Editorial संपादकीय विमर्श                                                                अप्रासंगिक धार्मिक कथायें व अवधारणायें 


जब शिक्षा और सूचना का माध्यम सीमित था तो स्थानीयता को ही वैश्विक मानना स्वाभाविक था,परन्तु आज जब शिक्षा और सूचना वैश्विक विस्तार हो चुका है तब भी धर्मिक कथाओं में आस्था की वजह से लोग वैश्विक सत्य माने बैठे हैं। पुराणों, रामायण, महाभारत, महाकाव्यों, लोककथाओं, वर्णित असुर, दानव, दैत्यों, राक्षसों के विनाश की कामनाओं की प्रार्थनायें की जाती हैं ।आज भी की जाती हैं। उनकी जीवन शैली की निन्दा और घृणा करना भी हमारी धार्मिकता बन चुकी है। ये प्रतिनायक चरित्र मन में इतनी गहरे बैठ गये हैं,उस जीवन शैली को स्वाभाविक रूप से जीने वाले लोगों के प्रति भी  घृणा करते हैं। हमारे कथित धर्माचार्य,प्रवचनकर्ताओं द्वारा इस घृणा को बनाये रखने की पुरजोर कोशिश की जाती है। जबकि सच यह है कि देश की अधिकतम आबादी अपने भौगोलिक-सांस्कृतिक परिवेश की वजह से उसी शैली का जीवन जीते हैं, जैसे भोजन में माँसाहार मद्यपान दानवीय,दैत्ययी,राक्षसी माना जाता है। जबकि देश ही नहीं दुनिया आधिकतम आबादी माँसाहार-मद्यपान करती है । हिन्दू या सनातन परम्परा में उन पवित्र कथाओं को सुनने मानने वालों में भी अधिकतम लोग मांसाहार और मद्यपान करते हैं। कथित हिन्दू,सनातन के दायरे रहने वाली एक बहुत बड़ी आबादी ऐसे देवताओं की उपासना करती है जिनकी पूजा उपासना बिना माँस-मद्य की नहीं होती है। अब धार्मिक कथायें,स्मतियों आदर्श आचार संहिताओं के अनुसार यह बड़ी आबादी दैत्य,दानवों,राक्षसों के दायरे में आ जाती है,जिनके प्रति हमारे मन से सदियों से घृणा भरी हुई है।यह घृणा ऐसी शैली वाले अन्य धर्मों व कथित निचली पायदान की जातियों के प्रति भी है।
शिक्षा और सूचना के विस्तार के दौर में यदि आप ठीक से पढ़ने जानने में रुचि रखते है.आपका विस्मित होना निश्चित है क्योंकि उत्तर भारत के अलावा मिथिला, उड़िसा, बंगाल, असम, तमिल, केरल, कन्नड़, झारखण्ड आदि की बात तो छोड़िये,उत्तर भारत के किसी गाँव को गहरी नजर से देखिये,जहाँ अनेक जातियों की परम्परायें,पूजा पद्धतियाँ, जीवन शैली पुराणों के राक्षसों,दानवों,असुरों जैसी मिल जायेगी। वर्तमान में प्रचारित सात्विक महीने सावन,नवरात्रि में भी सुअर,बकरे की बलि और मद्य से तर्पण उनकी परम्परा में है,जिसके प्रति वे गहरी आस्था रखते हैं। यदि अध्ययन को कुछ आगे बढ़ाते है जो झारखण्ड, बंगाल, उड़िसा में असुर जनजाति के गाँव भी मिल जायेगे । मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र,उड़िसा में भी ऐसे गाँव या लोग मिल जायेगें जो खुद को  राक्षस राज रावण का वंशज मानते हैं । मजेदार बात है ये खुद को विभीषण का वंशज नहीं मानते है,उत्तर भारत में विभीषण आदरणीय है तो इनके लिए निंदनीय,क्योंकि विभीषण की वजह से ही राक्षस राज की पराजय हुई थी । इनके लिए राम नहीं रावण पूज्यनीय है। इसी तरह बंगाल और उत्तर भारत में दुर्गा पूज्य है तो कन्नड़ संस्कृति के मैसूर में महिषासुर का मंदिर भी है,महिषासुर का मंदिर तो बनारस में भी है इसी नाम घाट भी है , यहाँ महिषासुरा छवि प्रजापालक राजा की है। इसी तरह उत्तर में वामन विष्णु के अवतार है तो केरल में धोखेबाज हैं जिन्होंने धोखे से दैत्यराज बलि का राज्य दान में लेकर उन्हे पाताल लोक भेज दिया है,इसलिए दैत्यराज पूज्य है तो वामन खलनायक। इसी तरह पूर्वोत्तर भारत में कोच,मेच,बोरो आदि अनेक जनजातियाँ के मिथक दावन,दैत्य वंश जुड़े हुए हैं। इस तरह पुराण महाकाव्यों की कथायें,प्रार्थनायें लोकतंत्र को फलित होने सबसे बड़ी बाधक लगती है। इसलिए आज इन्हें अप्रांगिक करने की जरूरत है। कथा वाचकों,धर्म प्रचारकों भी दानव,दैत्य,राक्षस शब्दों को पुनर्परिभाषित करना चाहिए । सबसे बड़ी जरूरत देश की विविध संस्कृतियों,परम्पराओं को जानने समझने की है । जिससे यह पता चल सके कि पुराण,महाकाव्यों का कोई युद्ध पाप-पुण्य धर्म-अधर्म के लिए नहीं  सत्ता और वर्चस्व के लिए हुए थे। यदि पुराण की ही बात मानें तो देव.दैत्य,दानव,राक्षस,मानव आदि सभी  एक पिता कश्यप से ब्याही गयी 64 बहनों की संतानें हैं,अर्थात सौतेले,मौसेरे भाई है।ऐसे रिश्तों में प्रापर्टी व सत्ता का संघर्ष आज भी हम मनुष्यों स्वाभाविक तौर पर होता रहता है।
इसलिए शिक्षा,व्यापक अध्ययन और सूचनाओं से यह स्पष्ट हो चुका है यहाँ कोई सिंगवाला,दस मुख,बड़े दाँत वाला कुरूप शक्ल सूरत वाले भैंसा,बकरा,मुर्गा,सुअर खाने वाले,मद्यपान करने वाले राक्षस, दावन,दैत्य नहीं थे बल्कि सभी मानव कुल कबीले थे,आज जातियाँ बन चुकें हैं। आज की दुनिया अतीत से अधिक मानवीय है, जीवन सुखद व सहज है, इसलिए अतीत की ओर लौटने, स्वर्णिम अतीत की बातें भ्रामक ही नहीं असंभव भी हैं । हालाँकि आज भी किसी न किसी रुप में देव-दावन,राक्षस संघर्ष जारी है,शुक्राचार्य और वृहस्पति अपना काम कर रहे हैं। मान लीजिए यदि कथित स्वर्णिम अतीत की ओर लौट गये,कथित धार्मिक राष्ट्र बन ही गया तो दानव,असुर,दैत्य,राक्षस,जनजातिय,विविध सांस्कृतिक समूह के लोगों के साथ क्या व्यवहार करेगें हम ?कथित सवर्णपिछड़े,दलित, आदिवासी,बौद्ध, जैन, सिक्ख, शाक्त, कापालिक की स्टेटस क्या होगा ?इसलिए मानव सभ्यता, संस्कृति, साहित्य के अध्ययन तक तो ठीक है पर ये अवधारणायें स्वस्थ लोकंतंत्र को फलित होने में सबसे बड़ी बाधा है । इनकी मजबूती और प्रसार लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।कथित धार्मिक  कथाओंअवधारणाओं को अप्रासंगिक करने की जरूरत है ।
                                              

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