विलुप्त होती वनस्पतियाँ और ज्ञान
आज से 40 साल पहले चिकित्सा सुविधाओं का इतना विस्तार और विकास नहीं था । प्रत्येक
गाँव –नगर मे खाली जमीनें,टीले,बाग हुआ करते थे।जिसमें अनेक प्रकार के पेड़-पौधे
और वनस्पतियाँ थीं,लोगों को उनका पहचान और उनके उपयोग का
ज्ञान था,सामान्य रोगों का इलाज इन वनस्पतियों से हो जाया
करता था ।आज भी दूर-दराज में के गाँवों,आदिवासी इलाकों ऐसा होता है । 1-4 दिसम्बर
16 सातवें विश्व आयुर्वेद सम्मेलन कोलकता मे इस तरह के पारम्परिक चिकित्सकों से
मिलने का मौका मिला,वे विशेष रुप से असम, झारखण्ड, छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश,उड़िसा आदि से 200 की संख्य़ा में आमंत्रित थे वे उसमें से अधिकतम लोग
साक्षर भी नहीं थे पर जंगली जड़ी-बूटियों की पहचान और उपयोग का ज्ञान देखकर
वैज्ञानिक भी दंग रह गये । पर खेदजनक रुप से जैसे -जैसे विकास हो रहा है वैसे-वैसै
ये वनस्पतियां और उनके जानकार दोनों विलुप्त हो रहे हैं.पर उन्हीं जड़ी-बूटीयों के
नाम पर बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों द्वार आधुनिक पैकेजिंग में दवाये बना महँगे कीमत
में बेची जा रहीं हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है पपीता के पत्ते का रस, खून जमने की क्षमता बनाने वाले
रक्तकण (प्लेटलेट) को बढ़ाता है। यह ज्ञान पुस्तकीय नहीं पारम्परिक है, इसलिए डेंगू का रोगियों के लिए लाभदायक है। इसे कई कम्पनीयों ने
टैबलेट-कैप्सूल के रुप में बना कर 40 से 50 रुपये प्रति टैबलेट बेच रही है। यह
कार्य बहुत सारे पौधो के साथ हो रहा है,पारम्परिक ज्ञान का
पैकेजिंग कर अरबों-खरबों का व्यापार हो रहा है।आश्चर्य की बात यह है कि आज विकास के नाम पहाड़,वन
तो काटे ही जा रहे हैं,गाँव के टीलो,धूसों,खाली जमीने खत्म हो रही हैं,जिसके साथ
ही जड़ी-बूटियां भी खत्म हो रही हैं। केवल हाईवे बनाने में हजारों वनस्पतियाँ
दुर्लभ होती जा रही हैं।अधिक
नहीं मात्र दस साल पहले गुवाहाटी एक पर्यावरण समृद्ध शहर हुआ करता था,लेकिन आज
विकास की आँधी में दिल्ली जैसी हालत में पहुँच रहा है।
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