पूजन से ज्यादा बलवती है। इसी तरह प्रिया के हृदय से ईर्ष्या या क्रोध हटाते हुए उसका प्रिय बनने की कामना भी प्रेम की उत्कटता ही बताती है। प्रेम इक तरफा तो नहीं होता, स्त्री का प्रेम प्रकटीकरण कभी -कभी पुरुष प्रेम से तीव्र होता है। विशेष रूप से जब उसे अपना प्रेमी छिनता नज़र आए, ऐसी स्थिति में वह क्रूरता की हद तक पहुच सकती है। अथर्ववेद में कुछ सूक्तों में यह भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है जहा स्त्री अपने धोखेबाज पति को नपुंसक तथा सौत को वंध्या करने का विचार तक रखती है। मैंने इन मंत्रों को इस संग्रह में नहीं लिया है क्योकि इसमें प्रेम की अभिव्यक्ति सहज नहीं है। लेकिन विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले मंगलदायक मंत्रों को इस लिए शामिल किया कि वे दाम्पत्य प्रेम की अनुपम मिसाल रखते हैं। कुछ मंत्रों में कुमारी कन्या की विवाह- अभिलाषा है , कुछ में सुयोग्य पति प्राप्त करने का आशीष हैं। ये गीत सीधे-सीधे प्रेम गीतों की श्रेणी तो नहीं आते किन्तु इनमें अन्तरसन्निहित प्रेम कामना को नकारा नहीं जा सकता है। आज भी कस्बों में कुवारी कन्याए द्वारा इस तरह के गीत गाने की परम्परा है, उदाहरण के लिए राजस्थान का गणगौर का त्यौहार जिसमें कन्याए वर की औ विवाहिताए पति की लंबी आयु की कामना से पूजा -अर्चना करती हैं तथा अनेक गीत गाती हैं।           

यू तो अन्य वेदों में भी इस तरह के गीत या कथाए उपलब्ध हो सकती हैं, किन्तु मैंने हाल-फिलहाल अथर्ववेद को केन्द्र बनाया है क्यों कि यह वेद मेरे शोध का विषय रहा है, इसमें पैठने की मेरी कोशिश भी रही है। हो सकता है कि भविष्य में अन्य वेदों व उपनिषद साहित्य से भी इस तरह की लौकिक सामग्री संकलित की जाए। अभी तो प्रस्तुत है -      

           

(1)

इयं वीरुन्मधुजाता मधुना त्वा खनामसि। मधोरधि प्रजातासि सा नो धुमतस्कृधि।।1।।

जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्। ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।2।।

मधुमन्मे निष्क्रमणं मधुमन्मे परायणम्। वाचा वदामि मधुमद् भूयांसं मधुसंदृशः।।3।।

मधोरस्मि मधुतरो मदुधान्मधुमत्तरः । मामित् किल् त्वं वनाः शाखां मधुमतीमिव।।4।।

परि त्वा परितत्नुनेक्षुणामामविद्विषे। यथा मां कामियन्सो यथा मन्नपगा असः।।5।।                                                                               अथर्ववेद1/34/1,2,3,4,5

                       मधुर-मधुर,

            मधुतर, मधु-उत्तम

            मधुमास में उत्पन्न

            मधुजाता औषध!

            तेरा खनन करूँ मैं मधुहित

            तू मधुर, मुझे कर मधुमय

            जिह्वाग्र मधुर

            जिह्वामूल मधुर   

            समग्र बोली मधुर

            चिन्तन भी हो इतना मधुर

            करे वह उपासना मेरे चित्त की

            मधुर मेरा आना-जाना

            मधुमय उठना- बैठना

            हे मधुमती! वनों में

            शाखाओं पर तुम दीखती मधुर

            मेरा व्यक्तित्व हो मधुर वही

            अभिसिंचित करो ईख-रस सम मधु से

            प्रिया प्यार करे इतना

            सह न पाए कभी दूरी

            ओ मधुर मधुतम औषध!

            मधुर बना प्रिया हित तू मुझे.

                                         

(2)

 

यथेदं भूम्या अधितृणं वातौ मथायति। एवा मथ्नामि ते मनो यथा मां कामिन्य सोय थामन्नपगाअसः।।1।।

 सं चेन्नयाथो अश्विना कामिना सं चा वक्षथः। सं वां भगासो अग्मत सं चित्तानि समुव्रता।।2।।

 यत् सुपर्णा विपक्षवो अनमीवा विवक्षवः। तत्र मे गच्छाताद्दवं शल्य इव कुल्मलं यथा।।3।।

 यदन्तरं तद् बाह्यं यद् बाह्यं तदन्तरम्। कन्यायां विश्वरूपानां मनो गृभायौषधे।।4।।

 एयमगनपतिकामा जनिकामोच्हयागमम्। अश्वः कनिक्रदद् यथा भगेनाहं सहागमम्।।                                                                                           अथर्ववेद 2/30/1,2,3,4,5

           ज्यों हवा बहती

            इस धरती पर

            मथती जाती तिनका-तिनका

            मैं करूँ प्रिया मन-मंथन

            तू कर कामना प्रियतमा बन

            न सह कभी दूरी

            हे अश्विन कुमारों!

            तुम्हारी प्रेरणा से हम प्रेमी

            साथ चले 

            आगे बढ़े

            सम भाव से

            मन से मन मिलाते

            सम नियम-धर्मों का

            पालन करते-करते

            सुनहर- पंछी को बींधता ज्यों शर

            मेरे प्रेम-बाण भी करें

            कामिनी का मन छेदन

            छिपे भाव उमगे बाहर

            बाहर का प्रेम मन के भीतर

            बाहर -भीतर, भीतर -बाहर

            मुझे दीखती प्रिया विश्वरूपा

            हे औषध! ग्रहण करवा दे उसका मन

            यह देखो आई प्रिया

            ले मन में पति कामना

            मैं आता हूँ हींसते घोड़े सा

            बने सुखद

            मन का मन से मिलन

            तन का तन से सहागम!

 

                                                   (3)

    उत्तुदस्त्वोत् तुदतु मा धृथाः शयने स्वे। इषुः कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा    हृदि।।1।।

   अधापर्णां कामशल्यामिषुं संकल्पकुल्मलाम्। तां सुंसन्नतां कृत्वा कामों विध्यतु त्वा हृदि।।2।।

   या प्लीहानं शोषयति कामस्येषुः सुसन्नता। प्राचीनपक्षा व्योषया तया विध्यामि त्वा हृदि।।3।।

शुचा विद्धा व्योषया शुष्कास्यामि सर्प मा। मदुर्निमन्युः केवली प्रियवादिन्यनुव्रता।।4।।

आजामि त्वाजन्या परि मातुरथो पितुः। यथा मम क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।5।।

व्यस्यै मित्रावरुणौहृदश्चित्तान्यस्यतम्। अथैनामक्रतुं कृत्वा ममैवअथर्ववेदकृणुतं  वशे।।6।।                                                                                      अथर्ववेद. 3/25/1-6

           उठ बैठ प्रिया!

            मत सोती रह

            तुझे उठाता मैं प्रेमी

            बींधता  हृदय

            काम के भीम तीर से

            यह मेरा काम- तीर

            प्रतिष्ठित इसके पर

            संकल्पों के कुल्मल से

            कामना की नोक लगा

            तीखा कर धार-धार

            भेदता तेरा हृदय

            पुरातन पर वाले

            तीक्ष्ण काम- बाण से

            सुखाता हूँ तेरा जिगर

            हृदय भी

            तू शुचिता, हृदय विद्धा

            चली आ, चली आ

            मृदुल मन,

            क्रोध रहित

            मधुर वचन

            चली आ मेरे समीप

            पाया मैंने तुझे

            माता, पिता से

            मेरे कर्म में रत रह

            मेरे चित्त में पहुँच

            अनुकरण कर

            चली आ चली आ

            अरी प्रिया मत सोती रह

            चली आ कामना ले मन में..।

            हे मित्रावरुण! हृदय वश में करो इसका

            भूल सब जग, रहे बस मेरे वश में।

 

                                               (4)

 

            यथा वृक्षं लिबुजा समन्तं परिषस्वजे।

            एवा परिष्वजस्वयां यथा मां कामिन्यासे यथा मन्नपगा असः।।1

            यथा सुपर्णः प्रपतन् पक्षौ निहन्ति भूम्याम्।

            एवा नि हन्मि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नापगाः असः।।2

            यथेमे द्यावापृथिवी सद्यः पर्येति सूर्यः।

            एवा पर्येमि ते मनो यथा मां कामिन्यसो यथा मन्नपगाः असः।। 3 अथर्ववेद. 6/8/1,2,3

 

            प्रिया आ

            मत दूर जा         

            लिपट मेरी देह से

            लता लतरती ज्यों पेड़ से

            मेरे तन के तने पर

            तू आ टिक जा

            अंक लगा मुझे

            कभी न दूर जा

            पंछी के पंख कतर

            ज़मी पर उतार लाते ज्यों

            छेदन करता मैं तेरे दिल का

            प्रिया आ, मत दूर जा।

            धरती और अम्बर को

            सूरज ढ़क लेता ज्यों

            तुझे अपनी बीज-भूमि बना

            आच्छादित कर लूंगा तुरन्त

            प्रिया आ, मन में छा

            कभी न दूर जा,

            आ प्रिया!

           

(5)

         

            वाञ्छ मे तन्वं पादौ वांछाक्ष्यौ वाञ्छ सक्थ्यौ

            अक्ष्यौ वृषण्यन्त्याः केशा मां ते कामेन शुष्यन्तु।।1

            मम त्वा दोषणिश्रिषं कृणोमि हृदयश्रियम्।

            यथा मम क्रतावसो मम चित्तमुपायसि।।2

            यासां नाभीरारेहणं हृदि संवननं कृतम्।

            गवो घृतस्य मातरोमू सं वानयन्तु मे।।3 अथर्ववेद 6/9/1-3

           

            कामिनी!

            कर कामना मेरी देह की

            मेरी जंघाओं की

            नेत्रों की

            अपने मतवाले नेत्रों से

            घने- लहराते केशों से

            काम-ज्वरित करती तू

            मुझे जलाती रह

            आ, स्वयं कामोद्दीपा

            मेरे तन की कामना करती प्रिया

            बाहुओं पर टिका तुझे

            अंक-अंक भर लेता हूँ

            तू आ

            तनिक विश्राम कर मेरे दिल में

            मेरी क्रियाओं में

            रत-मन हो

            मेरे मन में बस जा

            ओ कामिनी

            कामना कर मेरे तन की

            सुन्दर नाभि वाली

            सुमधुर मनस वाली

            गाय के घृत से पोषित तनवाली

            नारी हो मेरे वश में ....।

 

 

                                                               (6)

            अव ज्यामिव धन्वनो तन्युं तनोमि ते हृदः। यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै।।1

सखायामिव सचावहा अव मन्युं तनोमि ते। अधस्ते अश्मनो मन्युमुपास्यामसि यो गुरुः।।2

अभि तिष्ठामि ते मन्युं पाष्ण्र्या प्रपदने च। यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि।।3 अथर्ववेद 6.42.1-3

 

            ज्या उतरती धनु से ज्यों

            उतारता मैं क्रोध

            तेरे हृदय से

            तू संमनस

            संचरण करे हम

            सदैव सखा सम

            तेरे हृदय से क्रोध उतार

            दबा दूँ मैं

            भारी चट्टान तले

            खड़ा हो जाऊँगा

            उस पर

            तू रह मेरे वश में

            अनुकरण कर

            बस मेरा                                                                                   

 

                                                       (7)

 

यथायं वाहो अश्विना समैति च वर्तते। एवा मामभि ते मनः समैतु सं च वर्तताम्।।1

आहं खिदामि ते मनो राजश्वः पृष्ट्यामिव। रेष्मच्छिन्नं यथा तृणं मयि ते वेष्टतां मनः।।2

आञ्जनस्य मयुघस्य कुष्ठस्य नलदस्य च। तुरो भगस्य हस्ताभ्यामनुरोधनमुद्भरे।।3

                                                                                  अथर्ववेद 6.102, 1-3

 

                        हे अश्विन!

                        ज्यो घोड़ा दौड़ता आता

                        प्रिया- चित्त आए मेरी ओर

                        ज्यो घुड़सवार कस लगाम

                        रखता अश्व वश में

                        रहे तेरा मन

                        मेरे वश में

                        करे अनुकरण सर्वदा

                        मैं खींचता तेरा चित्त

                        ज्यों राजअश्व खींचता

                        घुड़सवार

                        मथित करूँ तेरा हृदय

                        आँधी में भ्रमित तिनके जैसा

                        कोमल स्पर्श से कर

                        उबटन तन पर

                        मधुर औषधियों से

                        जो बना

                        थाम लू मैं हाथ

                        भाग्य का कस के

 

                                 (8)

           

            न्यस्तिका रुरोहिथ सुभागं करणी मम।

            शतं तव प्रतानास्त्रयÏस्त्रशन्नितानाः।

            तया सहस्रपण्र्या हृदयं शौषयामि ते।।1

           शुष्यतु मयि ते हृदयमथो शुष्यत्वास्यम्।

            अथो नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर। ।2

            संवननी समुष्पला बभ्रु कल्याणि सं नुद।

            अमूं च मां च सं नुद समानं हृदयं कृधि।।3

            यथोदमपुषोच्पशुष्यत्यास्यम्।

            एवा नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर।।4

            यथा नकुलो विच्छिन्न संदधात्वाहि पुनः।

            एवा कामस्य विच्छिन्नं सं धेहि वीर्यावति।।5

                                                                    अथर्ववेद-6-139-1-5

                                   

            हे सहस्रपर्णी! सौभाग्य उदया

            तू उग,

            तैंतीस शाखाएँ फैलाती

            सहर्सपर्णो से

            प्रेमशुष्क करूँ

            तेरा हृदय तड़पे

            प्यार में

            मुँह सूखे

            प्यार में मेरे

            वन में शोभित

            पुष्पवती, पीली, कल्याणवती

            समाकर्षका

            सप्तपर्ण!

            लुभा दिल उसका

            प्रेरित कर मेरी ओर

            समभाव दोनों हृदयो में

            प्यासे के मुँह जैसे

            काम से सूखे प्रेमी मुख

            नकुल ज्यों साँप काट

            जोड़ देता

            तू जोड़ दे

            हे देवी!

            काम वियुक्त हृदय

           

(9)

           

प्रेमिकाओं के गीत

           

रथजितां राथजितेयीनामप्सर सामयं स्मरः। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।।1

असौ मे स्मरतादिति प्रियो मे स्मरतादिति। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।।2

यथा मम स्मरादसौ नामुष्याहं कदाचन। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।।3

उन्मादयत मरुत उदन्तरिक्ष मादय। अग्न उन्मादया त्वमसौ मामनु शोचतु।।4

                                                                                                           अथर्ववेद 6.130.1-4

            रथजिता

            रथी द्वारा जिता

            अप्सराओं का काम

            देव प्रेरित स्मर

            तड़पाए तुझे

            मेरे प्यार से        

           

           मैं कामना करूँ

            तू जले मेरे प्रेम में

            मैं जलूँ तेरे प्रेम में

            देव प्रेरित स्मर

            तड़पाए तुझे

            मेरे प्यार से        

            वह मुझे चाहे

            प्रेम में जलते हुए

            मैं न तड़पू

            देव प्रेरित प्रेम

            तड़पाए तुझे

            मेरे प्यार से        

            उन्मत्त करो हे मरुत

            अन्तरिक्ष उन्मत्त करो

            हे अग्नि! उन्मत्त करो

            वह चला आए

            मेरे पीछे-पीछे

            काम मे जलते हुए

 

                                      (10)

           

           नि शीर्षतो नि पत्तत आध्यो नि तिरामि ते।

            देवाः प्रहिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।।1

            अनुमतेन्विदं मन्यस्वाकूते समिदं नमः।

            देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु।।2

            यद् धावसि त्रियोजनं पञ्च योजनमाश्विनम्।

            ततस्त्वं पुनरायसि पुत्राणां नो असः पिता।।3 अथर्ववेद 6.131.1-3

                       

                       तुझे

                        प्रेम मे डुबोती हूँ

                        सिर से पाँव तक

                        देव प्रेरित काम

                        तड़पाए तुझे

                        मेरे प्यार से

                        हे अनुमति

                        तू सहाय कर

                        आकूति

                        सहाय कर

                        देव प्रेरित काम

                        तड़पाए तुझे

                        मेरे प्यार से

                        तू दूर जाए यदि

                        तीन योजन

                        या फिर पाँच योजन

                        घोड़े पर बैठ कर

                        फिर-फिर लौट कर आए

                        पिता बने मेरे पुत्रों का

                        अपने प्रेम से

                        तड़पाती हूँ तुझे

 

(11)

            यं देवाः स्मरसिञ्चन्नप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या।

            तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा।।

            यं विश्वे देवाः स्मरसिञ्चन्नप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या।                                                 

            तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा।।

            यमिन्द्राणी स्मरसिञ्चन्नप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या।                                        

            तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा।।

            यमिन्द्राग्नी स्मरमसिञ्चतामप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या।

            तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा।।     

           मित्रावरुणौ स्मरमसिंचतामप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या।

            तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा।।      अथर्ववेद 6-132-1-5

 

            दिल तड़पाते काम को

            देवताओं ने

            जल में सिंचित किया

            उसी से तड़पाती हूँ मैं

            वरुण के धर्म से

            विश्व देवो ने

            जल में सिंचित किया

            प्रेम को 

            उसी से तड़पाती हूँ मैं

            वरुण के धर्म से  

            इन्द्राणी ने

            तड़पाते प्रेम को

            सिंचित कर दिया

            जल में

            उसी से तड़पाती तुझे

            वरुण नियम धर्म से                                 

            इन्द्राग्नि ने

            दिल सुखाते काम को

            जल में सिंचित कर दिया

            उसी से तड़पाती तुझे

            वरुण नियम धर्म से         

            मित्र और वरुण नें

            जल में सिंचित किया

            जिस काम को

            उसी से तड़पाती तुझे

            वरुण नियम धर्म से                     

(12)

                                            वर- वधु गीत-    

 

            अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जनम्।

            अन्तः कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति।।  अवे. 7.36.1

             अभि त्वा मनुजातेन दधामि मम वाससा।

            यथासो मम केवलो नान्यसां कीर्तयाश्चन।।  अवे 7.37.1

 

1-         हम देखे

            सुन्दर

            सुनेत्रो से

            चेहरे दमके

            दिपदिप

            तू समा ले मुझे

            अपने हृदय में

            एक मन

            एक विचार

            हम रहे

            साथ-साथ

           

2-         मनु ने जो दिया वस्त्र

            पहनाता तुझे

            तू रह मेरी

            बस मेरी

            न गीत गाए

            कभी

            किसी और के

 

(13)

विवाह की कामना का गीत-

 

            आगच्छत आगतस्य नाम गृह्णाम्यायतः।

            इन्द्रस्य वृत्रध्नों वन्वे वासवस्य शतक्रतोः।।1

            ये न सूर्या सावित्रीमिश्विनोहतुः पथा।

            तेन मामब्रवीद् भगो जायामा वहतादिति।।2

            यस्तेच्ङकशो वसुदानो वृहन्निन्द्र हिरण्ययः।

            तेना जनीयते जायां मह्यं धेहि शचीपते।।3 अवे. 6.82.1-3

           

            पुकारता हूँ मैं

            जो देव आ गए

            आने वाले हैं जो

            पुकारता हूँ तुम्हें इन्द्र

            वृत्र के हन्ता

            शतक्रता को

            जिस राह से

            अश्विन ले चले

            सूर्या सविता को

            वह राह मुझे बता

            वधु मैं लाऊँ

            उस मार्ग से

            हे वसुदाता

            वसुपति

            शचीपति इन्द्र!

            वधु मिले मुझे भी

            राह बता दे

            स्वामि! 

(14)

                                          सुयोग्य पति की कामना

           

            अयमा यात्यर्यमा पुरस्ताद् विषितस्तुपः।

            अस्या इच्छन्नुग्रु वै पतिमुत जायामजानये।।1

            अश्रमदियमर्य मन्नन्यासां समनं यती।

            अंगो न्वर्यमन्नस्या अन्याः समनमायति।।2

            धाता दाधार पृथिवीं धाता द्यामुत सूर्यं।

            धातास्या अग्रुवै पतिं ददातु प्रतिकाम्यम्।।3 अथर्ववेद 6.60.1-3

 

            यह आ रहा है

            अर्यमा

            पूरब से

            किरणें बिखेरता

            पूरी करे मनोकामना

            पति की कामना लिए

            कामिनी की

            पत्नी की कामना लिए

            पुरुष की

            यह कामिनी दुखी है

            जाती है

            अन्य स्त्रियों के

            विवाह भोज में               

            आशीष दो

            विवाह में आए इसके

            अन्य नारियाँ

            धाता ने

            धारण की धरती

            धाता ने सूरज

            वही धाता

            दे सुयोग्य पति

            इस पति विहीन

            कामिनी को

 

(15)

          आ नो अग्ने सुमतिं संभलो गमेदिमां कुमारीं सह नोभगेन।

            जुष्टा वरेषु समनेषु वल्गुरोषं पत्या सौभगमस्त्वस्यै।।1

            सोमजुष्टं ब्रह्मजुष्टमर्यम्णा संभृतं भगम्।

            धातुर्देवस्य सत्येन कृणोमि पति वेदनम्।।2

            इयमग्ने नारीं पतिं विदेष्ट सोमो हि राजा सुभगां कृणोमि।

            सुवाना पुत्रान् महिषी भवाति गत्वा पतिं सुभगा विराजतु।।3

            यथाखरो मघवस्चारुरेष प्रियो मृगाणां सुषदा बभूव।

            एवा भगस्य जुष्टेयमस्तु नारी सम्प्रिया पत्याविराधयन्ती।।4

            भगस्य नावमा रोह पूर्णामनुपद स्वतीम्।

            तयोपप्रतारय यो वरःप्रति काम्यः।।5

            आ क्रन्दय धनपदे वरमामनसं कृणु।

            सर्वं प्रदक्षिणं कृणु यो वरः प्रतिकाम्यः।।6

            इदं हिरण्यं गुल्गुल्वयमौक्षो अथो भगः।

            एते पतिभ्यस्त्वामदुः प्रतिकामाय वेत्तवे।।7

            आ ते नयतु सविता नयतु पतिर्यः प्रतिकाम्यः।

            त्वमस्मै धेह्योषधे।।8अथर्ववेद-2.36.1-8

 

            हे अग्नि!

            इस सुमति, सुमंगली

            कुमारी को

            पति दो

            भाग्यवान

            यह सुन्दरी

            पावे

            मनचाहा प्रीतम

            सौभाग्य से

            हे सोमतृप्त, ब्रह्म तृप्त, अर्यमा

            हे देव पूरी करो कामना

            पति निवेदिता

            कामिनी की

            सोम राजा ने बनाया

            इसे सुन्दरी

            यह नारी पावे योग्य पति

            सुयोग्य पुत्रों की माता बन

            सुख पावे पति के संग

            गुहा सुखद

            पशु-पक्षियों को ज्यों

            यह नारी पावे

            सुख यूँ ही

            रहे सदा पति संग

            कभी न बने विरोधिनी

            भाग्य चढ़ाए इसे

            पूर्ण करे कामनाएँ

            पावे सुयोग्य पति

            जिसकी हो कामना

            धनवान वरण करे इसका

            प्रदक्षिणा कर स्वीकार करे

            कहे कि यह मेरी पत्नी है

            हम देते तुझे

            गुल्गुल, स्वर्ण, मोक्षदायिनी भाग्य

            सफल हो कामना

            मिले पति सुयोग्य

            हे सविता! प्रेरित करो पति

            कामना लिए इस कामिनी की

            औषध धारण करो

निष्कर्ष

अथर्ववेद के प्रेम गीत वेदों के मानवीय, संवेदनशील और लोकजीवन से जुड़े आयाम को उजागर करते हैं।
वे यह सिद्ध करते हैं कि वेद केवल अध्यात्म या यज्ञ का ग्रंथ नहीं, बल्कि प्रेम, प्रकृति और जीवन का भी शाश्वत दस्तावेज़ हैं।लेखिका का अध्ययन इस मिथक को तोड़ता है कि वेदों में केवल दार्शनिक गूढ़ता है — वह दिखाती हैं कि उनमें प्रेम की लौकिकता, देह और मन का मिलन, और भावनात्मक उत्कटता समान रूप से विद्यमान हैं।

 

      संदर्भ

  1. सक्सेना, रति. (2007). अथर्ववेद के प्रेम गीत : एक अध्ययन. भारतीय साहित्य, नई दिल्ली : साहित्य अकादेमी।
  2. ब्लूमफील्ड, मॉरिस. (1897). The Atharvaveda. Oxford University Press, London.
  3. व्हिटनी, विलियम ड्वाइट. (1905). Atharva-Veda Samhita (Translated with Notes). Harvard Oriental Series, Cambridge.
  4. मैक्समूलर, फ्रेडरिक. (1882). Sacred Books of the East, Vol. 42: The Atharva-Veda. Oxford: Clarendon Press.
  5. ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद — संस्कृत मूल पाठ और हिन्दी अनुवाद (विभिन्न प्रकाशन)।
  6. भट्ट, रामचन्द्र शुक्ल. (1954). हिन्दी साहित्य का इतिहास. प्रयाग: लोकभारती प्रकाशन।
  7. वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी. (1952). आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी रचनावली (भाग 3). नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन।
  8. देव, रामविलास शर्मा. (1978). भारतीय संस्कृति और आधुनिक साहित्य. नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन।
  9. अग्निहोत्री, वी. के. (1995). Vedic Thought and Indian Tradition. Delhi: Motilal Banarsidass.
  10. भट्टाचार्य, एन. एन. (2001). History of the Tantric Religion: An Historical, Ritualistic and Philosophical Study. Delhi: Manohar.

 


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