दहकते दिनों की दारुण दास्तान : कोरोना काल कथा-स्वर्ग में सेमिनार

 दहकते दिनों की दारुण दास्तान : कोरोना काल कथा-स्वर्ग में सेमिनार-  *उद्भव मिश्रा                          

 कोरोना काल कथा स्वर्ग में सेमिनारदिवंगत विभूतियों के माध्यम से दर्शन, कला और विज्ञान के अनुशासनों के माध्यम से लेखक ने कोरोना काल की विसंगतियों और विडम्बनाओं का जीवंत दस्तावेज़ पेश किया है जो निश्चय ही पाठक के भीतर एक समझ पैदा करने में सहायक हो सकता है

 

किसी आपद व्यापद का कारण मनुष्य ही होता है। यह मनुष्य ही नहीं प्रत्येक पदार्थ के साथ होता है, जैसे स्वर्ण की चमक ही उसका संकट है।पुष्प की मधुर मादक गंध ही उसके अस्तित्व के लिये अन्त कारक है। इस प्रकार मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य के लिए संकट बन चुकी है ।एक परमाणु की शक्ति के ज्ञान ने सत्ताप्रिय मनुष्य को आत्मध्वंसक बना दिया है।
     नैना योगिनी कोई पौराणिक पात्र नहीं है परंतु लोक मानस में इसके माध्यम से साधना के एक पक्ष की विशद व्याख्या की गई है।कोरोना मनुष्य द्वारा स्वयँ का उपार्जित प्रकृति का दंड है जिसकी  तुलना बहुत कुछ अर्थों मेंजस्टीनियन प्लेग से की जा सकती है जिसने समुचित राजप्रबंधन न होने के कारण रोमन साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर दिया ।

   कथाकार अचल पुलस्तेय कवि और लेखक ही नहीं एक चिकित्सक भी हैं।सामाजिक विज्ञानों के गहन अध्येता होने के साथ-साथ प्राकृतिक विज्ञानों पर भी समान अधिकार रखते हैं प्रकृति और वनस्पतियों से रचनाकार पुलस्तेय का गहरा नाता है।जिसे प्रस्तुत काल कथा में देखा जा सकता है-

   पितामह पुलत्स्य के आदेश पर अर्काचार्य रावण ने कहा-हे लोक चिंतक मनीषियों प्रस्तुत मधुश्रेया पेय के निर्माण का मुख्य घटक मधुयष्टि (मुलेठी) है।जो दिव्य मेध्य रसायन है।यह मधुर, शीतल, स्नेहक बलकारक, कफनाशक, स्वप्नदोषनाशक, शोथनाशक, ब्रणरोधक है।‚

  अपने आस पास घटित होने वाली परिघटनाओं पर वैज्ञानिक विमर्श  रचनाकार के मन का शगल है। कोरोना काल में जब सारी दुनिया थम सी गई थी,ताले में बंद थी तब अचल पुलस्तेय की लेखनी अपने दारुण समय का चित्रांकन कर रही थी,उन्हीं के शब्दों में ‘ऐसे काल का इतिहास दो तरह से लिखा जाता है जिसे इतिहास कहते हैं वह वास्तव में घटनाओं का संवेदनहीन संकलन होता है,जिसका केंद्र सत्ता की विजय गाथा होती है परंतु विकट काल का वास्तविक इतिहास कथाओं और कविताओं में होता है।‚

      कोरोना का काल कथा स्वर्ग में सेमिनार ऐसे ही इतिहास कथा है जिसके केंद्र में राज सत्ता नहीं घरों में बंद आदमी है,उसकी पीड़ा है और समाधान भी।ऐसी कथा है जिसमें अप्रवासी मजदूरों को लॉकडाउन के समय में भूखे प्यासे सड़क पर पुलिस की लाठी खाते,पैदल घर की ओर प्रस्थान करते देखा जा सकता है ।

          दिल्ली,मुम्बई,सूरत,बंगलुरु,पुणे आदि नगरों से लाखों श्रमिक कुल स्त्री,बालकों,शिशुओं सहित रक्तरंजित पाँव,खाली पेट पथरीले राजमार्गों पर दिवा रात्रि अनवरत चल रहे थे ।पुलस्तेय की कोरोना काल कथा देश विदेश में होने वाली परिघटनाओं का जहां जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत करती है वही अपने समय और समाज को ज्ञान की विभिन्न अनुशासनों के माध्यम से व्याख्यायित करने का भी काम करती है।पुलस्तेय की कथा
  
का कैनवास इतना विस्तृत है कि एक साथ राजनीति, दर्शन,साहित्य, मनोविज्ञान, कला,कहानी और इतिहास आदि उभरकर एक ऐसा कोलाज बनाते हैं,जिसमें पाठक खोता चला जाता है यथार्थ के किसी जादुई संसार में। विश्वमनीषा का श्रेष्ठतम चिंतन जहाँ परिलक्षित होता है वहीं रचनाकार के जीवन का लोक पक्ष भी प्रबलतम रूप में सामने आया है भाषा के स्तर पर ही नहीं भोजपुरी समाज की संस्कृति और लोकमान्यताओं की उपस्थिति कथा में विशिष्ट तरह का लालित्य पैदा करती है । एक विशेष प्रकार के आस्वाद का 
अनुभव किया जा सकता है।

        रचनाकार की दृष्टि भारतीय जीवन और समाज के तमाम सारे अंधेरे कोने,अंतरे  मैं भी गई है जिसे देख समझकर सुखद आश्चर्य की भी अनुभूति होती है।कोरोना काल कथा अपने समय का चित्रांकन ही नहीं है वर्तमान की जड़ों को सुदूर अतीत में भी ढूंढने का प्रयास करती है। चरक,सुश्रुत, नागार्जुन, हनीमैन,लुकमान,हिप्पोक्रेट्स,मार्क्स और हीगल आदि की विचार दृष्टि समय और समाज के प्रति जो समझ पैदा करती है,उसके केंद्र में आम आदमी है, आदमीयत की कथा है जो मात्र रचनाकार की कल्पना ही नहीं, एक निश्चित कालखंड का दस्तावेज है। जिसकी जड़ें इतिहास में काफी गहरे प्रविष्ट है। कथाकार प्राच्य विज्ञान की गहराइयों में जाकर कुछ ढूँढता सा नजर आता है तो पाश्चात्य ज्ञान रोशनी में भी अपने देश और समाज को समझने की कोशिश भी किया है ।कोरोना की चुनौती का सामना वैक्सीन की खोज कर करने की कोशिश की गई है तो आयुर्वेद और होमियोपैथी चिकित्सा विधियों का भी प्रयोग किया जा रहा है जो एक विचारणीय विषय है।हर किसी का प्रयास शरीर की रोग रोधक क्षमता को बढ़ाना ही है।इस क्रम में लेखक की बिहंगम दृष्टि चरक सुश्रुत और भावप्रकाश की ओर तो गया ही है।आध्यामिक जगत पर दृष्टिपात करते हुए योग दर्शन पर भी आ टिकी है।पतंजलि के योग सुत्रों की साधारण जनमानस में असम्भाब्यता या दुरूहता की बात करते हुये लेखक का मानना है-‘श्रम रहित ऐश्वर्य भोगी राजपुरुष,वणिक, भोगसमृद्ध पुरुषों के लिये आसान-प्राणायाम  सहायक हो सकते हैं,परंतु इसमें यम के पाँच सूत्रों सत्य अहिंसा अचौर्य( चोरी न करना) ब्रह्मचर्य अपरिग्रह( अनावश्यक धन संग्रह न करना ) में कम से कम दो सूत्रों शौच,संतोष तथा स्वाध्याय,ईश समर्पण में केवल शौच,संतोष का पालन करना अनिवार्य है।यदि इतना भी नहीं हो सकता तो देह को तोड़ने,मरोड़ने,हाँफने का कोई फल नहीं होगा । बात पतंजलि से होते हुए नैना योगिनी तक आती है जहाँ चित्त की वृत्तियोँ के निरोध के स्थान पर चेतनापूर्ण भोग की पराकाष्ठा को ही योग कहा गया है। प्रकृति और पुरुष का संयोग ही योग है, की बड़ी ही सटीक और तार्किक व्याख्या की गई है।












 किसी भी आपदा का सामना करने में राज व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लोक कल्याणकारी राज व्यवस्था की ही तलाश  में लेखक ने सम्राट अशोक, हर्षवर्धन ,जॉर्ज वाशिंगटन, लेनिन गांधी और नेहरू आदि की वैचारिकी और प्रबन्धन को विभिन्न दृष्टियों से समझने की कोशिश किया है और निष्पक्ष होकर निष्कर्ष भी दिया है।आज जब हर समस्या के लिये नेहरू को उत्तरदायी ठहराया जाने लगा है तो लेखक ने विकास के नेहरूवियन मॉडल पर बड़े सलीके से प्रकाश डाला है और यह पाया है कि किसी भी आपद व्यापद का मुकाबला समाज के आखिरी पायदान पर खड़े आदमी को ताकतवर बना कर ही किया जा सकता है।जिसकी जिम्मेदारी राज्य की होती है और यही लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा है।  उपन्यास देश दुनिया की दैनिक घटनाओं का संदर्भ सहित दस्तावेज होने के साथ साहित्यिक रमणीयता के कारण पठनीय बन सका है जो कथाकार की सफलता सबसे बड़ा प्रमाण है।अंततःवास्तविक समीक्षक तो पाठक ही होता है।

*(प्रतिष्ठित समीक्षक,जनसंस्कृति मंच उप्र,कार्यकारिणी के सदस्य एवं अधिवक्ता है)


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