आज कल सोसल मीडिया पर नेताओं,कथित साधु,संतो,पत्रकारों, कवियों,लेखको की साम्प्रदायिक बयान देखने को मिल रहा है,मानों होली से मुसलमान को जातिय विरोध हो जबकि मुगल दरबार में होली खेली जाती पूरे शबाव से खेली थी। इस संदर्भ में प्रसिद्ध विचारक,लोकसंस्कृति के अध्येता आचार्य राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी का यह संक्षिप्त लेख महत्वपूर्ण है।-संपादक

होली मनुष्य और मनुष्यता का त्यौहार है, आनंद और उमंग का त्यौहार है। समष्टि के आनंद उन्माद का त्यौहार है।
मुगल मुसलमान थे तो थे किंतु होली तो प्यार का त्यौहार है, कल भी वह प्यार का त्यौहार था और आज भी प्यार का त्यौहार है। उसे भदरंग करने की जरूरत नहीं है।
मुगलों के दरबार में और हरम में होली मनाई जाती थी। लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में अकबर के दरबारी चित्रकार का एक चित्र है, जिसमें बादशाह बेगमों के साथ होली खेल रहे हैं। यह चित्र किसी जमाने में साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपा था।
होली खेलने के बाद बादशाह इनाम और खिल्लतें बांटा करते थे।
तुजुक ए जहांगीरी में हरम में होली खेलने का विवरण है।
दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में मौलाबख्श का बनाया हुआ एक चित्र है, जिसमें बादशाह और नूरजहां संगमरमर की चौकी पर खड़े हैं और हरम के बेगमें घड़ों में रंग लेकर होली खेल रही हैं।
दाराशिकोह बड़े उत्साह के साथ होली मनाया करता था।
शाह आलम ने ब्रजभाषा में होली पर सवैया भी लिखे हैं:
नार नवेली के हाथ भली,
बतरङ्ग भरी पिचकारी सुहाई ।
खेलत हैं सब रङ्ग भरी कहाँ,
आपस में करते चतुराई ।।
रीझि रही तबही सुनि के,
जब बांसुरी कान्हां-कन्हैया बजाई ।
देखते लाल की फाग ही खेलिवो,
बाल अबीर गुलाल ले धाई ।
अबीर गुलाल के नादिर रङ्ग,
सभी सखियां बरसा बन आई ।।
लाल मृदङ्ग रङ्गरस भीनी
लिया दिल जोतियो फाग को गाई ।
रङ्ग फुहार चहूं ओर राजत,
फूलन गेंद सुखेलन आई ।।
घात लगायके आपस में,
मुख मीडन को सब लाल ले धाई ।
देन कहे यह अन्जन की जो
लीक पिया तुम भांग लगाओ ।।
खेलन फाग की लगी कहीं घात,
अब सांचे कहूं वह रैन जगायो ।
और के प्रेम को नेह भुलाय के,
आपुनों ही उन प्रेम पगायों।।
कौन पिया बड़ भागिन हैं,
इन फागन में तुम्हें रङ्ग भिगाओ ।
होली मेलमिलाप का पर्व है और रहेगा।
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