तकनीकी पर निर्भरता सुविधाजनक तो है पर उसके अपने खतरे भी हैं।जरा सा इधर-उधर हुआ तो पूरी व्यवस्था विकल्पहीन हो जाती है।इस तरह तकनीक के भरोसे स्वाभाविक मानवीय कौशल और दक्षता खत्म सी होती जा रही हैं।तकनीक के फेल होते ही ऐसा लगने लगता है कि हम आदिम युग में पहुँच गये। हमारा जीवन तकनीक के स्वामी के अधीन होता जा रहा है। हथियारों के बल पर साम्राज्यवाद इतिहास की बात हो चुकी है,अब तो पूरी दुनिया सहर्ष तकनीकी साम्राज्यवाद के अधीन हो चुकी हैं।
अक्टूबर 24 में मैं बाइ रोड असम की यात्रा कर रहा था। असम के कोकराझार जिले के पटगाँव बाजार से आगे बढ़ते ही टोल प्लाजा पर 5 मिनट रुकना पड़ा,आटोमेटेज टोल पेमेंट सिस्टम कुछ डिस्टर्ब था,पचासों गाड़ियों की लाइन लग गयी थी। तकनीकी विकास पर निर्भरता सुविधाजनक तो है पर उसके अपने खतरे भी हैं।जरा सा इधर-उधर हुआ तो पूरी व्यवस्था विकल्पहीन हो जाती है। विकल्प हीनता का सामना हम सिल्लीगुड़ी लाज में कर चुके थे,जब बिल देने के लिए मैं गुगल पेमेंट करना चाहा तो बैंक का नेटवर्ग स्लो हो गया और कैश मैंने रखा नहीं था,संकट उत्पन्न हो गया,वह तो सहयात्री नन्दलाल की आत्म निर्भरता काम आयी जो दस हजार रुपये कैश रख लिये थे । इसका असल खामियाजा तो तब भुगताना पड़ता है जब दंगों,प्रदर्शनों के समय में सरकारें इन्टरनेट बन्द करती हैं,बैंक में पैसा रहते हुए आदमी एक बिस्किट भी नहीं खरीद पाता है। आज संस्मरण लिखते समय मणिपुर को लोग इसी समस्या से जुझ रहे हैं।
इस तरह तकनीक के भरोसे स्वाभाविक मानवीय कौशल और दक्षता खत्म सी होती जा रही हैं।तकनीक के फेल होते ही ऐसा लगने लगता है कि हम आदिम युग में पहुँच गये। हमारा जीवन तकनीक के स्वामी के अधीन होता जा रहा है। हथियारों के बल पर साम्राज्यवाद इतिहास की बात हो चुकी है,अब तो पूरी दुनिया सहर्ष तकनीकी साम्राज्यवाद के अधीन हो चुकी हैं।धर्म,संस्कृति के गौरव का जितनी भी दम्भ भर ले हम पर धर्म और संस्कृति के व्यवहार भी तकनीक के अधीन है,एलइडी बल्व के सामने आदि प्रकाश का माध्यम दीपक महत्वहीन हो चुका है। मंदिर, मस्जिद, चर्च सभी तकनीक के अधीन हो चुके है,मानव मन तकनीक के बल पर अराध्य को भी अपनी इच्छा नुसार सजाना,सँवारना,रखना चाहता है,न कि आराध्य की इच्छा के अनुसार स्वयं को,आध्यात्म की ऊँची बात चाहे जितनी भी कर ले पर तथाकथित सिद्ध,प्रसिद्ध,साधु,संत,महंत,मौलवी, प्रवचन कर्ताओं,धर्मगुरुओं,तथाकथित जननायक नेताओं की महानता और लोकप्रियता भी तकनीक परटिकी हुई है। जिसका परिणाम यह है प्रकृति की एक साँस के व्यतिक्रम से हमारा सारा तकनीकीविकास ध्वस्त हो जाता है। बाढ़ आयी तो बिजली खतम,बिजली खतम तो तकनीक और विकासभला कहाँ बचेगा?
कुछ अजीब सा लगता है जब पहाड़ काट कर,नदी बाँधकर, जंगल विनाश कर धरती को रहने लायक नहीं छोड़ा,फिर अन्य ग्रहों,उपग्रहों को देखने लायक भी नहीं छोड़ना चाहता है और
सृष्टि के आत्मधात का उत्सव मनाता है।आज यात्रा के तीन महीने बाद देश का विकास
शिखर दिल्ली यमुना के उफान से हाहाकार कर रही है। विकास और सुविधाओं सा सारा दम्भ
ध्वस्त हो चुका हैं।
फिलहाल हम फिर यात्रा की ओर लौटते है,कुछ देर टोल वसूली सिस्टम शुरु हो गया,गाड़ियाँ आगे बढ़ने लगी,हमारी गाड़ी भी आगे बढ़ गयी। फिर शुरु हो गया वन,गाँव,खेत, चारागाह,काटेज नुमा घरों का नजारा,जहाँ आज भी कुछ खेतों में बैलों से हल जोता जा रहा था,धान की दँवरी(मड़ाई) हो रही थी,दरवाजे पर पुजवट (पुआर की ढेर) सजी हुई थी। विकास से
दूर आत्मनिर्भर गाँवों का नजारा,ऐसा नहीं है यहाँ विकास का दौर नहीं चल रहा है,बिजली जल रही है,छोटे-छोटे ट्रैक्टर है,धान के नये बीज है,स्प्रे मशीन है,मोबाइल है,लेकिन खाद पर निर्भरता कम है। इसलिए तकनीकी विकास का
प्राकृतिक विकल्प संरक्षित सुरक्षित है। आदमी के जीने की स्वाधीनता बरकरार है।
जिसे हमारे यूपी,हरियाणा,पंजाब,महाराष्ट्र,मुम्बई,दिल्ली आदि में खो चुके है। बैंक से कर्ज लेकर कार्पोरेट कम्पनियों
के खाद-बीज-दवायें, ट्रैक्टर आदि यंत्र खरीदना विवशता बन चुकी है।फसल अच्छी दिखती है,लेकिन दुर्योग से यदि बाढ़,
सूखा,
ओला,हवा चल गयी तो उत्पाद इतना भी नहीं हो पाता जिससे जीवन
यापन हो सके,बैंकों के कर्ज की किस्त देना तो
दूर की बात है-अंततः वही विषैली कीटनाशक दवायें पीकर मरने की खबरे अखबारों में छप
जाती है। यूँ कहें तो विकसित इलाकों की खेती किसानी भी तकनीकी विकास के बहाने
कार्पोरेट के अधीन हो चुकी हैं। किसान किरायेदार हो चुका है,कमाता वह है मुनाफा कार्पोरेट को होता है।
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