अथर्ववेदीय चिकित्सा सूत्र: मानव के साथ प्रकृति-पर्यावरण के स्वास्थ्य की कामना

 Issue 30 Vol.-1 Jan-Mar 2025, Paper ID-E30/2  RNI:UPBIL/2017/75141       ISSN:2581-7884 

डा. रति सक्सेना1

1के. पी.9/624,वैजयन्तचेट्टिकुन्नु,मेडिकल कालेज पो आ ,तिरुवनन्तपुरमकेरल

सारांश

अथर्ववेद के ऋषि दीर्घ आयु की कामना भी करते हैं तो पूरे समाज के लिए न कि मात्र स्वयंम् के लिए। व्यक्तिगत वेदना की अभिव्यक्ति भी सार्वजनिक रूप से करते हैं। इस तरह से वे अपनी पीड़ा में सभी  को भागीदार बना लेते हैं। इससे एक लाभ यह है कि प्रत्येक पीड़ा में समाज की पूरी भागीदारी होती है। जिससे वह स्वभावतः उसके निवारण में भी सहायक बनता है। समष्टि में व्यष्टि और व्यष्टि में समष्टि ही लोक का मूल मंत्र है। अथर्ववेदीय चिकित्सा सूत्रों में रोगों से मुक्ति के साथ पर्यावरण से मानवीय सम्बन्ध, भौतिक उन्नति, वनस्पति और मानव में मित्रता, शरीर का सर्वांग अध्ययन,अंग-अंग के द्वारा सर्वांग तक पहुँच की  कामना और औषधियों में दिव्य शक्तियों के आह्वान से रोगी और चिकित्सक की मानसिक शक्ति को सबल करने प्रयास भी है।

  अथर्वेदीय ऋषि तपोवनवासी  गम्भीर चिन्तक नहीं, अपितु जीवन से जुड़े वे सरल मानस भोले मानव थे जो न केवल जीने में अपितु अच्छी तरह से जीने में विश्वास रखते थे। लोक की यह विशेषता होती है कि वे अपनी भावनाओं को छिपाने मे विश्वास नहीं रखते, यदि वे दीर्घ आयु की कामना भी करते है तो पूरे समाज के लिए न कि मात्र स्वयम् के लिए । यही नहीं यदि उनकी वेदना व्यक्तिगत होती है तब भी उसकी अभिव्यक्ति सार्वजनिक होती है। इस तरह से वे अपनी पीड़ा में सभी  को भागीदार बना लेते हैं। इससे एक लाभ यह है कि प्रत्येक पीड़ा में समाज की पूरी भागीदारी होती है। जिससे वह स्वभावतः उसके निवारण में भी सहायक बनता है। समष्टि में व्यष्टि और व्यष्टि में समष्टि ही लोक का मूल मंत्र है।  इसके विपरीत मानव  ज्यों-ज्यों लोक से कटता जाता है त्यों-त्यों अन्तर्मुखी होता जाता है। वह न तो अपने सुख में किसी को भागीदार बनाता है न ही दुख में । समाज उसके लिए बन्धन बन जाता है । उसकी पीडाएं भी व्यक्तिगत बन जाती हैं। उनसे छुटकारा पाने के लिए उसे एकान्त की कामना होती है।  यह अन्तर वेद और उपनिषदों स्पष्ट दिखाई देता है । अथर्ववेद के मन्त्रों की सरलता इस बात की पुष्टि करती है कि इस वेद के ऋषि लोक चिन्तक थे। यद्यपि इसका यह तात्पर्य नहीं कि इस वेद में गम्भीर चिन्तन  ही नहीं । वास्तविकता तो यह है कि इसमें काल विशेष की सम्पूर्ण चिन्तन धारा सन्निहित है । जिसमें लोक चिन्तन के साथ-साथ लोक की दृष्टि से परम शक्तियों को भी कोशिश की गई है । सबसे प्रमुख विशेषता है जीवन की वेदना के प्रति मनोवैज्ञानिक पहुँच और उससे लडने की प्रवृत्ति ।

मानव को आदि काल से आधि-व्याधि सताती रहीं हैं। अथर्ववेदीय काल तक मानव संस्कति उस पड़ाव तक पहुँच  चुकी थी कि लोक सामान्य भी आधि-व्याधियों के निवारण हेतु वनस्पति औषधियों के प्रयोग को समझने लगे थे। किन्तु कभी-कभी औषधियों के साथ मनोवैज्ञानिक प्रभाव की भी आवश्यकता रहती है। यह प्रभाव वाचिक  शक्ति  से बढाया जा सकता है। यदि औषधियों के साथ प्रार्थना को भी सम्मिल्लित कर लिया जाए  तो उनका प्रभाव बढ जाता है अर्थात् औषधियों के साथ पवित्र मन के साथ की  गई स्तुति अपरोक्ष रूप से औषधियों के  गुणों को  बढा देती हैं। इन स्तुतियों में औषधियों के गुणगान के साथ- साथ उन सभी परम शक्तियों से औषधियों के गुणवर्धन के लिए आग्रह निहित है जो पर्यावरण  को बनाए रखने में सहायक हैं । जैसे प्रकाश दायक सूर्य, जल प्राप्ति के स्त्रोत वरुण, सभी तापों की सम्वाहिका अग्नि आदि। यह लोक की चिकित्सा पद्धति है । आज भी आदिवासियों में देखी जा सकती है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि यह चिकित्सा विधि अवैज्ञानिक या प्रभावहीन है। वस्तुस्थिति तो यह है कि लोक पर्यावरण से इतना जुड़ा रहता है कि उनमें एक अद्भुत सामंजस्य स्थापित हो जाता है। वह वनस्पति को समझने की कोशिश करता है तो पत्ता -पत्ता अपना गुण बखानने लगता है। उसके पास बहुत से साधन तो होते नहीं, बस होता है अदम्य विश्वास  जिसकी सहायता से वह औषधियों के गुणों को अनुकूल बनाने की कोशिश करता है। अथर्ववेदीय मन्त्रों में जिन्दगी को इसी समष्टि रूप में जीने की कामना स्पष्ट दिखाई देती है।
अथर्ववेद में रोगों से लड़ने के लिए जो मन्त्र मिलते हैं उनकी निम्नलिखित विशेषता स्पष्टतः दिखाई देतीं हैं।
1- निकट पर्यावरण से मानवीय सम्बन्ध की दृढ़ता
2-जीवन में भौतिक उन्नति
3-वनस्पति औषधियों का समुचित प्रयोग
4-वनस्पति और मानव में मित्रता की स्थापना
5-मानव शरीर का सर्वांग अध्ययन
6-अंग-अंग के द्वारा सर्वांग तक पहुँच
7-औषधियों का ज्ञान
8-औषधियों में दिव्य शक्तियों का आह्वान
9-रोगी की मानसिक शक्ति को जगाना
10-चिकित्सक की मानसिक शक्ति को दृढ़ करना
11-जीवन के प्रति मोह होते हुए भी मृत्यु की स्थिति को स्वीकार करना
12-तन और मन का आत्मिक आनन्द से जुड़ाव
1- मानव व प्रकृति में सामंजस्य तो ऋग्वैदिक काल से स्थापित हो गया था, किन्तु अथर्ववेद में इस सम्बन्ध को जिन्दगी की दृष्टि से स्थापित करने की कोशिश की गयी है। अथर्ववेदयी ऋषियों ने अपने आसपास के पर्यावरण पर ध्यान केन्द्रित किया । स्वच्छ जल, वायु, भोजन की कामना बलवती बनी है । वे कामना करते रहे कि नदियाँ अच्छी तरह से बहें, हवा चले, पक्षी सुख रहें, दिन व रात सुखकारी बने रहें। ( अथर्व. 1.50.1, 7.69.
2- तत्कालीन जन ने यह सत्य पहचान लिया था कि स्वास्थ्य मात्र रोगों की अनुपस्थिति नहीं होता,बल्कि कुपोषण, गरीबी, भुखमरी आदि भी रोगों का एक प्रकार है। अथर्ववेद में औषध या वनस्पति उत्पादन पर विशेष बल दिया गया है- वे कहते हैं कि - इन्द्र हल की रेखा को ग्रहण करें, पूषा रक्षा करें, धरा गाय के समान पयस्पती हो, हल भूमि खोदें, कृष्क बैलों के पीछे चलें, इस तरह उत्तम औषध पैदा हो-
इन्द्र सीता नि गृह्णातु तां पूषामि रक्षतु।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरां समाम्।।
शुनं सुफला वि तुदन्तु भूमिं शुनं खीनाशा अनुयन्तु वाहान्।
शुनाशीरा हविषा तोषमाना सुप्पिला ओषधीः कर्तमस्मै।। अथर्व. 3.17.4,5
अथर्ववेद में कृषि के साथ वाणिज्य,अच्छा मकान आदि को भी महत्व दिया गया है। सर्वांगीण सुख के लिए सभी ओर से विकास होना आवश्यक है
3-  अथर्ववेदीय मंत्रों का आज तक जो महत्व है उसका प्रमुख कारण उसका औषध विज्ञान है। इस काल में जितनी वनस्पतियों के गुणों को पहचाना गया, उतना शायद ही किसी अन्य काल में संभव हुआ होगा । इस युग में न केवल वनों से औषध चुनी जाती थी बल्कि उनका उत्पादन भी होने लगा था।(अथर्व. 6.21.2) रोगों के उपचार के लिए विशिष्ट औषधि प्रयोग का ज्ञान भी विकसित हो चुका था । जैसे राजयक्ष्मा के लिए शतवार,( अथर्व. 20.96.1-24) कुष्ठ के लिए जीवला,( अथर्व. 19.39.1-10) यक्ष्मा के लिए गुल्गुलुः ( अथर्व. 19.38.1)आदि का प्रयोग होता था । यहाँ तक दर्भ नामक ऐसी औषध का उल्लेख भी मिलता है जिसके प्रयोग से व्यक्ति सबका प्रिय बन जाता है। (अथर्व. 19.32.1-10) तत्कालीन औषध ज्ञान पर ही आयुर्वेद शास्त्र की नींव पड़ी । यह भी संभव है कि मनुष्य ने इन औषधियों का ज्ञान पशुओं की आदतों को समझते हुए किया हो।
 4-दिव्य शक्तियों की स्तुति मात्र से रोग दूर नहीं हो सकते, औषधियों का प्रयोग भी तो आवश्यक है । यूँ तो लोक औषधियों को पहचानता था, उनका प्रयोग भी करता था, पर साथ ही में वह उनके गुणों को बढा ने के लिए स्तुति भी करता था । यह एक मनोवैज्ञानिक उपाय है तथा वैज्ञानिक सत्य है। यह तो सिद्ध हो गया है कि वनस्पति में प्राण शक्ति होती है, अर्थात् जीवन होता है। इस दृष्टि से वनस्पति अपने प्राण देकर प्राणी समुदाय की रक्षा करती है तो उस बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है । इसीलिए अथर्वेदीय जन उन औषधियों की भी स्तुति करते है। वह उसे समस्त वनस्पतियों में श्रेष्ठ मानते हुए रोगों से छुटकारे की प्रार्थना करते है-2 । जिस तरह नक्षत्रों में सोम श्रेष्ठ होता है, देवों में वरुण श्रेष्ठ है उसी तरह औषध भी सभी वनस्पतियों में श्रेष्ठ है 3। वे प्रार्थना करते हैं कि हे औषध ! तुम देवी अरुन्धति के साथ मिल कर शान्ति प्रदायनी बनो जिससे हमारी गौशाला की गाएं दुग्ध दायिनी बने और वीर पुरुष नीरोगी बनें 4। जब वह किसी विशिष्ट औषध का प्रयोग करता था तो उसी की प्रार्थना किया करता था जैसे विश्वजित् का प्रयोग करते समय वह कहता कि विश्वजित हमारी रक्षा करे इस जग में जितने भी दोपायें या चौपायें हैं सभी की रक्षा करे 5। पिप्पली के गुण गाते हुए वह कहता कि पिप्पली शीघ्रता से प्रभाव दिखाने वाली औषध है, देवताओं ने इसे जीवन के लिए आवश्यक माना है 6। अपामार्ग औषध के गुण गाते हुए वे कहते हैं कि -तुम सबसे प्राचीन औषध हो, तुम हमारे सभी शापों का शमन करने में समर्थ हो 7। इस तरह औषधियों के गुण कितने बढ़ सकते हैं, यह एक मनोवैज्ञानिक स्पष्ट कर सकता है। लोक में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ वनस्पतियों  के साथ मानव ऐसे ही सम्बन्ध स्थापित कर लेता है जैसा कि पशुओं के साथ करता है। निसन्देह प्राणवान औषधियों पर मानव की स्तुति का अनुकूल प्रभाव ही पड़ता होगा ।
5-अथर्ववेद के दसवें काण्ड में एक सम्पूर्ण सूक्त है जिसमें मानव के अंग-प्रत्यंग का वर्णन है। यद्यपि पहली दृष्टि से ऐसा लगता है कि चिन्तक एक-एक अंग के निर्माण के लिए आश्चर्य प्रकट कर रहे हैं किन्तु ध्यान से देखने से प्रतीत होता है कि यह आश्चर्य अबोधपन का सूचक नहीं है, अपितु शरीर -विज्ञान के अध्ययन द्वारा सूक्ष्म तत्व सीख पाने के आल्हाद का सूचक है।  वे तलवे से शुरु करके हर एक जोड़ के बारे में जानने की कोशिश करते हैं , इसके बाद माँस -पेशियों और धमनियों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। अन्ततः मस्तिष्क के विभिन्न अंग जैसे कपाल, ललाट, ककाटिका और हनु का का अध्ययन किया जाता है। अन्तः माँसपेसियों की सूक्ष्मता, वाणी क्षमता, बुद्धि उपलब्धि आदि के बारे में जानने की कोशिश करते हैं। ( अथर्व. 10.2.1-17) इस तरह उनकी अध्ययन प्रक्रिया स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलती है।  
6- रोग का प्रभाव किसी अंग विशेष पर हो सकता है, किन्तु उसके मूल में अनेक समस्याएँ हो सकती हैं। अतः सर्वांग चिकित्सा में बीमारी का इलाज किसी एक अंग के आधार पर नहीं अपितु सभी अंगों के दोषों के आधार पर किया जाता है। अथर्ववेदीय चिकित्सा प्रणाली में इसी विधि को अपनाया जाता है। जैसे कि यक्ष्मा के इलाज के लिए हर अंग से यक्ष्मा दूर करने की प्रार्थना की जाती है।
\अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि।
यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते।।
ग्रीवाभ्यस्त उष्णिहाभ्यः कीकसाभ्यो अनक्यात्।
 यक्ष्मं दोषम्य मंसाभ्यां बाहुभ्यां वि वृहामि ते।।
हृदयात् ते परि क्लोम्नो हलीक्ष्णात् पाश्र्वोभ्याम्।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां प्लीह्नो यक्नस्ते वि वृहामसि।।
आन्त्रेभ्यस्ते गुदाभ्यो वनिष्ठारुदरारधि।
 यक्ष्मं कुक्षिभ्यां प्लाशेर्नाभ्या वि वृहामि मे।। अथर्व. 2.33.1-6) एवं 9.8.1
7-तत्कालीन समाज में औषधियों का ज्ञान व्यापक था, अधिकतर औषधियों को उनके नामों और गुणों से पहचाना जाता था । सम्भवतः उनके नाम भी उनके गुणों के अनुरूप रखे जाते रहे होंगे। विभिन्न औषधियों का उत्पादन उनके उपयोग को दृष्टि में रख कर किया जाता होगा। कुछ मंत्रों में तो विभिन्न औषधियों के गुणों और नामों का इस तरह उल्लेख है जैसे कि चिकित्सा विद्या का शिक्षण किया जा रहा हो । उदाहरण के लिए-
जीवलां नद्यारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्।
अरुन्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेद्मस्मा अरिष्टतान्ये।
अवकोष्वा उदकात्मान ओषधयः। व्युषन्तु दुरितं तीक्ष्णशृंगगमः ।। अथर्व.8.7.9
 8-  पीड़ा व रोग निवारण के लिए दिव्यशक्तियों का आह्वान  करने की प्रवृत्ति ऋग्वैदिक काल से प्रचलित थी, जो एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है। जब भी उसे ऐसी व्यथा या पीड़ा होती है जिसका निवारण उसके हाथ में नहीं होता तो वह किसी अदृश्य शक्ति से सहायता मांगता है। अथर्ववेद में यह प्रवृत्ति स्वभावत दृष्टिगोचर होती है। तत्कालीन जन  अग्नि से प्रार्थना करते है कि  कुछ वह ऐसा करे जिससे  सभी शत्रु विलाप करें-
स्तवानमग्न आ वह यातुधनं किमीदिनम्।
त्वं हि देव वन्दितो हन् ता दस्योर्वभूविथ।।   अवे.1.2.7/1. अथर्व. 1.2.7.2/3।
 निसन्देह ये यातुधान प्राकृतिक विपदाएँ हैं । एक अन्य मन्त्र में वे आलंकारिक रूप में कहते हैं कि जिस तरह नदी फेन को बहा ले जाती है उसी तरह हवि यातुधानों को बहा ले जाए,इन यातुधानों से प्रभावित स्त्री-पुरुष अग्नि की स्तुति करें ।
इदं हविर्यातुधानान् नदी पेनमिवा वहत्।
यइदं स्त्री पुमानकरिह स स्तुवतां जनः।। अथर्व।1.2.8।1.
इस प्रार्थना में भाव सौंदर्य दृष्टव्य है। स्वाभाविक है कि इस प्रकार की अलंकारिक भाषा को जादू-टोना तो माना नहीं जा सकता । इसी तरह एक अन्य स्थल पर जातवेद अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह जीवन सम्वर्धन से सम्बन्धित क्रियाओं को जान लें, क्योंकि वही औषधियों का वैद्य है, उसी की सहायता से मनुष्य पशुओं व साथियों के साथ जीवन यापन कर सकता है।
पुरस्ताद् युक्तो वह जातवेदोद्मग्नि विद्धि क्रियमाणं यथेदम्।
त्वं भिषग् भेषजस्यासि कर्ता त्वया गामश्वं पुरुषं सनेमा ।।अवे. 5.29.1.।अग्नि ही प्राणों से युक्त करता सकता है, वही चक्षुओं में प्रकाश देता है, तन को बलवान बनाता है, अमृत का ज्ञाता है, वह न हो तो मनुष्य भूमि के भीतर ही चला जाए-
प्राणेनाग्ने चक्षुषा सं सृजेमं समीरमं तन्वा सं बलेन।
वेत्थामृतस्य मा नु गान्मा नु भूमिगृहो भुवत् ।।अवे.5.30.14.
मनुष्य पर माँसभक्षी रोगाणु सोते या जागते आक्रमण कर देते हैं, अग्नि की कृपा से वे पीड़ा पाएँ तथा पुरुष को निरोग बनाए ।
दिवा मा नक्तं यतमो ददम्भ क्रव्यात् यातूनां शयने शयनम् ।
तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदो इयमस्तु ।। अवे. 5.29.9.
औषधियों को बलशाली बनाने में अग्नि ही नहीं अपितु  मरुत के महत्व को भी स्वीकार किया गया है। जब मरुत बिजली को हृदय में रख तेजी से चलता है तो औषधियाँ पयस्वती हो मंगलमयीं हो जातीं हैं। जहाँ-जहाँ मरुत मधु का सींचन करता है वहाँ-वहाँ औषधियाँ ऊर्जा देने वालीं ,रसवान और कल्याणकारी बन जातीं हैं-
पयस्वतीः कृणुथाप ओषधिः शिवा यदेजथा मरुतो रुक्मवक्षसः ।
ऊर्ज च तत्र सुमदिं च पिन्वत यत्रा नरो मरुतः सिञ्चथा मधु ।।अवे. 6.21.2.।इस प्रार्थना में मात्र स्तुति नहीं अपितु प्रकृति व पर्यावरण के सामन्जस्य को स्वीकृति भी  दी गई है। यही सृष्टि का मूल मन्त्र है । इसी से सृष्टि सृजनमयी बनती है ।         
वस्तुतः लोक मानव सृष्टि की समस्त शक्तियों से अभय मांगता है ,उसे ज्ञात  है कि समग्र पर्यावरण और उसमें निहित दैवी शक्तियां दीर्घ आयु के लिए आवश्यक हैं-
सं मा सिञ्चन्तु मरुतः सं पूषा सं बृहस्पतिः ।
सं मायमग्निः सिञ्न्तु प्रजया च धनेन च दीर्घमायुः कृणोतु मे ।। अवै .7.33.1।
जीवन को निरामय बनाने वालीं स्तुतियां तीनों ही वेदों में समान रूप से हैं अन्तर बस इतना है कि ऋग्वेद में सामरिक संक्रमण काल प्रभाव अधिक प्रमुख रहा जबकि अथर्वेदीय काल मे मानव प्राकृतिक आपदाओं से अधिक जूझता दिखाई पडता है। उसके प्रमुख शत्रु उसी के भीतर छिपे रोगाणु थे ।उसकी शारीरिक पीडाएँ प्रमुख बाधाएँ बन गईं थीं ।
9-औषधियों के प्रभाव को बढ़ाने के लिए एक और रीति भी प्रचलित थी । जैसे किसी वन्ध्या स्त्री को गर्भधारक औषध दी जाती तो उस औषध की मंगल कामना भी की जाती  । इस मंगल कामना में रोगी के मनोविश्वास को बढाने का प्रयत्न तो किया ही गया है साथ ही औषध के गुणों के फलदायक होने की भी कामना की गई है । ऋषि चिन्तक आशीष देतें हैं कि जिस तरह पृथिवी समस्त प्राणियों को जन्म देती है उसी तरह यह स्त्री भी गर्भधारण करे ,जिस तरह पृथिवी वनस्पतियों को जन्म देती है ,पर्वतों को धारण करती है और विस्तृत जगत का वहन करती है उसी तरह यह स्त्री भी गर्भ धारण करे और पुत्र को जन्म दे ।
यथेयं पृतिवी मही भूतानां गर्भमादधे।
एवा ते ध्रियतां गर्भो अऩु सूतुं सवितवे ।।अवे. 6.17.1.            
यथेयं पृथिवी मही दाधरेमात् वनस्पतीम् ।
यथेयं पृथिवी मही दाधार पर्वताम् गिरीम्।.....अवे 6.17.2.3.4.
इस प्रार्थना में आशीष के साथ औषधि की विश्वसनीयता  पर बल दिया गया है। इसी तरह प्रसव से सम्बन्धित प्रकरण मिलता है। छह मन्त्रों के गुम्फ को देख कर ऐसा लगता है मानो कोई प्रसवासन्न नारी जटिल स्थिति से गुजर रही है । भिषकगण उसके प्रसव को सरल बनाने के लिए पूरा प्रयत्न कर रहें हों । प्रत्येक मन्त्र प्रसव की एक-एक क्रिया की व्याख्या करता है जैसे-
आसन्न प्रसवा नारी के अंग कोमल हो जाएँ ,चारों दिशाएँ व भूमि तथा सभी दिव्य शक्तियाँ गर्भ को सुरक्षित रखें .योनि का मुख खुल जाए और नारी हिम्मत से जन्म दे । बालक के जन्म के बाद शीघ्रता से  जरायु नीचे गिरे .कुमार व जरायु अलग-अलग हो जाएँ ।अन्तिम मन्त्र में बडे आलंकारिक रूप में वर्णन है कि जैसे वायु चलती है, मन चलता है.पक्षी उडतें हैं वैसे ही जरायु बालक से शीघ्रता से अलग हो जाए ।
वशट् ते पूषन्नस्मिन्त्सूतावर्यमा होता कृणोतु वेधाः।
सिस्रतां नार्यतप्रजाता वि पर्वाणि जिहतां सूतवा ।। अवे.1.11.1.
चतस्रो दिवःप्रदिशश्चतस्रो भूम्या उत।
देवा गर्भं समैरयन् तं व्यूर्णुवन्तु सूतवे ।।अवे.1.11.2.
सूषा व्यूद्मर्णोतु वि योनिं हायमामसि ।
श्रथया सूषणे त्वमव त्वं विष्कले सृज।।अवे.1.11.3.
यथा वातो यथा मनो यथा पतन्ति पक्षिणः।
एवा त्वं दशमास्य साकं जरायुणा पताव जरायु पद्यताम् ।।अवे.1.11.6।
इन मन्त्रों को किसी भी रूप में जादू-टोना नहीं माना जा सकता । ये या तो चिकित्सा प्रकिया का वर्णन है  या फिर जटिल स्थिति से गुजरते समय सरल मन से की गई स्तुतियाँ है ।  ऐसा भी हो सकता है कि ये मन्त्र जटिल प्रसव प्रक्रिया का वर्णन हों।
10-उपचार विधि के लिए सर्वाधिक आवश्यकता होती है स्वयं पर विश्वास । जब तक चिकित्सक में आत्मविश्वास नहीं होगा तब तक उस की चिकित्सा भी सफल नहीं होगी । अथर्वेदीय चिकित्सक इस आत्म विश्वास से भरपूर थे ।वे बडे विश्वास से कह सकते थे कि- मैं तुम्हें भाई-बान्धवों तथा माता-पिता के साथ वृद्धावस्था से दूर करता हूँ,तुम विश्वास पूर्वक  भेषज का उपयोग करो।
करोयत् ते माता यत् ते पिता जाभिभ्र्राता च सर्जतः।
प्रत्येक सेवस्व भेषजं जरदृÏष्ट कृणोमि त्वा ।।अवे .5.30.5. ।
यदि तुम्हे अंग-भंग हुआ हो या किसी प्रकार का ज्वर हुआ हो या फिर हृदय रोग हुआ हो तो वह तुम्हें छोड कर इसी तरह चला जाए जिस तरह श्येन पक्षी तेजी से उड जाता है । रोगी रोग से दूर हो कर मृत्यु के अंधकार से दूर होवे, उसके लिए अग्नि का ताप व सूर्य का प्रकाश हो- 
अंग भेदो अंग ज्वरो यश्च ते हृदयामयः।
यक्ष्मः श्येन इव प्रापप्तद् वाचा साठः परस्ताद्।।अवे.  5.30.9 ।
इस रोगी की प्राण शक्ति वापिस आए, मन पुनर्जीवित हो जावे चक्षुओं में बल आवे  यह व्यक्ति अपने शरीर को अपने पैरों पर टिका सके।अयमग्निरुपसद्य इह सूर्य उदेतु ते ।
उदेहि मत्र्योर्गम्भीरात् कृष्णाच्चित् तमस्म्वरि।।अवे.5.30.11.
ऐतु प्राण ऐतु मन ऐतुचक्षरथो बलं।
शरीरमस्य सं विदां तत् पदम्यां प्रति तिष्ठतु।।अवे.5.30.13.
उन्हें अपनी औषध पर विश्वास था फिर भी वे जानते थे कि मृत्यु अवश्यम्भावी है उसको टाला तो नहीं जा सकता पर औषधियों की सहायता से जरावस्था से पूर्व की मृत्यु को अवश्य टाला जा सकता है-
मा पुरा जरसो मृथाः।अवे.5.30.17.
यक्ष्मा रोग को दूर करने वाली चिकित्सा विधि तो और भी मनोवैज्ञानिक है । इसमें चिकित्सा मस्तक से आरम्भ होती है औऱ पाँवों तक के सभी रोगों का विनाश करती चलती है । सिर दर्द, कर्ण शूल ,अन्धापन ,तथा हृदय रोगों को दूर करते हुए ही चिकित्सक आँतों की बीमारियों को दूर करता है और अन्ततः  रीढ कूल्हों और पाँवों के रोगों का भी खत्म कर देता है-
शीर्षाकिंत शीर्षामयं कर्णशूलं विलोहितं ।
सर्वं शीषण्यं ते रोगं बहिर्निमन्त्रयामहे।।अवे.9.8.1.
अंगभेदमंगज्वरंविश्वांगयं विसल्पकम्।
सर्वं शीर्षण्यं ते रोगं बहिर्निर्मन्त्रयामहे।।अवे.9.8.5.
पादाभ्यां ते जानुभ्यां श्रोणिभ्यां परि  भससः।  
ननूकादर्षणीरुष्णिहाभ्यःशीष्र्णा रागमनीनशम्।।अवे.9.8.21.      
ते शीष्णः कपालानि हृदयस्य च यो विधुः।
उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीर्षणो रोगमनीनशोद्मगभेदमशीशमः।।अवे.9.8.22.
आज भी लोक में अच्छे चिकित्सक के लिए मुहावरा प्रसिद्ध है-उस चिकित्सक के हाथ में यश है । इसी तरह की भावना वाले मंत्र अथर्ववेद में पाए जाते हैं- भिषक अपने हाथों पर भरोसा करता हुआ कहता है -अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः।
अयं मे विश्वभेषजोच्यं शिवाभि मर्शनः।। अथर्व. 4/13/6।।
मेरा यह हाथ श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर हो जाए हाथ और दश शिखा वाणी की सहायता से मैं तुम्हारा स्पर्श करता हूँ।
हस्ताभ्यां दशशाख्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी।
अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि।। अथर्व. 4/13/7।।
11- अथर्ववेद में जीवन के प्रति विमोह नहीं अपितु सकारात्मक मोह है । इस काल में प्रेम, स्नेह काम आदि सभी रागों को सहज रूप में स्वीकारा गया है। किन्तु वे मृत्यु के सत्य को नहीं भूल पाए । वे मृत्यु को स्वीकार तो कर लेतो हैं किन्तु आयु पूर्ण होने पर ही । वे उसका अपमान तो नहीं करते किन्तु समय से पूर्व उसकी उपस्थिति की कामना भी नहीं करते।( अथर्व . 5.30.17, और अथर्व. 8.1.23)
यही नहीं वे इच्छा मृत्यु को भी सही नहीं मानते।
( मा ते मनस्तत्र गान्या तिरो भून्या जीवेभ्यः। अथर्व. 8.1.7)
 12-अथर्ववेदीय चिन्तक जब शरीर का अध्ययन करते थे तो वे शरीर के अंगों तक ही सीमित नहीं रह पाते थे । वे शीर्षस्थान के सात छिद्रो ( अथर्व. 10.2.1) के साथ मध्य भाग के दो छिद्रों (अथर्व. 10.2.6) को भी जानने की कोशिश करते थे। उस में रहने वली दिव्य शक्ति के बारे में भी चिन्तन करते थे। अथर्ववेद का दशम काण्ड परवर्ती दार्शनिकता की आधार भूमि लगता है। जिसमे प्राण, मन आदि मानसिक भावनात्क शक्तियों को समझने की चेष्टा की गई है । यही नहीं हिरण्यमय कोष और परमानन्द को समझने की भी चेष्टा की गई है और आत्मा को यक्ष के रूप में स्थापित किया गया है-
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।
तस्मिन् हिरण्ये कोशेत्र्यरे त्रिप्रतिष्टिते।
तस्मिन् यद् यक्षमात्मन्वत् तद् वै ब्रह्म विदो विदुः।। अथर्व. 10.2.31-32।
इस तरह से अथर्ववेद में देह को इस तरह से प्रधानता दी गई है कि मनुष्य समाज के पक्ष में रह कर सकारात्मक जिन्दगी जी सके । इस रागात्मकता को परवर्ती विराग से काफी अलग रूप में समझा जा सकता है।

संदर्भ – अथर्ववेद
 



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