भारत के त्यौहारों-पर्वों को मनाने में विवधता ही इसकी खूबसूरती है। देवरिया जिले दक्षिण में नाग पंचमी को गाय का गोबर,बालू-पीला सरसों साँप का विष झाड़ने के मंत्र जानने वाले अभिमंत्रित कराया जाता है।उसे घर के चारो और रेखा खींच कर नाग-नागिन चित्र बना कर दूध -धान का लावा चढ़ाया जाता है।
असम,बंगाल,बिहार,उड़िसा,झारखण्ड में नागपंचमी को नागलोक की देवी मंशा देवी एवं सती बिहुला की पूजा होती है। इस दिन मंशा देवी के मंदिरों में मेला लगता है। सती बिहुला को बिषहरी माई कहते है। बिषहरी पूजा में बड़ा मेला लगता है। यहाँ विविध पकवानों मिठाइयों और दूध से पूजा की जाती है।उत्तर भारत में जहाँ औपचारिक नामपंचमी होती है वहीं बिहार, बंगाल,असम,, उड़िसा झारखण्ड में धूम-धाम से मनाया जाता है।
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देवरिया में नागपंचमी पूजा |
भारत के त्यौहारों पर्वों को मनाने में विवधता ही इसकी खूबसूरती है। हालाँकि आज सोसल मीडिया ,कुछ प्रवचनकर्ता-कथित धर्मगुरू अभियान चला कर विविधता को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं। त्यौहारों कुछ लोक मिथकों से जोड़ कर परम सत्य कहते है,तो कुछ लोग पाखण्ड कह कर खारिज करते है। ये दोनों पक्ष अतिरेकता के शिकार है। इस अतिरेकता का कारण हमारे विश्वविद्यालयों,उच्च शिक्षण संस्थाओं में लोक पर्व परम्पराओं के अध्ययन की न विधा है न विभाग ।
फिलहाल बात नागपंचमी की है। दरअसल एक समय था जब काल गणना की कोई विधि विधा नहीं थी। तब आदमी सूर्य-चन्द्र, दिन-रात, वर्षा-गर्मी, कृषि-शिकार जीव-जन्तु की रीति-प्रकृति के अनुसार प्रकृति के बदलाओं की पहचान कर खुद को उससे समायोजित करता था । उत्तर भारत में गेंहू की फसल पकने कटने के बाद सतुआन यानि मेष संक्रांति से जन सामान्य के त्यौहार खत्म हो जाते है। जबकि पौराणिक रुप से गंगा दशहरा को त्यौहारी सत्र पूरा मान लिया जाता है। अषाढ़ में धान,बाजरा, सांवा, कोदो अरहर तिल बोने के बाद वर्षा से तपती धरती ठंडी हो जाती है। मौसम सुहाना हो जाता है वीरान धरती हरि भरी हो जाती है। फिर पहला त्यौहार नागपंचमी से शुरू किया जाता है। नाग पंचमी मनाने के तमाम मिथक मिल जायेंगे लोक में भी शास्त्र में भी। लेकिन असल मामला है पानी के कारण बिलेसय जीव यानि बिल में रहने जीव धरती पर आ जाते है जिसमें नाग सर्प महत्वपूर्ण है,इसलिए पहले त्यौहार की शुरु आत नाग पूजा से शुरु होती है। इसके पूजा के तरीके प्रदेश,जिला,नगर क्या गाँव-गाँव में अलग-अलग हैं ।
हमारे यहाँ अर्थात देवरिया जिले दक्षिण में नाग पंचमी को गाय का गोबर,बालू-पीला सरसों साँप का विष झाड़ने के मंत्र जानने वाले अभिमंत्रित कराया जाता है। पहले ऐसे लोग हर टोले मुहल्ले में हुआ करते थे। अब एक आदमी तीन टोलों के बीच बचा हुआ । आज सुबह उसके घर भीड़ लगी थी, कोई शुल्क या दान जैसी बात नहीं है। निःशुल्क वह आदमी सुबह से दस बजे तक अभिमंत्रित किया है। इस अभिमंत्रित गोबर बालू सरसों से घर की बाहरी दीवार पर रेखा खींची जाती है। मुख्य दरवाजे पर चौकोर घर व नाग-नागिन का चित्र बनाया जाता है। इसके बाद स्नानादि करके कुल देवता स्थान यानि देवकुरी पर कुल देवताओं को गाय के दूध में मिला धान का लावा कटहल की पत्ती पर रख चढ़ाया जाता है।इसके बाद मुख्य द्वार पर बने नाग-नागिन को सिंदूर का टीका लगा कर कटहल की पत्ती पर दूधलावा चढ़ाया जाता है। अगले क्रम में घर के बाहर डीह, काली, शीतला देवी,खेत-खलिहान,बाग वाले नाग देवता को भी इसी तरह चढ़ाया जाता है। इसके अलावा सुरहु बाबा को इसी पंक्ति में चढाया जाता है। सुरहु कोई देवता नहीं है ये सुरवल गढ़ के राजभर कुल के कबलाई राजा थे,मझौली के क्षत्रिय राजा के संघर्ष में मारे गये। आज भी सुरौली गाँव में उनके किले टीला है। एक पुरातत्वविद् के अनुसार बारवीं सदी तक इनका अस्तित्व था। आश्चर्य है कि मारे जाने के बाद ये लोक देवता बन गये। जिनकी पूजा राजभर ही नहीं सभी लोग करते है। उन्हें भूत-प्रेत,साँप-बिच्छू से रक्षक माना जाता है। किले टीले पर हजारों प्रकार पुराने पेड़ थे। लेकिन विकास के दौर में टीले का वन काट कर वहाँ थाने का भवन बन रहा है। टीले का अस्तित्व खत्म हो रहा है।
आज के दिन लड़के गाँव के बाग-बागीचों में कुश्ती, कबड्डी, चिक्का आदि खेलते है। दोपहर बाद लड़कियाँ कपड़े की पुलती बनाकर पोखर तालाब में बहाती है। चावल के भूजा व गुड़- बताशा, अमरूद का आपस में लेन-देन करके सहेली बनती है। इस तरह भारतीय त्योहार पूर्णतः प्रकृति के रिश्तों-नातों के त्योहार होते हैं। लेकिन आज न बाग-बागीचे बचे है न ताल पोखर में पानी, धान का लावा पहले भड़भूज के यहाँ या घर पर भुना जाता था,आज दुकानों पर मिल जाता है, विकास के तमाम बदलाओं के बावजूद आज भी कमोबेस परम्परायें कुछ आधुनिकता के साथ जारी है।
इस प्रकार भारतीय त्यौहार शास्त्रों से इतर स्थानीय पर्यावरण के अनुसार मनाये जाते है। बनारस में कागज के नाग दीवारों पर चिपका कर दूध लावा चढ़ाने की परम्परा है । अब थोड़ी बात बिहार-मिथिला,झारखण्ड, बंगाल, असम की कर लेते है। चूंकि असम मानसून पहले आ जाता है, इसलिए यहाँ पहला त्योहार आर्द्रा नक्षत्र अर्थात 22 जून को अम्बुवाची पर्व होता है इस क्रम में बंगाल, उड़िसा, झारखण्ड मिथिला में अषाढ़ मास में मानसून आता है. इसलिए यहाँ पहला त्यौहार अषाढ़ी होता है जो प्रथम पक्ष में अच्छी वर्षा-फसल की कामना से मनाया जाता है। इसे झारखण्ड के आदिवासी लोग विशेष धूम-धाम से मनाते हैं।
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बिषहरी मेला-बिहार,बंगाल,झारखण्ड |
नागपंचमी को नागलोक की देवी मंशा देवी एवं सती बिहुला की पूजा होती है। इस दिन मंशा देवी के मंदिरों में मेला लगता है। सती बिहुला को बिषहरी माई कहते है। बिषहरी पूजा में बड़ा मेला लगता है। यहाँ विविध पकवानों मिठाइयों और दूध से पूजा की जाती है।उत्तर भारत में जहाँ औपचारिक नामपंचमी होती है वहीं बिहार, बंगाल,असम,, उड़िसा झारखण्ड में धूम-धाम से मनाया जाता है।
*लेखक लोक अध्येता,कवि,कथाकर है।
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