-डॉ. अचल पुलस्तेय*
वेदों को लेकर हमारे समाज कई भ्रामक आवधारणायें व्याप्त हैं। जिसका मुख्य कारण वेदों के पठन-पाठन की वर्जनायें रहीं हैं। इसीलिए अतिरंजना के शिकार भी रहे है हम। एक वर्ग का मानना है कि सारी दुनिया का ज्ञान वेदों में है या वेदों से निकला है तो दूसरा वर्ग मानता है कि कुछ भी उपयोगी नहीं है। वेद पाठी ब्राह्मण समुदाय वेदों को समझने के बजाय रट्टा मारकर एक विशेष ध्वनि में पढ़ने को महत्व देता रहा है। इसीलिए वेदों को समान्यतः एक जटिल, धार्मिक और रहस्यवादी साहित्य के रूप में देखा जाता है। जिसमें सामान्य जनजीवन से जुड़ी बातों का अभाव माना जाता है।
डॉ. रति सक्सेना का शोध इन्हीं अवधारणाओं को चुनौती देते
हुए भ्रम भंजन करता है।
डॉ. रति सक्सेना वैदिक साहित्य पर शोधकर्ता,अनुवाद व हिन्दी काव्य साहित्य का अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाम है। जिन्होंने वेदों को मंदिरों, गुरुकुलों, आस्था की परिधि से बाहर निकालकर उन्हें मानवीय जिज्ञासा और वैज्ञानिक सोच के संदर्भ में पुनर्पाठ किया।
डॉ. रति सक्सेना ने यह स्थापित करते हुए कि वेदों, विशेष रूप से ऋग्वेद और अथर्ववेद में,
लोक जीवन का यथार्थ को प्रत्यक्ष किया है। डॉ. सक्सेना का शोध
पूर्वाग्रहों से मुक्त पुनर्विवेचन, किसी वाद के दायरे में न
बंधने वाले चिंतन और तथ्यों, तर्कों तथा भावनाओं के सामंजस्य
पर आधारित है । उनका मानना है कि इस तकनीकी और भौतिकवादी युग में भी वेदों के
पुनर्विवेचन की आवश्यकता महसूस होती है, क्योंकि वे एक ऐसी
संस्कृति की नींव हैं जिसका प्रभाव आज भी दिखाई देता है ।
डॉ. सक्सेना इस बात पर ज़ोर देती हैं कि वैदिक साहित्य को केवल कर्मकांडी या याज्ञिक क्रियाओं के दायरे में नहीं समेटा जा सकता । वह कहती हैं कि वैदिक आचार भी जन सामान्य के आचार थे, जिन्हें हर गृहस्थ अपनी दैनिक चर्या का अंग मानता था । उनके अनुसार, वैदिक साहित्य के एक वृहद हिस्से को एक ही मनोवृत्ति के संकुचित दायरे में समेटना उचित नहीं है, बल्कि उसे समग्रता में देखना चाहिए ।
वैदिक संहिताओं में लोक जीवन का प्रतिबिंब
डॉ. सक्सेना के शोध में यह स्पष्ट होता है कि चारों वैदिक
संहिताओं में ऋग्वेद और अथर्ववेद के अधिकतर भाग जीवन-संबंधी पक्ष को सामने रखते
हैं । वे बताती हैं कि ऋग्वेद की अधिकतर ऋचाएँ गीतों की श्रेणी में आती हैं, जबकि अथर्ववेद के मंत्र अधिकतर चिकित्सा के
उपादानों के रूप में प्रयुक्त होते दिखाई देते हैं, फिर भी
यहाँ गीतात्मकता काफी है । इसके विपरीत, यजुर्वेद और सामवेद
का उद्देश्य याग प्रक्रिया की विस्तृति है । वे मानती हैं कि ऋग्वेद में इन्द्र के
पराक्रम, वरुण की भक्ति, विवाह एवं
मृत्यु सूक्तों के अतिरिक्त बहुत कम ऐसे सूक्त मिलते हैं जो केवल याज्ञिक आचारों
की दृष्टि से रचे गए हों । सहज मन से निकली प्रार्थनाएँ किसी आचार की मोहताज नहीं
होतीं ।
अथर्ववेद को डॉ. सक्सेना लोक-जीवन के यथार्थ का एक
महत्वपूर्ण स्रोत मानती हैं। उनका मानना है कि यह संहिता जीवन-उन्मुख और औषधीय
भजनों से भरी है, फिर भी इसमें
कई दार्शनिक भजन भी हैं । अथर्ववेद में, उन्हें शहर के विचार
और एक सुसंस्कृत समाज के विवरण मिलते हैं, जिसमें उचित तरीके
से खेती करना और बहुमंजिला घर बनाना शामिल था । यह हमें वैदिक काल के सामाजिक और
सांस्कृतिक विकास की एक झलक देता है। अथर्ववेद में ऐसे मंत्र भी हैं जो युद्ध में
विजय पाने के लिए रचे गए थे, जहाँ राजा या यजमान के लिए
प्रार्थना की जाती थी कि शत्रु सेना सो जाए । यह दर्शाता है कि लोक-जीवन में युद्ध
और सुरक्षा से जुड़ी चिंताएँ भी थीं, और वेदों में उनका
समाधान खोजने का प्रयास किया गया था।
विवाह, मृत्यु और सामाजिक चेतना
डॉ. सक्सेना के विश्लेषण में, वेदों में विवाह और मृत्यु जैसे जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं का भी गहराई से
वर्णन है। ऋग्वेद के दशम मंडल और अथर्ववेद के चौदहवें कांड में स्थित विवाह
सूक्तों में नई वधू को यह सीख दी गई है कि वह पति के लिए प्रतिदिन अग्निष्ठोम के
लिए अग्नि का चयन करे, ताकि राक्षस दूर रहें । यह एक सामान्य
गृहस्थ के जीवन का हिस्सा था। इसके साथ ही, उसे यह आशीर्वाद
भी दिया जाता था कि ऋक् और साम उसके पास गायों के समान रहें, जो समृद्धि का प्रतीक था ।
मृत्यु के विषय पर, अथर्ववेद के आठवें कांड के पहले सूक्त में मृत्यु की उपासना का मंत्र है,
जबकि दूसरे सूक्त में मृत्यु के प्रति वैराग्य की भावना उभरती है ।
इस विरोधाभास को डॉ. सक्सेना लोक का मूल मंत्र मानती हैं, जहाँ
पौरुषेय का सम्मान करते हुए भी जिंदगी के प्रति मोह झलकता है । यह न केवल मृत्यु
का विरोध है, बल्कि जीवन के आशावान पक्षों का विवेचन भी है ।
यह दिखाता है कि वैदिक ऋषि भी सामान्य मनुष्यों की तरह जीवन की नश्वरता और मृत्यु
के प्रति जिज्ञासा और भय रखते थे।
डॉ. सक्सेना की शोध पद्धति और वैदिक दर्शन
डॉ. सक्सेना अपने शोध में यह भी बताती हैं कि वैदिक भजनों
को विभिन्न कवियों या 'ऋषियों' द्वारा अलग-अलग समय में रचा गया था, जिन्हें बाद में
यज्ञों में उपयोग के लिए एकत्र किया गया । वे कहती हैं कि ऋग्वेद का प्रत्येक मंडल
एक वंश या परिवार से संबंधित है, सिवाय दसवें मंडल के,
जिसमें सबसे दिलचस्प भजन मिलते हैं । उनका मानना है कि वैदिक
साहित्य कभी भी एक ही विचारधारा का पालन नहीं करता, बल्कि
विभिन्न विचारों के लिए रास्ता खोलता है ।
वह वैदिक ‘नास्तिक’ (नास्तिक) की अवधारणा की भी चर्चा करती
हैं, जो अंग्रेजी ‘एथिस्ट’ से अलग है । वह
सांख्य दर्शन का उदाहरण देती हैं, जहाँ सांख्य ईश्वर का खंडन
नहीं करता, बल्कि सृष्टि को अधिक वैज्ञानिक तरीके से व्यक्त
करता है । इसमें प्रकृति, पुरुष और जीव की तीन शक्तियों की
बात की गई है, जहाँ प्रकृति को ही सृष्टिकर्ता माना गया है ।
वेदों में एक सुंदर मंत्र का उल्लेख है जो इस विचार को एक उपमा के माध्यम से
समझाता है: एक पेड़ पर दो पक्षी बैठे हैं, एक खा रहा है और
दूसरा देख रहा है । यहाँ पेड़ प्रकृति है, देखने वाला पक्षी
पुरुष है, और खाने वाला पक्षी जीव है ।
डॉ. सक्सेना के लिए वैदिक भजन सिर्फ प्रार्थनाएँ नहीं हैं, बल्कि ये जीवन से जुड़े और जीवन के
इर्द-गिर्द के हैं, यानी ब्रह्मांड से संबंधित हैं । वे
उपनिषदों जैसे बाद के साहित्य से वेदों को अलग मानती हैं, जो
भौतिक दुनिया से परे और मानवीय गुणों को समझने का प्रयास करते हैं । उनका यह भी
कहना है कि वेदों में 'देवता' शब्द का
अर्थ सिर्फ उन शक्तियों से नहीं था जो मानव के पक्ष में थीं, बल्कि उन विरोधी शक्तियों से भी था जो मानव को परेशान करती थीं, जैसे 'क्रोध' (क्रोध) या 'तक्मन' (रोग) ।
ऐतिहासिक और भाषाई संदर्भ
डॉ. सक्सेना अपने शोध में मैक्स मुलर की 'आर्यन आक्रमण' के
सिद्धांत का भी खंडन करती हैं, जिसे उन्होंने केवल
ध्वन्यात्मक समानता और भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान सामाजिक-आर्थिक स्थिति के
आधार पर गढ़ा था । वह आधुनिक पुरातत्वविदों का हवाला देती हैं, जो इस सिद्धांत को केवल कल्पना का विषय मानते हैं । वह कहती हैं कि सभ्यता
के साथ-साथ भाषा भी यात्रा करती है, लेकिन जरूरी नहीं कि
पूरा मानव समुदाय एक साथ यात्रा करे । उनके अनुसार, 'आर्यन'
शब्द का प्रयोग केवल एक सम्मानजनक पद के लिए किया जाता था ।
डॉ. सक्सेना बताती हैं कि वैदिक संहिताओं की भाषा पाणिनि
संस्कृत से बहुत अलग और कठिन है, जिसके कारण
अधिकतर इतिहासकार अनुवादों पर निर्भर रहे । वह इस बात पर जोर देती हैं कि अथर्ववेद
में जिन सभ्य समाजों का वर्णन है, जिनमें उचित तरीके से खेती,
घर बनाना और व्यापार के लिए यात्रा करना शामिल था, वह इस बात का सबूत है कि वैदिक सभ्यता एक विकसित सभ्यता थी।
डॉ. रति सक्सेना का शोध हमें वेदों को एक नए दृष्टिकोण से
देखने का अवसर देता है। उनके अनुसार, वेद केवल धार्मिक कर्मकांडों का संग्रह नहीं हैं, बल्कि
वे एक ऐसे समाज का दर्पण हैं, जहाँ लोग जीवन, मृत्यु, विवाह, रोग, और प्रकृति के रहस्यों को समझने का प्रयास करते थे । वेदों में लोक जीवन
का यथार्थ उनकी कविताओं, सामाजिक चेतना, और दार्शनिक जिज्ञासा में गहराई से समाया हुआ है। डॉ. सक्सेना के शोध ने
यह सिद्ध किया है कि वेद केवल ज्ञान की एक पुस्तक नहीं, बल्कि
एक जीवंत साहित्य है जो मानव अस्तित्व के सबसे मूलभूत सवालों का जवाब देता है। उनके
शोध का मुख्य उद्देश्य प्राचीन ऋषियों के विचारों को वैज्ञानिकों और युवा पीढ़ी के
सामने लाना है, भले ही वे वैज्ञानिक रूप से पूरी तरह सही न
हों, लेकिन उनकी सोच आधुनिक शोध निष्कर्षों के बहुत करीब है ।
कुल मिलाकर, डॉ. रति सक्सेना का शोध यह दर्शाता है कि वेदों का सार केवल अनुष्ठानों
में नहीं, बल्कि जनसामान्य के जीवन में निहित है, जिसमें उनका दैनिक संघर्ष, आशाएँ, जिज्ञासाएँ और प्रकृति के साथ उनका गहरा संबंध शामिल है। उनके अध्ययन से
यह स्पष्ट होता है कि वैदिक साहित्य एक जटिल और बहुआयामी दस्तावेज है, जिसे किसी एक संकुचित दायरे में सीमित करना उसके वास्तविक स्वरूप को
नकारना होगा।
* आयुर्वेद चिकित्सक(MD
Ayu) ,विज्ञान व लोक अध्येता, कवि,
लेखक,स्वतंत्र विचारक,एवं बहुविषय
त्रयमासिक जर्नल-ईस्टर्न साइन्टिस्ट मुख्य संपादक हैं।
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