Issue-32 Vol.1II, Jul.-Sep2025 pp.08-17 Paper ID-E32/348 वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में आयुर्वेद


Issue-32 Vol.1II, Jul.-Sep2025  pp.08-17 Paper ID-E32/348  

 

वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में आयुर्वेद

 

डा. अचल पुलस्तेय1

 

1स्वदेशी विज्ञान संस्थानम् , पैकौली महाराज देवरिया उ.प्र.

सारांश

मानव सभ्यता में स्वास्थ्य हमेशा एक केंद्रीय चिंता का विषय रहा है, जो पहले सेवा था, परंतु अब यह वैश्विक पूंजी का सबसे बड़ा व्यवसाय बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2023 में वैश्विक स्वास्थ्य उद्योग का आकार लगभग 9–10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो 2030 तक 15 ट्रिलियन डॉलर से अधिक होने की संभावना है। इसमें अस्पताल सेवाएँ, औषधि उद्योग, उपकरण, बीमा, डिजिटल हेल्थ और पारम्परिक चिकित्सा शामिल हैं। पारम्परिक चिकित्सा का वैश्विक बाज़ार लगभग 250–300 बिलियन डॉलर (कुल का 3–6%) आँका गया है, जिसमें चीन का Traditional Chinese Medicine (TCM) लगभग 130–140 बिलियन डॉलर (45%) के साथ सबसे बड़ा भागीदार है।

भारत में आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी और प्राकृतिक चिकित्सा को 2014 में “AYUSH मंत्रालय” के रूप में एकीकृत किया गया। वर्तमान में AYUSH उद्योग का आकार लगभग 20–23 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो तेजी से बढ़ रहा है। योग, पंचकर्म और हर्बल उत्पादों के माध्यम से भारत की वैश्विक उपस्थिति सशक्त हो रही है।

लेख का मुख्य तर्क यह है कि वैश्विक बाजार में “आयुर्वेद” नहीं बल्कि “Indian Traditional Medicine (ITM)” या हर्बल उत्पादों का कारोबार बढ़ा है, जबकि वास्तविक आयुर्विज्ञान–आधारित शाखा रस शास्त्र उपेक्षित है। रस शास्त्र धातुओं और खनिजों को औषधीय शक्ति में परिवर्तित करने की अद्वितीय भारतीय परंपरा है, जो आज की नैनोमेडिसिन का प्राचीन रूप कही जा सकती है। यदि भारत वैज्ञानिक अनुसंधान, मानकीकरण और क्लिनिकल ट्रायल के माध्यम से रसशास्त्रीय औषधियों को प्रमाणित करे, तो वह आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान को नई दिशा दे सकता है।

इस प्रकार, लेख निष्कर्ष देता है कि आयुर्वेद को केवल हर्बल उत्पादों तक सीमित न रखकर, रस शास्त्र को आधुनिक नैनो-विज्ञान से एकीकृत करना आवश्यक है। तभी भारत पारम्परिक चिकित्सा का वैश्विक नेतृत्व कर सकेगा और स्वास्थ्य विज्ञान के भविष्य को नया आयाम दे पाएगा।


 

Abstracts

Throughout human civilization, health has always been a central concern—once a service-oriented field, it has now transformed into one of the world’s largest profit-driven industries. According to the World Health Organization (WHO) and the World Bank, the global healthcare market was valued at around USD 9–10 trillion in 2023 and is projected to exceed USD 15 trillion by 2030. This vast sector includes hospital services, pharmaceuticals, medical equipment, insurance, digital health, and traditional medicine. The global market for traditional medicine is estimated at USD 250–300 billion, constituting about 3–6% of the total healthcare economy, with China’s Traditional Chinese Medicine (TCM) leading at around USD 130–140 billion (45% share).

In India, Ayurveda, Yoga, Unani, Siddha, Homeopathy, and Naturopathy were integrated under the Ministry of AYUSH in 2014. The AYUSH industry currently stands at around USD 20–23 billion and continues to grow rapidly through yoga tourism, Panchakarma therapy, and herbal exports.

The article argues that in the global market, it is not “Ayurveda” as a holistic health science that is expanding, but rather “Indian Traditional Medicine (ITM)”—mainly limited to herbal and cosmetic products. The true scientific essence of Ayurveda lies in its specialized branch, Rasashastra, which focuses on the medicinal transformation of metals and minerals—a concept remarkably similar to today’s nanomedicine.

If India undertakes systematic scientific validation, standardization, and clinical trials of Rasashastra-based formulations, it could redefine modern medical science. The author emphasizes that Ayurveda should not remain confined to herbal teas and beauty products but should reclaim its identity as a comprehensive health science. Integrating Rasashastra with modern nanoscience and biomedicine can enable India to not only participate in but also lead the global healthcare revolution, shaping the future of medicine through its ancient scientific heritage.

विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्वबैक व Fortune Business Insights के उपलब्ध ताज़ा आँकड़ों के अनुसार वैश्विक स्वास्थ्य (Global Healthcare) उद्योग का आकार वर्ष 2023 में लगभग 9 से 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का अनुमित किया गया था। वर्ष 2030 तक इस बाज़ार 15 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होने का संभावना व्यक्त की गयी थी।


 

मानव सभ्यता में भोजन-वस्त्र के बाद सबसे बड़ी समस्या स्वास्थ्य रहा है, जो कभी सेवा हुआ करता था । परन्तु आज बाजारीकरण के दौर में असीमित कारोबार बन चुका है।

इसलिए आज विश्व के बड़े पूंजीपतियों का पसंदीदा क्षेत्र है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आँकड़े यह संकेत देते हैं कि यह बाजार आने वाले वर्षों में और तीव्र गति से बढ़ेगा। इस बाजार में आधुनिक एलोपैथिक औषधियों, तकनीकों, यंत्रों, वैक्सिन्स के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों, हर्बल उत्पाद, योग तथा वेलनेस की भागीदारी बढ़ रही है। जो वैश्विक स्वास्थ्य के बाजार में नये उद्योग के रुप में उभर रहा है। ऐसे परिदृश्य में भारत का प्राचीन चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद की स्थिति क्या है,इस पर विमर्श जरूरी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्वबैक व Fortune Business Insights के उपलब्ध ताज़ा आँकड़ों के अनुसार वैश्विक स्वास्थ्य (Global Healthcare) उद्योग का आकार वर्ष 2023 में लगभग 9 से 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का अनुमित किया गया था। वर्ष 2030 तक इस बाज़ार 15 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होने का संभावना व्यक्त की गयी थी।

इसमें अस्पताल सेवाएँ, औषधि उद्योग, चिकित्सा उपकरण, बीमा, डिजिटल हेल्थ, वैकल्पिक चिकित्सा जैसे आयुर्वेद, TCM, हर्बल मेडिसिन जैसी दुनिया की पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियाँ शामिल  हैं।

अकेले फार्मास्यूटिकल्स (रिसर्च व मैनुफैक्चरिंग) का वैश्विक कारोबार ही 2023 में लगभग 1.5–1.6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था।

 हर्बल और पारम्परिक औषधियों का विश्व बाज़ार लगभग 250–300 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आँका गया है, और जिसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही है।

संक्षेप में कहा जाए तो आज का विश्व स्वास्थ्य बाज़ार 10 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के आसपास है जो निरंतर बढ़ रहा है।

 वैश्विक स्वास्थ्य बाज़ार (लगभग US$ 10 ट्रिलियन) में पारम्परिक चिकित्सा (Traditional Medicine – जैसे आयुर्वेदयूनानीसिद्ध, TCM, हर्बल मेडिसिन आदि पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों का हिस्सा अलग-अलग रिपोर्टों में भिन्न बताया गया है।

WHO (World Health Organization) के अनुसार, दुनिया की लगभग 80% जनसंख्या किसी न किसी रूप में पारम्परिक चिकित्सा पर निर्भर रहती है।

कारोबार के स्तर पर देखें तो हर्बल और पारम्परिक दवाओं का बाज़ार लगभग 250–300 बिलियन अमेरिकन डालर का है।

तात्पर्य यह कि कुल स्वास्थ्य उद्योग का लगभग 2.5%–3% हिस्सा पारम्परिक दवाओं का है, लेकिन यदि वेलनेस और हर्बल सप्लीमेंट, योग, नेचुरोपैथी, स्पा-थेरेपी, मेडिटेशन आदि को  जोड़ दिया जाए, तो यह हिस्सा 5%–6% तक पहुँच जाता है।

 तुलनात्मक रूप से देखे तो वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में फार्मास्यूटिकल्स का हिस्सा 15%, अस्पताल/क्लिनिकल सेवाओं का हिस्सा 40%,बीमा और प्रबंधित देखभाल 25% डिजिटल हेल्थ व उपकरण 15%,पारम्परिक चिकित्सा 3–6% है।

पारम्परिक चिकित्सा के वैश्विक बाज़ार में भारत 

 इसमें दिलचस्प पहलू यह है कि जिन चिकित्सा पद्धतियों को कभी "लोक उपचार" या "वैकल्पिक चिकित्सा" कहा जाता था, आज वे अरबों डॉलर के उद्योग में बदल चुकी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के बयान को देखे तो उसकी मंशा साफ है, कि 80 प्रतिशत घरेलू या लोक चिकित्सा में कारोबार की असीम सम्भावनायें है। जिसे बड़े पूंजीपतियों के हवाले करने का प्रयास शुरु है।

विभिन्न देशों की पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों की भागीदारी को देखें तो सबसे बड़ा भागीदार चीन है।Traditional Chinese Medicine (TCM) जिसमें हर्बल दवाएँ, एक्यूपंक्चर, ताई-ची और ची-गोंग जैसी पद्धतियाँ शामिल हैं जिसका वैश्विक हिस्सा लगभग 130–140 बिलियन अमेरिकी डॉलर, यानि करीब 45% है।

चीन ने टीसीएम को अपने राष्ट्रीय स्वास्थ्य ढांचे में औपचारिक मान्यता दी है। देशभर में लगभग 60,000 अस्पताल और क्लिनिक TCM पर आधारित हैं। सरकार द्वारा संरक्षण और नीतिगत सहयोग ने इसे विश्व के सबसे बड़े पारम्परिक औषधि बाज़ार में बदल दिया है।

अन्य देशों में जापान की Kampo Medicine का बाज़ार 10–12 बिलियन डॉलर है, और इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा में कवर किया जाता है। दक्षिण कोरिया की Hanbang Medicine का आकार 7–9 बिलियन डॉलर है। यूरोप में जर्मनी, फ्रांस और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों में हर्बल और होम्योपैथिक दवाएँ मिलकर 30–35 बिलियन डॉलर का कारोबार करती हैं। अमेरिका में सप्लीमेंट्स, नैचुरोपैथी और कायाकल्प चिकित्सा का उद्योग 25–30 बिलियन डॉलर का है। अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में पारम्परिक औषधियाँ आज भी 60–70% आबादी के स्वास्थ्य का सहारा हैं।

भारत में आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी, सोवारिंग्पा, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं। जिन्हें वैश्विक बाजार में भागीदार बढ़ाने के लिए 2014 में संयुक्त रूप से आयुष पद्धति घोषित किया गया। हालाँकि इसकी प्रक्रिया 1995 से चल रही थी। तत्कालीन भारत सरकार ने आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी चिकित्सा पद्धतियों के लिए एक स्वतंत्र विभाग (Department of Indian Systems of Medicine & Homeopathy – ISM&H) स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत बनाया।

2003 में इस विभाग का नाम बदलकर आयुष विभाग (Department of AYUSH) कर दिया गया। 2014 में आयुष विभाग को पूर्ण मंत्रालय का दर्जा मिला और आयुष मंत्रालय अस्तित्व में आया।

AYUSH उद्योग का आकार आज 20–23 बिलियन अमेरिकी डॉलर के आसपास है, जो वैश्विक पारम्परिक चिकित्सा बाज़ार का लगभग 7–8%  है। यह आँकड़ा भले ही चीन से छोटा हो, लेकिन भारत में इसकी विकास दर कहीं चीन से तेज़ है। योग पर्यटन, पंचकर्म थेरेपी और हर्बल उत्पादों का निर्यात भारत की ताक़त बनते जा रहे हैं। लगभग 1.5 मिलियन से अधिक आयुष चिकित्सक और सैकड़ों दवा कंपनियाँ इस क्षेत्र को विस्तार दे रही हैं। आगे इसे 25 बिलियन डॉलर से आगे ले जाने की योजना है।

भविष्य की दिशा

स्पष्ट है कि पारम्परिक चिकित्सा अब केवल ‘पूरक’ नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य बाज़ार का अहम हिस्सा बन चुकी है। चीन ने TCM को जिस तरह मुख्यधारा में स्थापित किया है, भारत भी यदि अपनी पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों को उसी नीति-संरक्षण देकर वैश्विक प्रमाणिकता के साथ आगे बढ़ाए, तो आने वाले दशक में उसकी हिस्सेदारी दोगुनी हो सकती है।

अमेरिका, यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया में आयुर्वेदिक फॉर्म्युलेशन्स व हर्ब्स जैसे अश्वगंधा, त्रिफला, हल्दी, गिलोय आदि की भारी मांग है।

केरल, ऋषिकेश और श्रीलंका,नेपाल,थाईलैण्ड, गोवा आदि में आयुर्वेदिक हर्बल चिकित्सा और पंचकर्म आधारित मेडिकल-टूरिज़्म एक विशेष उद्योग का रूप ले चुका है। आयुर्वेद आधारित सौंदर्य उत्पाद और पोषण पूरक (supplements) अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड्स का हिस्सा बन रहे हैं। इसके प्रक्रिया में भारतीय आयुर्वेद स्नातकों के लिए भी दुनिया के बाजार खुल रहा है।

योग की वैश्विक लोकप्रियता ने आयुर्वेद को और मजबूत आधार दिया है, क्योंकि दोनों पद्धतियाँ पूरक हैं।

वैक्सिनेश व इम्युनिटी बूस्टर के विकल्प के रूप में इम्यूनिटी अश्वगंधा,अर्जुन, गिलोय, शतावरी, शिलाजित, हल्दी, मोरिंगा (सहिजन) आदि के प्रयोग का प्रचलन विशेष रूप से बढ़ा है।

WHO ने 2014 में Traditional Medicine Strategy जारी की, जिसमें आयुर्वेद के अलावा सिद्धा, यूनानी, होम्योपैथी, रोवारिंग्पा जैसी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को स्वास्थ्य तंत्र का हिस्सा बनाने पर बल दिया गया। इसी क्रम में भारत सरकार ने WHO Global Centre for Traditional Medicine (गुजरात, 2022) की स्थापना के माध्यम से इसे वैश्विक स्तर पर मजबूत का करने का एक अच्छा प्रयास किया है।

अमेरिका में Dietary Supplement Health and Education Act (DSHEA, 1994) के तहत आयुर्वेदिक उत्पादों को सप्लीमेंट श्रेणी में अनुमति मिलती है, जबकि यूरोप और खाड़ी देशों में अलग-अलग नियामक प्रक्रियाएँ हैं।

इस तरह आयुर्वेद अब केवल भारत की परंपरा नहीं, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य बाजार का सशक्त घटक बन चुका है। इसकी सफलता आधुनिक अनुसंधान, गुणवत्ता नियंत्रण और अंतरराष्ट्रीय मानकीकरण पर निर्भर करती है। यदि वैज्ञानिक प्रमाण और नीतिगत समर्थन सही दिशा में आगे बढ़ते रहे, तो आने वाले दशकों में आयुर्वेद वैश्विक स्वास्थ्य उद्योग का प्रमुख स्तंभ बन सकता है।

 वैश्विक स्वास्थ्य बाजार आयुर्वेद नहीं इन्डियन हर्बल या 

ट्रेडिशनल मेडिसिन

 इस आलेख मैंने बार-बार आयुर्वेद शब्द का प्रयोग किया है, परन्तु वैश्विक बाजार में आयुर्वेद के लिए भारतीय पारम्परिक चिकित्सा या औषधि का प्रयोग किया जाता है। दरअसल वैश्विक बाजार में आयुर्वेद और सिद्ध की हिस्सेदारी नहीं उसके हर्बल ज्ञान की हिस्सेदारी है। जिसे आधुनिक मानकों पर आधुनिक यंत्रों से निर्मित कर बेचा खरीदा जा रहा है। साफ-साफ कहें तो आयुर्वेद-सिद्धा पारम्परिक विरासत को खत्म करने षडयंत्र किया जा रहा है, क्योंकि आयुर्वेद, सिद्धा मात्र घरेलू,पारम्परिक उपचार नहीं है। यह पूर्णतः विकसित आयुर्विज्ञान (Health Science) हैं। जिसमें स्वास्थ्य, रोग, रोग की परिभाषा-कारण व पहचान की स्वतंत्र विधियाँ हैं। औषधि द्रव्य के रूप में केवल वनस्पतियाँ ही नहीं विभिन्न जीव-जन्तुओं का माँस, हड्डियां, रक्त, विष, धातुयें, लवण, खनिज, रत्न भी है. जो उन रोगों पर भी प्रभावी हैं जिनका आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा विज्ञान में कोई विकल्प नहीं है। दुर्योग से आयुर्वेद, सिद्धा, यूनानी के इस सबल और वैज्ञानिक पक्ष को खारिज कर केवल वानस्पतिक द्रव्यों की वैश्विक स्वास्थ्य में स्वीकृति है। परिणाम यह कि भारत के तमाम आयुर्वेदिक संस्थान, विश्वविद्यालय, कालेज,पाठ्यक्रम,ज्ञान व स्कालर्स का भी कोई महत्व नहीं है। जो चिकित्सक या फार्मा कम्पनियाँ वैश्विक बाजार में शामिल हो रही हैं, वे केवल वानस्पतिक द्रव्यों एवं बाह्य प्रयोग जैसे पंचकर्म, स्नेहन, स्वेदन, मसाज आदि के नाम हो रही है। इस संदर्भ में यह कह सकते हैं. वास्तव में वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में आयुर्वेद की कोई हिस्सेदारी नहीं है।

 आयुर्वेद को वैश्विक बाजार में शामिल करने के लिए रसशास्त्र जरूरी

 आयुर्वेद का तात्पर्य  केवल हर्बल फार्मुलेशन्स, चाय या त्वचा-उत्पादों तक सीमित नहीं है; इसकी गहनतम उपलब्धि उसकी विशिष्ट शाखा रसशास्त्र की वैश्विक स्वीकृति जरूरी है।

पिछले सौ वर्षों में पश्चिमी चिकित्सा पद्धति ने चिकित्सा जगत में अभूतपूर्व प्रगति की है। वैक्सीन, एंटीबायोटिक्स, शल्यचिकित्सा और अंग प्रत्यारोपण जैसी उपलब्धियों ने चिकित्सा विज्ञान को नई ऊचाइयाँ दी हैं। किंतु इस चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ गंभीर समस्याएँ भी सामने आई हैं। जीवनशैली से जुड़े रोगों की बढ़ती संख्या, कैंसर और हृदय रोग जैसी जटिल बीमारियों का प्रसार, मानसिक तनाव और अवसाद की वैश्विक समस्या तथा सबसे बड़ी चुनौती एंटीबायोटिक प्रतिरोध (Antibiotic resistance) ने आधुनिक चिकित्सा की सीमाओं को उजागर किया है। आज यह स्थिति है कि हर महीन नये साल्ट की जरूरत पड़ रही है। एक साल्ट कुछ महीनों में प्रतिरोधी (Resist) हो जाता है, फिर कम्बाइम्ड साल्ट प्रयोग किये जाते हैं, उसके असफल होने पर नये साल्ट की खोज करनी पड़ती है। पर आश्चर्यजनक रूप से आयुर्वेद के खनिज, धातुओं के भस्म व पारद योग हजारों साल पहले जितने प्रभावी थे उतने ही आज भी हैं।

इसलिए आयुर्वेद की विशाल परंपरा का केंद्र उसकी औषधीय शाखा रसशास्त्र में है, जो प्राचीन भारतीय औषध विज्ञान की सबसे उत्कृष्ट उपलब्धियों में से एक है। यही वह आधार जो आयुर्वेद को प्रचीनतम् आयुर्विज्ञान सिद्ध करता है।

रसशास्त्र केवल धातुओं और खनिजों के उपयोग की परंपरा नहीं है, बल्कि यह प्रकृति की सुप्त शक्तियों को औषधीय क्षमता में रूपांतरित करने का एक वैज्ञानिक प्रयोग है। इसमें पारा, स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह और जस्ता,बंग जैसी धातुओं को विशिष्ट शोधन, मर्दन, भस्मीकरण आदि प्रक्रियाओं से गुजारा जाता था और उन्हें सूक्ष्मतम रूप, जिसे भस्म कहा गया, में परिवर्तित किया जाता था। इन भस्मों का प्रयोग अल्प मात्रा में औषधियों के रूप में किया जाता है।

उदाहरण रोग जीवाणु नाशक व प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने, लौह भस्म का प्रयोग रक्ताल्पता और शारीरिक दुर्बलता में किया जाता है। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि आज का आधुनिक विज्ञान जिस नैनो-फार्माकोलॉजी और मेटल-बेस्ड ड्रग्स की चर्चा है, उसकी वैचारिक जड़ें कहीं न कहीं भारतीय रस शास्त्र में खोजी जा सकती हैं। आधुनिक चिकित्सा में कैंसर उपचार के लिए गोल्ड नैनोपार्टिकल्स, सिल्वर नैनोपार्टिकल्स तथा प्लेटिनम आधारित यौगिकों का प्रयोग बढ़ रहा है। बिस्मथ और अन्य धात्विक यौगिक भी औषधीय अनुसंधान के महत्वपूर्ण हिस्से बन चुके हैं। इसके लिए संभव है आयुर्वेद के रस विज्ञान से प्रेरणा मिली हो।  यह समानता इस बात को प्रमाणित करती है कि प्राचीन भारतीय आचार्यों ने धातुओं और खनिजों की औषधीय क्षमता को बहुत पहले पहचान लिया था।

 संभव है कुछ दिनों बाद रस शास्त्र नैनो मेडिसिन के रूप में वैश्विक बाजार में हिस्सेदार हो जाय । यदि ऐसा हुआ तो आयुर्वेद इतिहास का विषय बन जायेगा ।

यह विडंबना है कि रस शास्त्र को वैश्विक चिकित्सा विमर्श में अभी तक वह स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी वह पात्रता रखता है। इसके अनेक कारण हैं—वैज्ञानिक प्रमाणों और क्लीनिकल ट्रायल का अभाव, मानकीकरण की समस्या, और अंतरराष्ट्रीय नियामक संस्थाओं के एकांगी, जटिल मानदंड।

भारत का आयुर्वेदिक निर्यात अब भी अपेक्षाकृत सीमित है और मुख्यतः हर्बल सप्लीमेंट, कॉस्मेटिक्स तथा योग-आधारित उत्पादों तक सिमटा हुआ है। गहन वैज्ञानिक आधार वाली रसशास्त्र शाखा को अभी तक अंतरराष्ट्रीय मंच पर वह पहचान नहीं मिल सकी है, जिसकी वह हकदार है।

यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या भारत आयुर्वेद को केवल हर्बल चाय और सौंदर्य प्रसाधनों तक सीमित रखेगा, या फिर उस वैज्ञानिक परंपरा को पुनर्जीवित करेगा,जिसने धातुओं और खनिजों को जीवनरक्षक औषधियों में परिवर्तित कर दिया था। यदि आयुर्वेद को वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में वास्तविक पहचान दिलानी है तो रसशास्त्र को आधुनिक नैनो-विज्ञान और बायोमेडिसिन के साथ जोड़कर प्रस्तुत करना होगा।

इसके लिए कुछ अनिवार्य कदम उठाए जाने आवश्यक हैं। सबसे पहले जटिल वैज्ञानिक अनुसंधान और क्लीनिकल ट्रायल होने चाहिए, जिनसे रसशास्त्रीय औषधियों की प्रभावकारिता आधुनिक मानकों पर प्रमाणित हो सके। इसके साथ ही मानकीकरण और गुणवत्ता नियंत्रण अत्यंत आवश्यक है, ताकि भस्म निर्माण की विधियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिल सके। इसके अतिरिक्त, सरकार और निजी क्षेत्र दोनों को नीति और निवेश के स्तर पर अनुसंधान तथा निर्यात को प्रोत्साहित करना होगा। अकादमिक विमर्श में भी रसशास्त्र की उपस्थिति बढ़ानी होगी—अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों, चिकित्सा पत्रिकाओं और सहयोगी शोध परियोजनाओं के माध्यम से। साथ ही जनजागरूकता भी आवश्यक है, ताकि यह भ्रांति दूर हो सके कि रसशास्त्र केवल ‘धातुओं की खुराक’ है। इसे नैनो-मेडिसिन की प्राचीन धरोहर के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

आज जब विश्व गंभीर स्वास्थ्य संकटों का सामना कर रहा है—एंटीबायोटिक प्रतिरोध, जीवनशैली संबंधी रोग, मानसिक विकार और कैंसर जैसी असाध्य बीमारियाँ—तब आयुर्वेद और विशेषकर रसशास्त्र केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर नहीं, बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य विज्ञान के लिए एक नई राह खोल सकते हैं। यदि भारत साहसपूर्वक आयुर्वेद और रसशास्त्र को आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान से जोड़ने का कार्य करता है तो वह न केवल वैश्विक स्वास्थ्य बाजार का सहभागी बनेगा, बल्कि उसका नेतृत्व भी कर सकता है।

अकादमिक दृष्टि से यह निष्कर्ष निकलता है कि रसशास्त्र युक्त आयुर्वेद अतीत थाती के बजाय चिकित्सा विज्ञान का भविष्य  तय कर सकता है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग के साथ अनुसंधान और प्रयोग कर प्रमाणिक सिद्ध करना होगा। यही समय है जब रसशास्त्रीय आयुर्वेद को आधुनिक विज्ञान के साथ एकीकृत कर वैश्विक स्वास्थ्य के केंद्र में स्थापित जा सकता है।

संदर्भ-

1-World Health Organization. (2014). WHO Traditional Medicine Strategy 2014–2023. Geneva: WHO.

2-World Bank. (2023). Global Health Expenditure Database.

3- Fortune Business Insights. (2023). Healthcare Market Size, Share & Industry Analysis.

4-Ministry of AYUSH, Government of India (1995, 2003, 2014). Official notifications.

5-WHO (2019). Global Report on Traditional and Complementary Medicine.

6-WHO (2020). Antimicrobial resistance fact sheet.

7-Ministry of Commerce & AYUSH, Govt. of India (2022). AYUSH Export Data.

8-Sharma, P.V. (1998). Rasashastra. Chaukhamba Orientalia, Varanasi.

9-Journal of Nanomedicine (2015). Metal-based nanoparticles in medicine.

( लेखक की प्रकाशाधीन पुस्तक - वैश्विक स्वास्थ्य बाजार में आयुर्वेद का मुख्य लेख)

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  1. शानदार शोध पुर्ण लेख -

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